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त्रिपुरा की राजनीतिक ‘राह’

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बंगलादेश की सीमा से सटे त्रिपुरा राज्य में आगामी 18 फरवरी को होने वाले चुनाव इस मायने में महत्वपूर्ण होंगे कि पहली बार इस छोटे से राज्य में उग्र राष्ट्रवाद की समर्थक मानी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी वामपंथ का परचम फहराने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को सीधी चुनौती दे रही है। इस राज्य में पिछले 25 सालों से मार्क्सवादी पार्टी की सरकार काम कर रही है आैर इसके मुख्यमन्त्री श्री माणिक सरकार सादगी और सरलता के प्रतीक माने जाते हैं। यह राज्य इस मायने में भी विशिष्ट है कि भारतीय फिल्म संगीत के भीष्म पितामह कहे जाने स्व. स​चिन देव बर्मन की यह एक जमाने में रियासत रही है। स्व. बर्मन इस रियासत के राजकुमार थे।

बंगला और आदिवासी संस्कृति के मिश्रण से सराबोर यह राज्य पड़ाेसी देश बंगलादेश के साथ भारत के मधुर व प्रगाढ़ सम्बन्धों को भी अपने आंचल में समेटे हुए है। इसकी राजधानी अगरतला का आखिरी छोर बंगलादेश के गांव ‘बाह्मनवाड़ी’ से मिलता है जबकि ‘काजी रोड’ अगरतला का हिस्सा है। अतः कई मायनों में यह राज्य संजीदा कहा जा सकता है लेकिन यह भी हकीकत है कि एक जमाने में इस राज्य में प्रथकतावादी चरमपंथी भी सक्रिय रहे हैं जिन पर पार पाने में मार्क्सवादी पार्टी की सरकार ने सफल नागरिक अभियान भी चलाया।

इसके बावजूद इस सरकार से यहां की जनता का अब मोह भंग होने लगा है। इसकी असली वजह विकास की धारा इस छोटे से राज्य में सुदूर ग्रामीण खास कर आदिवासी इलाकों तक पहुंचना न माना जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी इसी स्थिति का लाभ उठाना चाहती है और उसने इस राज्य के उस संगठन से गठबन्धन करने में सफलता प्राप्त की है जिसे आदिवासियों की समस्याएं उठाने में माहिर माना जाता है। हालांकि पीपुल्स फ्रंट आफ त्रिपुरा नाम की यह पार्टी प्रथक आदिवासी राज्य की समर्थक है और त्रिपुरा को खंडित करना चाहती है मगर राष्ट्रवादी कही जाने वाली भाजपा के साथ इसका गठबन्धन उसी प्रकार समझा जा रहा है जिस फ्रकार जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ।

हालांकि पीडीपी-भाजपा गठबन्धन जम्मू-कश्मीर में चुनाव के बाद हुआ था मगर यह परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का गठजोड़ ही समझी जाती है। कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसके अपने लाभ भी गिनाते हैं और कहते हैं कि इससे प्रथकतावादी विचारधारा का राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ एेसा समागम होता है जिससे बीच का रास्ता निकलता है और दोनों विरोधी विचारधाराएं एक बीच का मार्ग निकालने के लिए मजबूर हो जाती हैं। त्रिपुरा में ‘भाजपा व पीपुल्स फ्रंट आफ त्रिपुरा’ के बीच कैसे समीकरण बनेंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा मगर इतना निश्चित है कि भाजपा इस राज्य में केवल विकास के मुद्दे को आगे रख कर मार्क्सवादी पार्टी की सरकार को हाशिये पर लाने में जी-जान से जुट चुकी है।

पिछले दिनों ही इस राज्य में भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने जो रैली निकाली उसे सफल राज​नीतिक प्रदर्शन माना जा रहा है। इसके साथ ही भाजपा ने यहां अपनी जड़ें जमाने के लिए जो रणनीति पिछले एक साल से भी ज्यादा समय से चला रखी है उसकी वजह से वर्तमान सरकार के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती गई हैं। राज्य में अभी तक कांग्रेस पार्टी मुख्य विरोधी दल हुआ करती थी मगर उसकी चुनावी रणनीति भी लगभग वही होती थी जो आज भाजपा की है। वह भी आदिवासी मांगों को हवा देकर मतदाताओं को रिझाने का प्रयास करती थी परन्तु भाजपा ने इस रणनीति के साथ ही राज्य के जर्जर आधारभूत ढांचे और आदिवासी व ग्रामीण इलाकों में फैली भयंकर गरीबी को मुद्दा बनाने में सफलता हासिल कर ली है।

इससे साठ छोटे–छोटे विधानसभा क्षेत्रों में बंटे इस राज्य में राजनीतिक समीकरण बदलने के आसार पैदा हो सकते हैं। राज्य में पिछले वर्ष जिस तरह आठ कांग्रेस विधायकों ने पहले तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता ली और बाद में वे भाजपा में शामिल हो गये, उससे मार्क्सवादी पार्टी में कम्पन पैदा होना स्वाभाविक था। इसे भाजपा ने अपने पक्ष में मोड़ने के लिए अलग नीति बनाई और वित्तीय संकट में फंसे लोगों की मदद तक करने का कार्यक्रम व्यक्तिगत स्तर पर चलाया। इसका सबूत यह है कि राज्य की मुस्लिम आबादी के बहुत लोग भी भाजपा के समर्थन में आकर खड़ेे होने लगे हैं। इससे पूर्व इस वर्ग के लोग कांग्रेस के समर्थक माने जाते थे।

यह जमीमी धरातल पर बदलाव पैदा करने की कोशिश थी जिसमें भाजपा को एक हद तक सफलता मिलती दिखाई पड़ रही है क्योंकि यहां के मुस्लिम समुदाय में मतभेद इस तरह पैदा हो रहे हैं कि भाजपा समर्थक मुस्लिम समुदाय के लोगों को कुछ गांवों में अपनी अलग मस्जिद तक बनानी पड़ रही है। यदि इस तथ्य का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाये तो यह भाजपा का पीपुल्स त्रिपुरा फ्रंट के सहारे अपने विस्तार करने की सफल रणनीति है जिसमें आदिवासियों व गरीब तबकों को विकास का विश्वास दिलाया जा रहा है क्योंकि त्रिपुरा फ्रंट ही वह पार्टी है जो माणिक सरकार के खिलाफ लगातार विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व करती रही है।

हालांकि इसकी मांग प्रथक आदिवासी त्रिपुरा राज्य की रही है जिसका समर्थन राष्ट्रवादी कही जाने वाली भाजपा नीतिगत तौर पर उसी प्रकार नहीं कर सकती जिस प्रकार यह प. बंगाल में गोरखालैंड की मांग का समर्थन नहीं करती जबकि चुनावी मौके पर भाजपा व गोरखा लैंड समर्थक ताकतें एक साथ खड़ी होती रही हैं। निश्चित रूप से छोटे से राज्य त्रिपुरा की राजनीति में यह विरोधाभासों का अजीब मिश्रण कहा जा सकता है, मगर इसके बावजूद यह कारगर चुनावी अस्त्र के रूप में इस्तेमाल हो सकता है। हकीकत यह है कि मार्क्सवादी पार्टी के लिए यह नीति एक चुनौती खड़ी कर रही है।

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