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उद्धव ठाकरे का ‘बेलगांव’

महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री तथा शिवसेना के सर्वोच्च नेता श्री उद्धव ठाकरे ने यह मत व्यक्त करके, ‘कर्नाटक के मराठी भाषी क्षेत्रों को केन्द्र शासित क्षेत्र में बदल दिया जाना चाहिए’ ऐसे विवाद को जन्म दे दिया है जिससे देश के कुछ अन्य बड़े राज्य भी प्रभावित हो सकते हैं।

महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री तथा शिवसेना के सर्वोच्च नेता श्री उद्धव ठाकरे ने यह मत व्यक्त करके, ‘कर्नाटक के मराठी भाषी क्षेत्रों को केन्द्र शासित क्षेत्र में बदल दिया जाना चाहिए’ ऐसे विवाद को जन्म दे दिया है जिससे देश के कुछ अन्य बड़े राज्य भी प्रभावित हो सकते हैं। 1956 में राज्यों का जब पुनर्गठन हुआ था तो ‘बम्बई’ राज्य से गुजरात व महाराष्ट्र का निर्माण भाषाई आधार पर किया गया था और मैसूर राज्य का विस्तार भी इसी आधार पर हुआ था मगर भौगोलिक समानता भी पुनर्गठन आयोग के समक्ष एक विचारणीय पक्ष रहा था जिसकी वजह से बेलगांव, कारवार और निप्पानी शहरी इलाके मैसूर राज्य में चले गये थे हालांकि यहां के अधिसंख्य लोगों की भाषा मराठी ही थी जो कन्नड़ से अलग थी जो कि मैसूर राज्य के अधिसंख्य लोगों की भाषा थी। इसके साथ यह भी सच है कि साठ के दशक से ही इन इलाकों को महाराष्ट्र में मिलाने की मांग चलती रही है और इसके लिए ‘महाराष्ट्र एकीकरण समिति’ आंदोलन भी चलाती रही है जो कभी-कभी हिंसक रूप तक धारण कर लेता था। मैसूर का नाम बदल कर सत्तर के दशक में इस राज्य के तत्कालीन  मुख्यमन्त्री स्व. देवराज उर्स ने किया था। श्री उर्स इस राज्य के ऐसे कद्दावर कांग्रेसी नेता हुए जिन्होंने इमरजेंसी हटने के बाद स्व. इन्दिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से ही बर्खास्त करने का कड़ा विरोध किया और उनकी अपनी बनाई गई कांग्रेस ( ई) के झंडे तले चुनाव लड़ कर विजय प्राप्त की थी। मगर 1979 में उनके इंदिरा जी से गहरे मतभेद हो गए हैं और उन्होंने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। स्व. उर्स जब 1978 में पुनः कर्नाटक के मुख्यमन्त्री बने थे तो तब भी बेलगांव का मामला उछला था और महाराष्ट्र एकीकरण समिति ने जबर्दस्त आंदोलन चलाया था। तब श्री उर्स ने आश्वासन दिया था कि कर्नाटक के किसी भी मराठी भाषी नागरिक के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा, तब शिवसेना ने उनके बयान को केवल औपचारिक सहानुभूति भरा बताते हुए बेलगांव आदि को महाराष्ट्र में मिलाने की पुरजोर मांग की थी। तब भी यह सवाल खड़ा हुआ था कि इस मामले पर न्यायालय की शरण ली जानी चाहिए। बाद में यह मामला सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गया और वहां से अंतिम फैसला आना अभी बाकी है। मगर श्री ठाकरे ने यह कह कर कर्नाटक की सरकार का फैसले का इंतजार किए ​बिना ही ‘बेलगांव’ का नाम बदल कर ‘बेलगावी’ रख दिया जो कि न्यायालय का अपमान करने जैसा ही है। उनकी यह राय सही भी हो सकती है क्योंकि किसी भी विषय के न्यायालय के विचाराधीन होने पर उसमें छेड़छाड़ करना एक प्रकार से अवमानना ही होती है परन्तु श्री ठाकरे अपने ही तर्क में तब फंस जाते हैं जब वह न्यायालय से फैसला आने का इन्तजार किये बिना ही यह मांग कर देते हैं कि बेलगांव समेत अन्य मराठी भाषी क्षेत्राें को केन्द्र शासित क्षेत्र बना देना चाहिए। जाहिर तौर पर उन्हें भी न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए।  हालांकि उनका मत सैद्धांतिक ज्यादा लगता है क्योंकि बेलगांव को महाराष्ट्र में मिलाने की बात नहीं कही है। मगर मूल सवाल यह है कि राज्यों के गठन और उनकी एकता व भौगोलिक सम्पूर्णता को हम केवल भाषा की दृष्टि से ही नहीं देख सकते।  यदि हम यह नजरिया रखेंगे तो प्रत्येक राज्य में हमें ऐसे टापू मिल जायेंगे जहां के लोगों की भाषा अलग हो सकती है।
 हमें ध्यान रखना चाहिए कि 1956 में जब भारत में कुल 15 राज्य बने थे तो वे भाषा के आधार पर बने थे न कि बोली के आधार पर। इन राज्यों के लोगों की प्राथमिक पढ़ाई का माध्यम वह भाषा ही थी। बेशक बेलगांव में मराठी माध्यम के स्कूलों की संख्या शुरू में बहुतायत में थी जो बाद में कम होती गई मगर इससे मराठी भाषी लोगों के विकास या राज्य की वृहद संस्कृति का हिस्सा होने में कोई रुकावट नहीं आयी। सभवतः श्री ठाकरे को यह प्रेरणा लद्दाख को पृथक केन्द्र शासित क्षेत्र बनाने से मिली है जो 5 अगस्त, 2019 तक जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा होते हुए उपेक्षित महसूस कर रहा था। निश्चित तौर पर बेलगांव में एेसी स्थिति कभी नहीं रही है। यदि हम इस फार्मूले से सोचें तो महाराष्ट्र में ही हैदराबाद रियासत (तेलंगाना राज्य) के कुछ हिस्से 1956 में शामिल किये गये थे जहां लोग तेलगू व उर्दू भी बोलते थे।
भारत तो एेसा देश है जिसमें हर दस कि.मी. बाद बोली बदल जाती है। मगर श्री ठाकरे इस मामले में पूरी तरह खरे उतरते हैं कि बेलगांव आदि के मामले में बोली का नहीं बल्कि भाषा का मामला है, फिर भी इसी आधार पर इसे केन्द्र शासित क्षेत्र किस प्रकार बनाया जा सकता है जबकि इसके लोग स्वयं को दिल से कर्नाटकी मानने लगे हैं ? महाराष्ट्र में स्वयं ही गुजराती भाषी लोगों की कमी नहीं है, खास कर मुम्बई शहर में तो इनकी संख्या अच्छी-खासी है। अतः इस आधार पर पृथक दर्जा देना व्यावहारिक नहीं लगता है परन्तु इनकी इस बात में दम है कि बेलगांव इलाके को लोगों को महाराष्ट्र में ही रहने दिया जाता तो बेहतर होता। एक जमाना था जब हरियाणा के नेता स्व. राव वीरेन्द्र सिंह ने अपनी विशाल हरियाणा पार्टी बनाई थी और वह उत्तर प्रदेश, राजस्थान के लगे इलाकों को सांस्कृतिक व बोली की समानता के आधार पर लेना चाहते थे। इसी प्रकार प. बंगाल का दार्जिलिंग इलाका है जहां गोरखा लोगों की बहुलता है।  हमें ध्यान रखना चाहिए कि भारत की विविधता राज्यो में भी जब छलकती है तो वह सम्पूर्ण राष्ट्र की एकता की छटा ही बिखेरती है।

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