वैसे तो हर रोज हम अमानवीय खबरें पढ़ते और सुनते रहते हैं। समाचार पत्रों के पन्ने भी ऐसी खबरों से भरे रहते हैं। मानवीय संवेदनाओं का क्षरण होना किसी भी देश और समाज के लिए घातक होता है। दुर्भाग्य से ऐसा भारत में हो रहा है। हर चीज में मिलावट है, दूध में मिलावट है, ब्रांडेड कंपनियों के उत्पादों में गुणवत्ता की कमी है। नकली दवाइयों का समानांतर व्यापार चल रहा है और सरकार द्वारा संचालित स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत बहुत खराब है। एक तरफ तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तर्ज पर हैल्थ केयर योजना लागू कर चुके हैं। दूसरी तरफ निजी अस्पतालों की लूट का धंधा बदस्तूर जारी है। केन्द्र और राज्य सरकारें अस्पतालों को कई तरह की सहायता देती हैं। दिल्ली में तो प्राइवेट अस्पतालों को सस्ते में सरकारी जमीनें मिली हुई हैं। इसके अलावा निजी अस्पतालों को सरकार कई तरह की सब्सिडी देती है। सरकारी नियमों के मुताबिक इन निजी अस्पतालों को गरीबों का मुफ्त इलाज करना है लेकिन किसी गरीब की क्या हिम्मत कि इनसे अपना उपचार करवा ले। अस्पतालों ने कोर्ट में फ्री की परिभाषा को ही चुनौती दे रखी है। उनका कहना है कि सिर्फ डाक्टरों की फीस और बैड फ्री मिलेगा।
आखिर लूट की कोई हद भी होती है लेकिन इन अस्पतालों की कोई हद नहीं। प्राइवेट अस्पताल जिस तरह से मामूली बीमारी के उपचार का बिल लाखों का थमा रहे हैं, लापरवाही बरतने पर मरीजों की जानें भी जा रही हैं, जीवित शिशुओं को मृत घोिषत किया जा रहा है। ऐसे अस्पतालों में दाखिल होना आत्महत्या करने के समान है। क्या हमारे अस्पताल खासकर प्राइवेट अस्पताल खुद बीमार हो गए हैं ? इन्हें चलाने वालों की मानसिकता ही क्रूर हो चुकी है। इनके इलाज की जरूरत है और सिर्फ नोटिस भेजने और अस्पताल के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई से काम नहीं चलने वाला। अब महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इन बेदर्द अस्पतालों से निपटने का उपाय क्या है? आखिर लोग जाएं तो जाएं कहां? मरीज किस-किस की चौखट पर जाकर रोएं ? इन मरीजों की चीखें किसी को सुनाई नहीं दे रहीं। 1972 के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिका के कैनथ एको ने 1963 में ही चेतावनी दे दी थी कि स्वास्थ्य सेवा को बाजार के हवाले कर देना आम लोगों के लिए घातक साबित होगा। इस चेतावनी का दुनिया भर में बेशक असर हुआ हो लेकिन भारत में स्वास्थ्य सेवा स्वास्थ्य उद्योग में तबदील हो गई और रोजाना नए-नए गुल खिला रही है। इसकी बानगी बड़े वीभत्स, शर्मनाक और अमानवीय तरीके से देखने को मिल रही है। प्राइवेट अस्पताल जिस तरह की लापरवाही और अमानवीयता दिखा रहे हैं उसने पूरे देश को झिंझोड़ कर रख दिया है।
मरीज को खतरा कितना है या नहीं, यह तो उन्हें पता नहीं होता लेकिन अस्पताल प्रबंधन उन्हें आतंकित कर देता है और अनाप-शनाप टैस्ट लिखकर उन्हें लूटा जाता है। निजी अस्पतालों की लूट िछपाए नहीं छिप रही। उदाहरणों के आंकड़े बहुत भयावह हैं जिसमें प्राइवेट अस्पतालों पर लूट-खसूट करने का आरोप सच साबित होता है। मृत व्यक्ति को 7 दिन वेंटीलेटर पर रखना, जीवित को मृत बताना, जब तक बिल अदा नहीं किया जाता तब तक शव नहीं दिया जाना या फिर लाखों का भारी-भरकम बिल थमा देना। अब ऐसी खबरें चौंकाती नहीं बल्कि रुलाती हैं। लोग अक्सर कह देते हैं कि गरीब महंगे अस्पतालों में जाते ही क्यों हैं, यह एक संवेदनशील मुद्दा है जो सच के करीब लगता है लेकिन इसका सीधा संबंध सरकार से भी है जो स्वास्थ्य आैर शिक्षा के प्रति जवाबदेह होती है। सरकारों ने कभी इन अस्पतालों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। तमाम बड़े नेताओं आैर अफसरों का भी यहां मुफ्त में उपचार होता है। ब्रांडेड अस्पतालों की शृंखला खूब चल रही है लेकिन निचुड़ता है आम आदमी।
इन सब परिस्थितियों को ध्यान में रखकर दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने इलाज पर खर्च कम करने के लिए दो महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। केजरीवाल सरकार ने अस्पतालों के मनमाने बिलिंग सिस्टम पर ब्रेक लगाने के लिए प्राफिट कैपिंग पालिसी तैयार की। अब हर चीज का रेट तय होगा। इस नीति के तहत अस्पतालों को पर्चेज कास्ट से 30 फीसद प्राफिट ही रखने के निर्देश दिए जाएंगे। अब तक अस्पताल हर दवा और उपकरणों के दो गुणा या ढाई गुणा वसूलते आए हैं। 20-25 रुपए ग्लब्स की कीमत 100 से 500 तक वसूली जा रही है। यदि केजरीवाल सरकार बेदर्द अस्पतालों पर शिकंजा कसती है तो दिल्ली के लोगों को काफी राहत मिलेगी। सरकार का प्रयास सराहनीय है, जरूरत है इसे सख्ती से लागू करने की। देश में कुल 19,817 सरकारी अस्पताल हैं जबकि निजी अस्पतालों की संख्या 80,671 है। देश में रजिस्टर्ड एलोपैथिक डाक्टरों की संख्या 10,22,859 में महज 1,13,328 डाक्टर ही सरकारी अस्पतालों में हैं। यानी 90 फीसदी डाक्टर प्राइवेट सैक्टर में हैं। देश की 75 फीसदी आबादी इस लिहाज से प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने को मजबूर कर दी गई है। सरकार स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति महीने भर में सौ रुपया भी खर्चा नहीं करती। राज्य सरकारों को चाहिए कि दिल्ली सरकार की नीति को परख कर अपने-अपने राज्यों में मैडिकल क्षेत्र में प्राफिट कैपिंग की सीमा बांधें।