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तैं की दर्द न आया…

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मृत्यु का भय सभी मनुष्यों को होता है, परन्तु उस मानव को कोई भय नहीं होता जो ‘ब्रह्मवेत्ता’ होता है, जो विचारक होता है, जो जीवन में सत्य के मार्ग पर चलता है, जिसके स्वप्न में भी किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष नहीं होता। जिस मानव के हृदय में घृणा का कोई स्रोत ही नहीं होता, उनका हृदय निर्मल और पवित्र होता है। जितना हृदय पवित्र होता है, उतना ही मानव परमात्मा के निकट होता है। जब यह आत्मा शरीर को त्याग देती है तो इसके परमाणु विखंडित होकर जल में, पृथ्वी में, अंतरिक्ष में तथा अग्नि में मिल जाते हैं लेकिन कुछ लोग अमरत्व को प्राप्त होते हैं। 11 मई की रात और 12 मई का दिन मेरे लिए बहुत भावुक होते हैं।

शब्द नहीं मिल रहे, कलम बार-बार थम जाती है। कैसे भूल जाऊं 12 मई 1984 के दिन को? घर के आंगन का वह वृक्ष अचानक धराशायी हो गया और ढेर सारी धूप अनायास चारों ओर घुस आई। घर के आंगन में पूज्य पिताश्री का गोलियों से छलनी शव पड़ा था। सारे शहर में एक ही बात गूंज रही थी- रमेश जी नहीं रहे। परम पूज्य पितामह लाला जगत नारायण जी की तरह मेरे पिताश्री भी आतंकवाद की भेंट चढ़ गए थे। पितामह के महापरायण के बाद से ही पिताश्री को न जाने कितनी धमकियां मिल रही थीं परन्तु वह न जाने किस सांचे में ढले थे कि बाहर से सख्त, अति अनुशासनप्रिय और कर्मयोगी, परन्तु भीतर से मोम की तरह नरम।

मैं हजारों लोगों की भीड़ के बीच खुद को अकेला और असहाय पा रहा था। चीख-पुकार और क्रन्दन के बीच मैंने उनकी छोटी सी डायरी के कुछ पन्नों को पलटा। एक पृष्ठ पर श्रीरामचरित मानस की पंक्तियां थीं, एक पर गुरुवाणी के शबद, एक पर गीता के श्लोक। आज भी वह डायरी मेरे पास है। मुझे लगता है कि पिताजी का आशीर्वाद मेरे पास है। उनकी कलम मेरी अटूट साथी है। जब भी कभी खुद को अकेला पाता हूं तो उसमें लिखी पंक्तियां पढ़ लेता हूं। मेरे राम राय तू संता दा संत तेरे, तेरे सेवक को बो किछु नाही, जम नहीं आवे नेड़े। उस समय राष्ट्रविरोधी ताकतों के कारण पंजाब धू-धू करके जल रहा था, बसों और ट्रेनों से एक ही समुदाय के लोगों को उतारकर पंक्ति में खड़े कर गोलियां बरसाकर हत्याएं की जा रही थीं।

बम धमाकों, गोलियों की आवाजों से पंजाब दहल उठा था लेकिन पिताजी अपनी कलम से आतंकवाद के खिलाफ लिख रहे थे और उनका सारा जोर पंजाब में हिन्दू-सिख भाईचारे को कायम रखने पर था। उन्होंने तब पंजाब के हालात पर सम्पादकीय लिखा था-‘तैं की दर्द न आया…’ जिसमें उन्होंने बाबर के जुल्मों का उल्लेख करते हुए सिखों के प्रथम गुरु श्री गुरु नानक देव जी महाराज की वाणी को उद्धृत किया था, जिसमें उन्होंने अकाल पुरख से शिकायत की थी कि इतने निर्दोष लोग मारे गए हैं, फिर भी तुझे दर्द नहीं आया। गुरु महाराज की वाणी है-‘एैनी मार पई कुरलाणे, तैं की दर्द न आया’। हालात वास्तव में गम्भीर थे।

पिताश्री जानते थे कि जिस दिन पंजाब में हिन्दू-सिखों का भाईचारा और रोटी-बेटी की सांझ खत्म हो गई उसी दिन देश का एक और विभाजन हो जाएगा। उन्होंने देश की एकता और अखंडता के लिए अपनी शहादत दे दी। पिताश्री को बहुत से रिश्तेदारों और मित्रों ने समझाया कि आप कुछ समय के लिए शहर से कहीं बाहर चले जाओ लेकिन एक ही जिद आयु पर्यंत उनका शृंगार बनी रही।‘‘असत्य के साथ समझौते से तो अच्छा है कि उस मृत्यु का वरण कर लिया जाए जो राष्ट्र की अस्मिता को समर्पित हो। अन्याय मुझे विवश कैसे कर लेगा? मैं आर्य पुत्र हूं, मैं अमृत पुत्र हूं। सत्य लिखना मेरा धर्म है, कलम मेरा ईमान। मैं सत्यपथ का पथिक हूं, आगे जो मेरा प्रारब्ध, मुझे स्वीकार।’’पिताश्री की शहादत के बाद हमने मुश्किल परिस्थितियों को झेला। रिश्तों ने हमें बहुत नुक्सान पहुंचाया। फिर भी हम विषम स्थितियों का मुकाबला कैसे कर लेते हैं, इसका उत्तर है कि रमेश चन्द्र जी मेरे पिता ही नहीं थे बल्कि मेरे गुरु और मार्गदर्शक भी थे। आज भले ही पत्रकारिता का स्वरूप बदल गया है लेकिन कलम की ताकत अब भी है। उनके नक्शेकदम पर चलकर ही मेरी कलम निरंतर चल रही है। मैंने कभी पोषित सत्य को पाठकों पर लादने की चेष्टा नहीं की।

समाज और राष्ट्र की शक्ति को विकसित करने और उसे निरंतर गतिशील बनाए रखने का दायित्व भी पत्रकार पर होता है। मैं सम्पादक पहले हूं बाकी सब बाद में। पत्रकारिता दोहरे मापदंडों पर नहीं चल सकती। उसे यज्ञ की पवित्र अग्नि की तरह प्रज्ज्वलित रहना होगा जो नित्य नए सरोकारों से भविष्य प्राप्त करती है। इसी वर्ष ​दिल्ली पुलिस ने पिताश्री की हत्या की साजिश में लिप्त एक आतंकी को गिरफ्तार भी किया है।

धमकियां आज भी हमें मिल रही हैं लेकिन पत्रकारिता की गौरव गरिमा बनाए रखने के यज्ञ में मेरे बेटे आदित्य नारायण चोपड़ा, अर्जुन चोपड़ा और आकाश चोपड़ा भी योगदान दे रहे हैं। सामाजिक क्षेत्र में मेरी धर्मपत्नी किरण चोपड़ा सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। पंजाब केसरी की पत्रकारिता असत्य के विरोध और सामाजिक जीवन में मानवतावादी मूल्यों की पक्षधर है। पिताश्री के आशीर्वाद से ही मैं अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा हूं। मेरा लेखन ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि है। कलम के महान सिपाही को नमन।
‘‘जिये जब तक लिखे खबरनामे,
चल दिए हाथ में कलम थामे।’’

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