भारत में बेरोजगारी को लेकर जो बहस छिड़ी हुई है उसका आधार यह है कि संगठित क्षेत्र में नौकरियों की कमी हो रही है। संगठित क्षेत्र के आंकड़े आसानी से उपलब्ध भी हो जाते हैं परन्तु असंगठित क्षेत्र में रोजगार के आंकड़े इकट्ठे करना सरल काम नहीं होता क्योंकि भारत की लगभग 90 प्रतिशत अर्थव्यवस्था यही क्षेत्र थामे हुए है। खासकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का दारोमदार इसी क्षेत्र पर है। भारत सरकार के सांख्यिकी व कार्यक्रम नियोजन मन्त्रालय ने 2015-16 के बाद पहली बार जो आंकड़े जारी किये हैं उनके अनुसार पिछले सात वर्षों में गैर संगठित क्षेत्र में 16 लाख 45 हजार नौकरियों का नुकसान हुआ। यह आंकड़ा कोई बहुत आंकड़ा नहीं है मगर इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था की जमीनी हालत क्या है। इससे यह भी अंदाजा लग सकता है कि देश के औसत आदमी की क्रय क्षमता या औसत आय की स्थिति क्या होगी क्योंकि जब नौकरियां ही घट रही हैं तो आम आदमी की औसत आय कैसे बढ़ सकती है। 16.45 लाख नौकरियां क्यों समाप्त हुई। इसकी मुख्य वजह बताई जा रही है कि 2016 में हुई नोटबन्दी का असंगठित क्षेत्र पर बुरा असर पड़ा। इस क्षेत्र में अधिकतम कारोबार नकद रोकड़ा में ही होता था।
नकद रोकड़ा की कमी से छोटे उद्योग-धंधों पर बहुत असर पड़ा। उसके बाद 2017 में वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) लागू कर दिया गया। इसका भी छोटे उद्योग-धंधों पर बुरा असर पड़ा। तदोपरान्त कोरोना का कहर 2020 में आ गया जिसकी वजह से रही-सही कसर पूरी हो गई क्योंकि कोरोनाकाल में तो लाॅक डाऊन की वजह से उद्योग-धंधे बन्द ही कर दिये गये थे। इन आंकड़ों में बताया गया है कि 2015-16 में जहां असंगठित उत्पादन इकाइयों की संख्या 6.33 करोड़ थी वहीं 2022-23 में बढ़कर यह 6.50 करोड़ हो गई। अर्थात इनकी संख्या में 15 लाख 56 हजार का इजाफा हुआ मगर नौकरियां भी लगभग इतनी ही घट गईं। इसका मतलब यही निकलता है कि उद्योग इकाइयों की संख्या बढ़ जाने से जहां रोजगार में इजाफा होना चाहिए वहीं इसमें उल्टे कमी आ गई। यह सब नोटबन्दी, जीएसटी व कोरोना की वजह से हुआ। जिन राज्यों में नौकरियां घटी उनमें उत्तर प्रदेश, प. बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु व बिहार शामिल हैं। इन पांच राज्यों में 2015-16 में कुल छोटी इकाइयां छह करोड़ 34 लाख थीं जिनमें 11 करोड़ 33 लाख लोग रोजगार पाते थे। परन्तु 2022-23 में इन इकाइयों की संख्या बढ़कर छह करोड़ पचास लाख हो गई मगर रोजगार पाने वाले लोगों की संख्या घटकर दस करोड़ 96 लाख ही रह गई।
भारत के कुल दस राज्य ऐसे हैं जिनमें कुल इकाइयों की तीन चौथाई छोटी इकाइयां लगी हुई हैं। इन पांच राज्यों के अलावा मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और ओडिशा हैं। वैसे इन राज्यों का औसत ठीक रहा। मूल प्रश्न यह है कि नकद रोकड़ा की कमी हो जाने के असर से छोटे उद्योगों पर विपरीत असर पड़ा और जीएसटी लागू होने का प्रभाव भी इन्हीं इकाइयों पर पड़ा जबकि कोरोना ने तो इनकी कमर ही तोड़ डाली। परन्तु छोटी इकाइयों की संख्या में वृद्धि बताती है कि स्वरोजगार स्थापित करने में ग्रामीण क्षेत्र में उत्साह रहा है मगर नकद रोकड़ा की कमी होने व जीएसटी का फन्दा लटके होने से इनके कारोबार मन्दे होते चले गये। कोरोना में यह और भी मन्दा पड़ गया। कोरोनाकाल में केन्द्र सरकार ने छोटी इकाइयों को भी वित्तीय मदद देने की स्कीम जारी की मगर वह ऋण रूप में ही थी। कार्यशील पूंजी की आवश्यकता को पूरी करने के लिए बैंकों से इन इकाइयों को ऋण लेने की सुविधा प्रदान की गई मगर इसके प्रति इनके मालिकों में उत्साह नहीं देखा गया।
कोरोनाकाल में छोटी इकाइयों को अपने बिजली बिलों का भुगतान करने के लाले पड़ते सुने गये। कोरोना के बाद ऐसी छोटी इकाइयों की कमर इस हद तक टूट चुकी थी कि इनके पास बैंक से लिए गये कर्जों की किश्तें चुकाने तक के पैसे नहीं थे। कोरोना के बाद जो कर्मचारी बहाल किये गये उनके वेतन में कटौती करनी पड़ी। परन्तु इसके बाद भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बीते वित्त वर्ष 2023-24 में ठहराव आया लगता है क्योंकि इस दौरान सकल विकास वृद्धि दर सन्तोषजनक स्तर पर रही है। मगर यह तथ्य तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि नोटबन्दी व जीएसटी का सबसे बुरा असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था अर्थात असंगठित क्षेत्र पर ही पड़ा जबकि सर्वाधिक रोजगार यही क्षेत्र प्रदान करता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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