राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के बयान पर कांग्रेस और अन्य कुछ राजनीतिक दलों ने जो बेसुरा राग छेड़ा है उसे पूरी तरह से अनर्गल सियासत ही कहा जा सकता है। अगर मोहन भागवत के वक्तव्य को शब्द-दर-शब्द समझने का प्रयास करें तो उसमें भारतीय सेना के अपमान जैसा कोई शब्द ही नहीं है। उन्होंने वक्तव्य में स्पष्ट कहा है कि ‘‘हम मिलिट्री संगठन नहीं हैं, मिलिट्री जैसा अनुशासन हम में है और अगर देश को जरूरत पड़े और देश का संविधान और कानून कहे तो सेना काे जवान तैयार करने में 6-7 माह का समय लगेगा लेकिन संघ के स्वयंसेवक तीन दिन में तैयार हो जाएंगे। ये हमारी क्षमता है, हम मिलिट्री संगठन नहीं, पैरा मिलिट्री भी नहीं, हम तो पारिवारिक संगठन हैं।’’ उन्होंने सेना के अनुशासन को बेहतर माना है आैर देश की सेना काे सहयोग देने की ही भावना व्यक्त की है। काश! ऐसी भावना हर देशवासी में हो। कांग्रेस और अन्य छद्म धर्मनिरपेक्ष दल यह क्यों भूल जाते हैं कि देश की हर विपदा में स्वयंसेवक हर समय मौजूद रहते हैं।
1962 के भारत-चीन युद्ध को याद करें तो चीन के हमले के दौरान संघ नेतृत्व ने यह तय किया था कि अगर चीनी सेना आई तो बिना प्रतिकार के उन्हें अन्दर प्रवेश नहीं करने देंगे। इस सम्बन्ध में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को भी जानकारी दे दी गई थी। युद्ध के दौरान संघ के कार्यकर्ताओं ने जिस प्रकार भारत की सेनाओं का मनोबल बढ़ाने के लिए खुद पूरे देश में आगे बढ़कर नागरिक क्षेत्रों में मोर्चा संभाला था उसे देखकर स्वयं पंडित नेहरू को इस संगठन की राष्ट्रभक्ति की प्रशंसा करनी पड़ी थी आैर उसके बाद 26 जनवरी 1963 की परेड में संघ के गणवेशधारी स्वयंसेवकों को शामिल किया गया था। 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय स्वयंसेवकों ने पूरे देश में आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने में पुलिस प्रशासन को पूरी मदद की और छोटे से लेकर बड़े शहरों तक इसके गणवेशधारी कार्यकर्ता नागरिकों को पाकिस्तानी हमलों के समय सुरक्षा की ट्रेनिंग दिया करते थे। जब रात के समय शहरों और गांवों में ब्लैकआउट होता था तो संघ के कार्यकर्ता गली-गली, कूचे-कूचे न केवल ठीकरी पहरा देते थे बल्कि घर-घर में जाकर ब्लैकआउट करने के तरीके भी लोगों को बताते थे। 1971 के युद्ध में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बंगलादेश को पाकिस्तान से आजाद कराया और पाकिस्तान के 80 हजार सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा तब विपक्ष में रहते हुए भी अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा आैर रणचंडी का नाम दिया था। युद्ध कोई भी हो संघ के स्वयंसेवकों ने हमेशा प्रखर राष्ट्रभक्ति का परिचय ही दिया।
भोजन, दवा, रक्त, जैसी भी आवश्यकता सेना को पड़ी तो स्वयंसेवकों ने उसकी पूर्ति की। संघ का इतिहास विशुद्ध त्याग, तपस्या, बलिदान, सेवा व समर्पण का इतिहास है, इसके सिवा कुछ नहीं। सेना के एक अधिकारी ने कहा था-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का रक्षक भुजदंड है। आजादी से पहले 1934 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपने वर्धा आश्रम के सामने ही लगे संघ के शिविर में गए थे। देश विभाजन से पूर्व गांधी जी और कांग्रेस के अनेक नेताओं ने संघ को काफी निकट से देखा था। गांधी जी ने वहां ब्राह्मण, महार, मराठा सभी को एक साथ भोजन करते देखा, गांव के मजदूर और किसान भी देखे। गांधी जी ने स्वयंसेवकों की अनुशासनप्रियता आैर उन्हें जाति-पाति के बंधन से दूर देखा तो उन्हें कहना पड़ा कि यदि कांग्रेस के पास ऐसे अनुशासित कार्यकर्ता हों तो आजादी का आंदोलन अंग्रेजों काे देश छोड़ने के लिए बहुत जल्दी मजबूर कर देगा। इसके बाद डाॅक्टर हेडगेवार महात्मा गांधी से मिलने गए और लम्बी बातचीत हुई।
महान समाजवादी चिन्तक डाॅक्टर राम मनोहर लोहिया ने भी संघ के बारे में कहा था कि मेरे पास संघ जैसा संगठन हो तो मैं पूरे देश में पांच साल के भीतर ही समाजवादी समाज की स्थापना कर सकता हूं। गुजरात, ओडिशा, आंध्र, तमिलनाडु , अंडमान निकोबार आैर उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं के दौरान पूरे देश से स्वयंसेवक गए और पीड़ितों की सेवा की। जब भी कभी ऐसे अवसर आए जहां सेवा की आवश्यकता पड़ी वहां स्वयंसेवक कथनी-करनी में खरे उतरे। इसके अलावा संघ अपने संगठनों के माध्यम से वनवासियों, मलिन बस्तियों आैर गरीबों का आत्मविश्वास निर्माण करने, उनके शैक्षणिक और आर्थिक स्तर को सुधारने के लिए विभिन्न प्रकल्प चलाए हुए है जिनके परिणाम काफी सार्थक रहे हैं। इन प्रकल्पों की सफलता को देखते हुए अनेक विद्वानों ने आरएसएस को रेवोल्यूशन इन सोशल सिस्टम यानी ‘सामाजिक व्यवस्था में क्रांति’ का नाम दिया।
संघ की प्रार्थना, प्रतिज्ञा, एकात्मता स्त्रोत्र, एकात्मता मंत्र जिनको स्वयंसेवक प्रतिदिन ही दोहराते हैं, उन्हें पढ़ने-गुनने के पश्चात ही संघ का विचार, संघ में क्या सिखाया जाता है, उनका समाज-राष्ट्रचिन्तन कैसा है, यह समझा जा सकता है। जिनकी जुबां पर हमेशा भारत माता का उद्घोष और हृदय में अखंड भारत का चित्र रहता है उनसे भारतीय सेना का अपमान करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कांग्रेस आैर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने संघ की छवि धूमिल करने के ही प्रयास किए। भारत में हिन्दू संस्कृति की बात करना क्या गुनाह है? अफसोस तो यह रहा कि हिन्दू गौरव की बात करने वाले को फासिस्ट करार दिया जाता है। कभी संघ की तुलना सिमी से की गई तो कभी भगवा आतंकवाद का ढिंढोरा पीटा गया। अगर कोई नागरिक संगठन सीमाओं की रक्षा के लिए अपनी त्वरित तत्परता की बात करता है, देश की रक्षा के लिए तैयार है तो इस पर क्या विवाद हो सकता है लेकिन कांग्रेस और अन्य दल सेना को बीच में लाकर सियासत ही कर रहे हैं। सियासत तो पंडित नेहरू के शासनकाल से लेकर इन्दिरा गांधी के शासन और अब तक होती रही है लेकिन सेना को लेकर सियासत करना गलत परम्परा की शुरुआत होगी। संघ राष्ट्रवादी संगठन है। भावना यही है कि चाहे राष्ट्र कितनी भी कठिनाई में आ जाए तो स्वयंसेवक एकजुट होकर उससे लड़ने व बलिदान देने के लिए तैयार रहेंगे।