ट्रेड वार यानी व्यापार युद्ध असल में संरक्षणवाद का परिणाम है। जब कोई देश किसी अन्य देश के साथ व्यापार पर शुल्क अधिक कर देता है और बदले में पीड़ित देश भी ऐसा ही करता है तो ट्रेड वार माना जाता है। अमेरिका और चीन जैसे दो बड़े देश ऐसा करते हैं तो मान लिया जाना चाहिए कि ट्रेड वार शुरू हो चुकी है। अमेरिका आैर चीन के इस युद्ध में अब भारत भी कूद चुका है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पहले चीन पर बौद्धिक सम्पदा की चोरी करने और अनुचित व्यवहार का आरोप लगाते हुए उसके 50 अरब डॉलर के सामानों पर 25 प्रतिशत शुल्क लगा दिया था। चीन भी चुप कैसे रह सकता था, उसने भी अमेरिकी उत्पादों पर 25 प्रतिशत शुुुल्क लगा दिया है। जिन चीनी सामानों पर शुल्क लगाया गया है, उसमें ‘चीन की मेड इन चाइना 2025’ रणनीतिक योजना में शामिल चीजें शामिल हैं। इस योजना के तहत बनी चीजें चीन की आर्थिक वृद्धि के लिए तो अच्छी हैं लेकिन अमेरिका मानता है कि यह चीजें उसे आैर अन्य देशों को आर्थिक नुक्सान पहुंचा सकती हैं। दरअसल अमेरिका को चीन के साथ 370 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है आैर ट्रंप इस व्यापार असंतुलन को ठीक करना चाहते हैं।
डोनाल्ड ट्रंप ने ट्रेड वार को खुलकर हवा दी है, जिसका असर भारत पर भी दिखने लगा है। अमेरिका ने भारत से आयात किए जाने वाले अल्युमीनियम और स्टील पर एकतरफा उत्पाद शुल्क में बढ़ौतरी कर दी थी। अब भारत भारत ने भी अमेरिका से आयात की जाने वाली 30 वस्तुओं की सूची पर 240 मिलियन डॉलर का आयात शुल्क लगा दिया है। भारत ने अमेरिका से आयात किए जाने वाले सामानों की संशोधित सूची विश्व व्यापार संगठन को सौंप दी है। इनमें बादाम, सेब, फास्फोिरक एसिड आैर 800 सीसी से ज्यादा इंजन की मोटरसाइकिल शामिल हैं। मोदी सरकार भी काफी हद तक संरक्षणवादी नीतियां अपनाती है और अपने देश के व्यापार को बचाने के लिए ऐसा किया जाना काफी हद तक जरूरी भी है। अगर कोई देश एकतरफा संरक्षणवादी नीतियां अपनाता है और हमारे हितों को नुक्सान पहुंचाता है तो हमें भी तत्काल प्रभावी कदम उठाने ही चाहिएं इसलिए भारत को अमेरिका पर पलटवार करना ही पड़ा। इस समय समूचा विश्व बाजार मूलक व्यवस्था पर चल रहा है। हर देश को बड़े बाजार की जरूरत है। चीन को बाजार चाहिए, अमेरिका को बाजार चाहिए, भारत को बाजार चाहिए लेकिन व्यापार ‘एक हाथ दे और दूसरे हाथ ले’ पर आधारित होना चाहिए।
अमेरिका का संरक्षणवाद एकतरफा है इसलिए कड़ी प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक हैं। पिछले सप्ताह जी-7 बैठक में भी कनाडा, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देशों ने अमेरिका द्वारा स्टील और अल्युमीनियम उत्पादों पर आयात शुल्क लगाने का फैसला वापस लेने का अनुरोध किया था। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की प्रमुख क्रिस्टीन लागार्ड ने अमेरिका को चेताया था कि एकतरफा आयात शुल्क लगाने से अमेरिका के ही हित प्रभावित होंगे। अमेरिका और चीन जैसी विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच तनाव अच्छी खबर नहीं है। विश्वभर के बाजार इससे सहमे हुए हैं। चीन का शंघाई कम्पोजिट, हांगकांग का हैंगसैंग, जापान का निक्केई तीन फीसदी लुढ़क चुके हैं। भारतीय बाजारों में भी गिरावट देखी गई है। अब यह सवाल महत्वपूर्ण है कि ट्रेड वार से भारत पर कितना असर पड़ेेगा। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा पार्टनर है। अमेरिका के कुल व्यापार में चीन की हिस्सेदारी 16.4 फीसदी है। भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के टॉप 5 ट्रेडिंग पार्टनर्स में नहीं आता। 1.9 फीसदी व्यापार हिस्सेदारी के साथ वह नौवें पायदान पर है। चीन-अमेरिका के कारोबारी रिश्तों में पलड़ा चीन की तरफ झुका हुआ है। यह अन्तर करीब 375 अरब डॉलर का है। अमेरिका चीन को 130.4 अरब डॉलर का निर्यात करता है, इसके उलट वह चीन से 505.60 अरब डॉलर का आयात करता है।
अमेरिका के साथ भारत का ट्रेड सरप्लस 22.9 अरब डॉलर का है जो बहुत ज्यादा नहीं। ग्लोबल ट्रेड में भारत की हिस्सेदारी नाममात्र की है इसलिए भारत पर ट्रेड वार का असर मामूली होगा लेकिन भारत की बड़ी चिन्ता विदेशी निवेशकों का यहां से पैसा निकालना है। अगर ट्रेड वार बढ़ी तो विदेशी निवेशक भारी बिकवाली शुरू कर सकते हैं। इस ट्रेड वार का असर पूरी दुनिया पर होगा। विश्व बिरादरी भी इस मामले में मूकदर्शक नहीं रहेगी। इस युद्ध में चीन और रूस एक साथ हो गए हैं। कुछ वर्ष पहले रूस आैर चीन के सम्बन्ध ज्यादा अच्छे नहीं थे। विश्व में नए-नए ध्रुवीकरण होंगे। इससे व्यापारिक तनाव बढ़ेगा। यूरोपीय संघ भी जवाबी कार्रवाई को तैयार बैठा है। वह अमेरिकी उत्पादों पर इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाने की तैयारी कर रहा है। ट्रंप अपने वोट बैंक को संतुष्ट करने के लिए पूरी विश्व अर्थव्यवस्था को संकट में डाल रहे हैं। वह यह भूल गए कि अमेरिका के नेतृत्व में ही दुनिया ने उदार अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण की ओर कदम बढ़ाए हैं। आज वैश्विक कारोबार की दिशा को अचानक पीछे की ओर लौटाया नहीं जा सकता। ट्रेड वार से विश्व में संरक्षणवाद की प्रवृत्ति बढ़ेगी। इससे बेरोजगारी बढ़ेगी, आर्थिक विकास कम होगा और व्यापारिक साझेदार देशों के रिश्ते ही बिगड़ेंगे। बढ़ा हुआ कर अक्सर उपभोक्ताओं के लिए सामान की कीमत ही बढ़ाता है। इससे अन्ततः नुक्सान उपभोक्ताओं का ही होगा।