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लोकतन्त्र में लावारिस विपक्ष

भारत की आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में इसका लोकतन्त्र पिछले 75 वर्षों में पहली बार ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें विपक्ष पूर्णतः छिन्न-भिन्न होकर इतना कमजोर नजर आ रहा है कि सशक्त या ठोस राजनीतिक विकल्प की संभावनाएं मृत प्रायः लग रही हैं।

भारत की आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में इसका लोकतन्त्र पिछले 75 वर्षों में पहली बार ऐसे  दौर से गुजर रहा है जिसमें विपक्ष पूर्णतः छिन्न-भिन्न होकर इतना कमजोर नजर आ रहा है कि सशक्त या ठोस राजनीतिक विकल्प की संभावनाएं मृत प्रायः लग रही हैं। इसकी हालत बिल्कुल लावारिस जैसी नजर आ रही है। बड़े आराम से इसका दोष विपक्षी दल सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर लगाते आ रहे हैं मगर इसके लिए स्वयं उनसे बढ़ कर कोई और दोषी नहीं है। इसके मूल कारणों में लगभग सभी विपक्षी दलों का पारिवारिक पार्टियों में तब्दील हो जाना भी एक है। दूसरा मुख्य कारण इन राजनीतिक दलों का एक मात्र एजेंडा भाजपा विरोध से ज्यादा ‘मोदी’ विरोध है। इसकी वजह यही नजर आती है कि समूचे विपक्ष के पास आज प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के कद के आसपास का भी कोई नेता नहीं है। लोकतन्त्र में हालांकि यह कहा जाता है कि व्यक्तियों से बढ़ कर संस्था या राजनीतिक दल का महत्व होता है परन्तु लोकतन्त्र के इस पवित्र व मूल सिद्धान्त को आजादी के बाद लगभग 60 साल तक राज करने वाली पार्टी कांग्रेस ने ही जड़ से समाप्त करने का प्रयास किया और स्वतन्त्रता आन्दोलन की विरासत के नाम पर एक ही परिवार के नाम सत्ता की चाबी रखने का ठेका छोड़ दिया।
 राजनीतिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संगठन की भूमिका को हांशिये पर डालने का काम सबसे पहले स्व. इंदिरा गांधी ने अपने प्रधानमन्त्रित्वकाल में किया। उन्होंने सरकार व संगठन की बागडोर अपने हाथ में रखते हुए विभिन्न राज्यों के चुने हुए मुख्यमन्त्रियों को इस प्रकार बदलना शुरू किया जिस प्रकार किसी दफ्तर में ‘पानी पिलाने वाले’ को बदला जाता है। विभिन्न राज्यों में उभरे क्षेत्रीय दलों का आज हम जो दबदबा देख रहे हैं यह उसी का वैज्ञानिक परिणाम है। परन्तु सितम यह हुआ है कि क्षेत्रीय दलों ने कालान्तर में कदीमी परचून की दुकानों का रूप ले लिया जिसमें पिता की मृत्यु के बाद पुत्र ही गद्दी संभालता है। परन्तु इसकी प्रेरणा भी उन्हें कांग्रेस से न मिली हो एेसा नहीं कहा जा सकता। 
भारत का इतिहास राजा-महाराजाओं के शासन का इतिहास रहा है अतः यहां व्यक्ति पूजा का भाव स्वाभाविक रूप से आम जनता के बीच में उसकी मस्तिष्क चेतना में कहीं न कहीं जरूर रहा है। हालांकि भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान देश को सौंपते हुए इस विसंगति की तरफ बहुत तीखा इशारा किया था परन्तु सदियों से चली आ रही मानसिकता को बहुत जल्दी नहीं बदला जा सकता। स्वतन्त्र भारत में आजादी के नायकों की लोकप्रियता होना बहुत स्वाभाविक था और आजादी दिलाने वाली पार्टी कांग्रेस को चुनौती देना भी बहुत मुश्किल था परन्तु उस दौर में कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए अधिसंख्य राजनीतिक दलों की कमान भी आजादी के नायकों के पास ही थी अतः संसद में कम संख्या में रहने के बावजूद एक से बढ़ कर एक नेता विपक्षी दलों के पास थे। इमें से कुछ नाम प्रमुख हैं-आचार्य कृपलानी, डा. राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, शिब्बन लाल सक्सेना, चक्रर्ती राजगोपाला चारी, मीनू मसानी, आचार्य रंगा, प्रोफेसर एम.जी. कामथ, नाथ पै तथा जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और हिन्दू महासभा के वीर सावरकर। इनके अलावा उन कम्युनिस्ट नेताओं की भरमार थी जिनकी भूमिका मजदूर व किसान आन्दोलनों में प्रमुख मानी जाती थी। परन्तु आज हम विपक्ष पर नजर दौड़ाते हैं तो कांग्रेस समेत विभिन्न क्षेत्रीय दलों की बागडोर राजनीति की खानदानी दुकानदारों के हाथ में नजर आती है। 
उत्तर से लेकर दक्षिण तक के राज्यों में ये दुकानें सजी हुई हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सपा, प. बंगाल में ममता दी की तृणमूल कांग्रेस, ओडिशा में स्व. बीजू पटनायक का बीजू जनता दल, बिहार में लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल, आन्ध्र प्रदेश में स्व. वाईएसआर के पुत्र जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस, तमिलनाडु स्व. करुणानिधि की द्रमुक, हरियाणा में स्व. देवीलाल का लोकदल, पंजाब में प्रकाश सिंह बादल का अकाली दल, तेलंगाना में केसीआर की तेलंगाना राष्ट्रीय पार्टी, महाराष्ट्र में स्व. बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना, झारखंड में श्री शि​बू सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा, कर्नाटक में श्री एचडी देवगौड़ा का जनता दल (एस)। ले-देकर अंगुलियों पर गिने जाने वाले राज्य ही बचते हैं जहां खानदानी दुकानों के रूप में क्षेत्रीय दल नहीं पनपे हैं । अतः राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के इस बीमारी से दूर रहने के कारण इसके सिद्धान्तों व कार्यक्रम का डंका बजना एक स्वाभाविक राजनीतिक प्रक्रिया है। इसलिए जरूरी है कि देश में इन खानदानी राजनीतिक दुकानों को समाप्त करके किसी एक एेसे राष्ट्रीय दल का निर्माण किया जाये जिससे एकल राजनीतिक विमर्श का मुकाबला एकल विमर्श से हो सके। यह कार्य विपक्षी दलों का गठबन्धन बना कर किसी हालत में नहीं हो सकता परन्तु सभी विपक्षी दलों की खानदानी दुकानें भी तब तक बन्द नहीं हो सकतीं जब तक कि विपक्ष के पास कोई एेसा कद्दावर नेता न हो जिसके नेतृत्व में सभी को यकीन हो  और उसकी लोकप्रियता पर विश्वास हो। 
लोकतन्त्र में लोकप्रियता पाना भी कोई मुश्किल काम नहीं होता है क्योंकि नेता के बारे में जन अवधारणा बहुत महत्व रखती है। परन्तु आज जब आम जनता की यह अवधारणा पक्के तौर पर बन चुकी है कि श्री मोदी के कद से आधे कद का भी कोई नेता विपक्ष में नहीं है तो चुनौती किसे और कैसे दी जा सकती है? यदि विपक्ष राष्ट्रीय चिन्ह को लेकर ही अधकचरी प्रतिक्रिया देता है तो उसकी दृष्टि का अन्दाजा लगाया जा सकता है। जरा कोई विपक्षी नेताओं को सापेक्षता (रिलेटिविटी) का विज्ञान का नियम बताये कि पास से देखे जाने वाली वस्तु (आब्जेक्ट) को जब दूर से ऊंचाई पर देखा जाता है तो भाव स्वरूप में अन्तर आ जाता है। मगर जब विपक्षी नेताओं ने ठान लिया है कि वे श्री मोदी द्वारा उद्घाटन किये गये हर समारोह की बाल की खाल निकालेंगे तो सिर्फ उनकी बुद्धि पर तरस खाया जा सकता है। इस मामले मे कांग्रेस के प्रवक्ता जयराम रमेश यदि किसी बुजुर्ग कांग्रेसी की सलाह ले लेते तो उनकी दृष्टि दूर तक जा सकती थी। परन्तु संसद में असंसदीय शब्दावली की जो पुस्तिका प्रकाशित की गई है उस पर सर्वदलीय बैठक बुला कर विचार करने की भी सख्त जरूरत है क्योंकि भाषा का समबन्ध लोकतन्त्र में जन अपेक्षाओं से ही होता है।

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