दो पहिये की गाड़ी लोकतन्त्र - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

दो पहिये की गाड़ी लोकतन्त्र

लोकतन्त्र कभी भी एक पक्षीय तरीके से नहीं चलता है। सत्ता पक्ष और विपक्ष इसकी गाड़ी के दो पहिये होते हैं जो लोकतन्त्र की गति को चलायमान रखते हैं। इसमें भी विपक्ष की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि वह सत्तापक्ष की सरकार को 24 घंटे चौकन्ना रखता है। विपक्ष के कमजोर पड़ने पर लोकतन्त्र की गाड़ी का सन्तुलन गड़बड़ा जाता है जिससे सत्तापक्ष के निरंकुश हो जाने का डर रहता है। लोकतन्त्र में बेशक बहुमत का शासन होता है मगर यह कभी भी निरंकुश नहीं हो सकता क्योंकि इस पर विपक्ष का अंकुश सर्वदा रहता है। इस मामले में 1963 का एक ‘उद्धरण’ दिया जाना ही काफी है। इस वर्ष प्रख्यात समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश के फतेहपुर चुनाव क्षेत्र से उपचुनाव जीत कर पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे। लोकसभा में डा. लोहिया ने उस समय भारत की गरीबी की तरफ सरकार का ध्यान दिलाने के लिए प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार की खामियों की तरफ ध्यान दिलाने के लिए एक निजी संकल्प रखा जिसमें कहा गया था कि भारत के औसत आदमी की आमदनी तीन आना रोज है जबकि योजना आयोग 12 आने रोज बता रहा है। डा. लोहिया ने अपने संकल्प के पक्ष में वे सारे तर्क तथ्यों के साथ रख रहे थे जिनसे भारत की गरीबी प्रकट हो रही थी।

पं. नेहरू भी इस चर्चा में शामिल हुए और उन्होंने इस संकल्प की महत्ता को देखते हुए इसे संसदीय संकल्प में परिवर्तित करा दिया। डा. लोहिया ने पं. नेहरू की व्यक्तिगत रूप से भी कटु आलोचना की। डा. लोहिया की किसी भी बात को संसद की कार्यवाही से निकालने की बात न तो नेहरू जी ने की और न कहीं ओर से मांग उठी। इसलिए वह पूरी बहस आज भी संसद के पुस्तकालय में उपलब्ध है। डा. लोहिया संसद में विपक्ष के मान्यता प्राप्त नेता नहीं थे और न ही उस समय तक कोई ऐसी परंपरा थी । मगर डा. लोहिया का जनमानस में जो रुतबा था वह सर्वविदित था। पं. नेहरू ने इस बस के बाद योजना आयोग की संरचना में आमूलचूल परिवर्तन किया और प्रख्यात समाजवादी स्व. अशोक मेहता को इसका उपाध्यक्ष बनाया। सरकार विपक्ष के नेता के कथन को बहुत गंभीरता से ले रही थी और कहीं न कहीं यह स्वीकार भी कर रही थी कि उसकी नीतियों में खामी रह गई है।

लोकतन्त्र विपक्ष और सत्तापक्ष के ऐसे ही सहकार से चलता है क्योंकि दोनों की दृष्टि देश के विकास पर ही होती है। इनके रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं मगर उद्देश्य एक ही रहता है। सवाल यह है कि राहुल गांधी के वक्तव्य से उनके कुछ अंशों को कार्यवाही से निकाल देने का असर क्या होगा? जबकि पूरा देश उनका मूल भाषण सुन चुका है। यहां यह समझना बहुत जरूरी है कि राहुल गांधी अब कोई सामान्य सांसद नहीं हैं बल्कि विपक्ष के मान्यता प्राप्त नेता हैं जो कि एक संवैधानिक पद है। संवैधानिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति की किसी बात को सदन की कार्यवाही से निकाल देना कहां तक उचित है? विपक्ष का नेता देश की उस जनता की समवेत आवाज होता है जिसने चुनावों में सत्ताधारी पक्ष को वोट नहीं दिया होता। उसके बयान में कांट-छांट करना जनता की आवाज में ही कांट-छांट करने के बराबर रखकर देखा जायेगा। फिर भी यह लोकसभा अध्यक्ष के विवेक पर निर्भर करता है कि वह क्या उचित मानते हैं और क्या अनुचित। राहुल गांधी ने अपने नजरिये से देश की सच्चाई उजागर करने का प्रयास किया है। चाहे वह हिन्दुत्व का सवाल हो या अग्निवीर या युवाओं अथवा किसानों का।

राजनीति में सच्चाई को उजागर करना भी एक कला होती है। असल सच्चाई वह होती है जिसे आम लोग सच समझते हैं। सरकारी नीतियों व आंकड़ों में तथ्य कुछ भी हो सकते हैं मगर जमीन पर हमें जो दिखाई देता है अन्तिम सत्य वही होता है। अन्तिम सत्य यह है कि अग्निवीर योजना को देश का युवा पक्षपाती मानता है और नीट की परीक्षा समेत उच्च शिक्षा व्यवस्था को अमीरों के हिसाब की मानता है। सच्चाई यह है कि उच्च शिक्षा पर केवल अमीरों का ही अधिकार रह गया है। गरीब आदमी अपनी औलाद को ऊंची शिक्षा दिलाने में स्वयं को असमर्थ पाता है। हकीकत यह है कि जब देश के 30 प्रतिशत परिवार केवल छह हजार रुपए मासिक आमदनी पर गुजारा करते हों तो वे सामान्य शिक्षा भी किस प्रकार अपनी औलाद को दिला सकते हैं। शिक्षा व्यवस्था में हमें आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत डा. लोहिया के समय से ही महसूस हो रही है। डा. लोहिया का यह नारा स्वतन्त्र भारत में हर काल में सामयिक रहता आया है।

‘‘राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की हो सन्तान
टाटा या बिड़ला का छौना सबकी शिक्षा एक समान।’’

बाजर मूलक अर्थव्यवस्था के बीच हमें ऐसे रास्ते खोजने ही होंगे जिससे किसी चपरासी का बेटा भी आईएएस अफसर बन सके। राहुल गांधी यदि यह कहना चाहते थे तो पूरे देश के युवा उनकी प्रशंसा करेंगे। मगर इसके साथ यह भी उतना ही कड़वा सच है कि संसद के भीतर धार्मिक चित्रों का प्रदर्शन उचित नहीं ठहराया जा सकता। हालांकि राहुल गांधी इनके माध्यम से जो सन्देश देना चाहते थे वह पूर्णतः सामयिक और प्रसंगिक था परन्तु चित्रों के प्रदर्शन के बिना भी प्रेम व भाईचारे का सन्देश दिया जा सकता था। गुरु नानक देव ने तो अपनी वाणी में ही भारत की अस्मिता को जबान दे दी थी जब उन्होंने यह कहा था कि,

‘‘कोई बोले राम-राम, कोई खुदाए
कोई सेवैं गुसैयां, कोई अल्लाए
कारण कर करण करीम, किरपा धार तार रहीम।’’

लोकतन्त्र विपक्ष के सहयोग के बिना नहीं चल सकता क्योंकि हर कदम पर सत्ता पक्ष को विपक्ष की राय का मोहताज होना पड़ता है। एक पक्षीय सत्ता लोकतन्त्र को ही भीतर से खोखला करती है। हाल के चुनाव परिणामों का यदि कोई सबसे बड़ा सन्देश है तो यही है कि सरकार लोकतन्त्र में सबकी सरकार होती है। इसमें अल्पसंख्यक और हर बिरादरी की बराबर शिरकत होती है चाहे इसकी भौतिक संरचना कैसी भी रखी जाये।

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