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विचाराधीन कैदी और राष्ट्रपति की चिन्ता

एक तरफ हम अपनी तरक्की करने की शेखी बघारते रहते हैं और दूसरी ओर सामाजिक बंधुत्व व समानता की कमी से अपराध बोध बढ़ता जा रहा है।

राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का देश की जेलों में विचाराधीन कैदियों की बढ़ी हुई संख्या पर चिन्ता व्यक्त करना पूरी तरह जायज है क्योंकि एक तरफ हम अपनी तरक्की करने की शेखी बघारते रहते हैं और दूसरी ओर सामाजिक बंधुत्व व समानता की कमी से अपराध बोध बढ़ता जा रहा है। यह विरोधाभास क्यों है, इस तरफ गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है क्योंकि किसी भी समाज के सभ्य होने की शर्त यह भी होती है कि जेलों में कैदियों की संख्या बढ़ने के बजाये घटे। सवाल यह है कि क्या इसके लिए हमारी निचले स्तर की न्यायप्रणाली जिम्मेदार है अथवा कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने वाली पुलिस या फिर दोनों? आश्चर्य राष्ट्रपति को इस बात पर भी हुआ कि भारत को और ज्यादा जेलों की जरूरत है। जाहिर है कि पूरी व्यवस्था में ही ऐसी विसंगतियां हैं जिनकी वजह से समाज में अपराध प्रवृत्ति बढ़ रही है और विचाराधीन कैदियों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। 
गैर सरकारी संस्था इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार 2020 के मुकाबले वर्ष 2021 में गिरफ्तार होने वाले लोगों की संख्या में 13 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई। उसकी यह रिपोर्ट सरकारी आंकड़ों पर ही आधारित है। भारत में कुल 1319 जेलें हैं जिनमें 2021 में कुल पांच लाख 54 हजार 34 कैदी बन्द थे जबकि पिछले वर्ष 2020 में इनकी संख्या चार लाख 88 हजार 511 थी। इस प्रकार एक वर्ष के दौरान ही सात लाख से अधिक लोग जेलों में चले गये। इन 1319 जेलों में एक सौ की जगह 13 की दर से कैदी बन्द हैं। इनमें भी उत्तराखंड में सर्वाधिक 180 और राजस्थान में न्यूनतम 100 थी। मगर इससे भी चिन्ताजनक यह है कि इन कुल कैदियों में से 77 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं। विचाराधीन कैदियों की संख्या में पिछले एक दशक में दुगनी वृद्धि हुई है। 2010 में जहां इनकी संख्या दो लाख 40 हजार थी वहीं 2021 में यह बढ़ कर चार लाख 30 हजार हो गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरे भारत में केवल अंडमान निकोबार, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम व त्रिपुरा ही ऐसे राज्य या केन्द्र शासित क्षेत्र हैं, जहां विचाराधीन कैदी नहीं बढे़ हैं वरना शेष सभी राज्यों में ऐसे कैदियों की संख्या में साठ प्रतिशत वृद्धि हुई है। कुछ आंकड़े और भी ज्यादा चौकाने वाले हैं। पूरे भारत में ऐसे 24003 विचाराधीन कैदी हैं, जो पिछले तीन से पांच वर्ष से विचाराधीन ही बने हुए हैं। जबकि 11490 पर मामला पिछले पांच वर्ष से भी ज्यादा समय से चल रहा है। सबसे ज्यादा विचाराधीन कैदी उत्तर प्रदेश व महाराष्ट्र में हैं। यह भी दुखद है कि सर्वाधिक कैदी आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के ही हैं और इनमें से 25 प्रतिशत के लगभग निरक्षर हैं। जिन कैदियों को सजा हुई है और जिनके मुकदमे पूरे हुए हैं, ऐसे 51.7 प्रतिशत कैदी हैं।  इनमें से 21.08 प्रतिशत अनुसूचित जाति के हैं और 14.09 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के हैं और 15.09 प्रतिशत मुस्लिम समुदाय से हैं। मगर जो 49 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं, उनमें 21.08 प्रतिशत अनुसूचित जाति के, 9.88 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के व 18 प्रतिशत मुस्लिम समुदाय से हैं। 
दूसरी तरफ हम जेलों की हालत देखें तो यह और भी ज्यादा हैरतंगेज है। जेलों के कर्मचारियों के खाली स्थानों में 2020 में तीस प्रतिशत की कमी दर्ज हुई जबकि 2021 में 28 प्रतिशत की। जबकि आधे से अधिक राज्यों की जेलों में कर्मचारियों की स्वीकृत संख्या से तीन चौथाई से ही काम चलाया जा रहा है। जेलों में चिकित्सा कर्मचारियों की संख्या में भी भारी गिरावट दर्ज हो रही है। 14 राज्यों में ऐसे कर्मचारियों के 40 प्रतिशत पद खाली पड़े हुए हैं। साल दर साल जेलों में डाक्टरों की संख्या में भी गिरावट आ रही है। वर्ष 2020 में जहां डाक्टरों के 34 प्रतिशत पद खाली पड़े हुए थे, वहीं 2021 में बढ़ कर 48 प्रतिशत हो गये। जबकि जेल नियमाचार के अनुसार तीन सौ कैदी पर एक डाक्टर होना चाहिए मगर हालत यह है कि 842 कैदियों पर एक डाक्टर है। अतः बहुत स्पष्ट है कि हमारी जेल व्यवस्था बढ़ते कैदियों का भार सहन नहीं कर पा रही है और इसके समानान्तर जो व्यवस्था वर्तमान में है, उसकी कमर टूट चुकी है। इसलिए राष्ट्रपति मुर्मू की चेतावनी बहुत सामयिक और गंभीर है। रिपोर्ट के तथ्यों में यह भी चिन्ता का विषय है कि समाज का सबसे गरीब वर्ग ही अपराध के कामों में लिप्त दिखाया गया है। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कानून-व्यवस्था की स्थिति को सुधारात्मक तौर पर न सुलझा कर दंडात्मक तौर पर सुलझाने की कोशिश की जा रही है। यह रवायत पिछली सदियों की है। अतः कैदियों विशेषकर विचाराधीन कै​दियों के मुद्दे पर न्यायपालिका व पुलिस प्रशासन को नये वैज्ञानिक नजरिये से सोचना होगा। 

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