स्वतंत्र भारत में विपक्षी दलों की भूमिका विश्व के अन्य लोकतान्त्रिक देशों से हट कर विकल्प प्रस्तुत करने के स्थान पर केवल विरोध की रही है। यदि आजादी के बाद के राजनैतिक इतिहास को ध्यान से पढ़ा जाये तो एक तथ्य निकल कर बाहर आता है कि उस समय कांग्रेस पार्टी इतनी शक्तिशाली थी कि इसका विकल्प प्रस्तुत करना किसी एक राजनैतिक दल के बूते से बाहर था। यही वजह रही कि 1952 के पहले राष्ट्रीय चुनावों में कांग्रेस से बाहर निकले दलों ने ही प्रमुख विपक्ष की भूमिका निभाई। इनमें कांग्रेस से बाहर आया समाजवादी गुट प्रमुख था। मूलभूत रूप से वैचारिक स्तर पर कांग्रेस को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी टक्कर दे रही थी। इन चुनावों में तब की 489 सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस की 364 सीटें आयी थीं मगर निर्दलीय सांसदों की संख्या इसके बाद 37 थी और भाकपा के 16 सदस्यों के बाद समाजवादी पार्टी के 12 सांसद थे जबकि भारतीय जनसंघ की तीन सीटें थी जिनमें इस पार्टी के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी स्वयं भी शामिल थे। शेष लगभग एक दर्जन दल अंगुलियों पर गिने जाने लायक सांसद ही जिता पाये थे। यह इतिहास लिखने का मन्तव्य यह है कि अब 2020 में क्या स्थिति 1952 जैसी हो गई है कि विपक्षी दल विशुद्ध विरोध के लिए भाजपा सरकार की नीतियों का विरोध करें?
इस तर्क से अधिसंख्य बुद्धिजीवी सहमत नहीं होंगे और जीवन्त लोकतन्त्र में उनका सहमत होना भी नहीं बनता है क्योंकि भारत की संसदीय प्रणाली के चुनावी तन्त्र में व्यक्तिगत बहुमत के सिद्धान्त पर हार-जीत तय होती है। अतः 1967 के चुनावों तक कांग्रेस बेफिक्र होकर पूरे देश में राज करती रही ( केवल केरल को छोड़ कर) परन्तु इसी समय समाजवादी चिन्तक व नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने ‘गैर कांग्रेसवाद’ का नारा बुलन्द किया और 1967 के चुनावों में लगभग नौ राज्यों में हाशिये पर बहुमत लेने में सफल हुई कांग्रेस में राज्य स्तर पर विद्रोह हुआ और इस पार्टी के बलशाली क्षेत्रीय नेताओं ने अपना दल छोड़ कर संयुक्त विपक्ष के साथ हाथ मिला कर अपने नेतृत्व में राज्य सरकारों का गठन किया। इनमें उत्तर प्रदेश से चौधरी चरण सिंह, मध्य प्रदेश से गोविन्द नारायण सिंह, बिहार से महामाया प्रसाद सिन्हा, प. बंगाल से अजय मुखर्जी व हरियाणा से राव वीरेन्द्र सिंह प्रमुख थे।
डा. लोहिया अपने गैर कांग्रेसवाद के सिद्धान्त को फलता-फूलता देखना चाहते थे। अतः उन्होंने कांग्रेस पार्टी के विकल्प के रूप में समूचे विपक्ष की संयुक्त विधायक दल सरकारों को अपना आशीर्वाद दिया। इन सरकारों में कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर धुर विरोधी जनसंघ पार्टी भी शामिल हुई मगर ये सरकारें ठोस विकल्प पेश नहीं कर पाईं और अपने ही बोझ से डेढ़-दो साल के भीतर एक-एक करके गिरने लगीं। ये सरकारें इसलिए गिरीं क्योंकि इनके पास कोई नीतिगत विकल्प नहीं था। ये केवल सत्ता पाने की गरज से ही इकट्ठा हुई थीं। दुर्भाग्य से 12 अक्टूबर 1967 को डा. लोहिया की मृत्यु भी हो गई जिसकी वजह से उनके गैर कांग्रेसवाद के नारे ने दम तोड़ दिया। अतः विपक्षी एकता का तार टूट गया मगर 1974 के आते-आते पुनः जेपी आन्दोलन में विपक्षी एकता का ऐलान हुआ और जेपी के झंडे तले मार्क्सवादियों से लेकर जनसंघ के लोग आ गये। इमरजैंसी उठने के बाद 1977 में सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने अपनी एक संयुक्त पार्टी ‘जनता पार्टी’ बना ली और चुनावों में जीत हासिल करके अपनी सरकार भी बना ली मगर नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात हुआ और सरकार गिरने के साथ जनता पार्टी भी टुकड़ों में बिखर गई। इस विश्लेषण में एक तथ्य सांझा है कि विपक्ष की एकता के लिए किसी आन्दोलन की जरूरत होती है। 1967 में अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन था तो 1977 में इमरजेंसी का विरोध मगर दोनों आदोलनों का लक्ष्य केवल सत्ता बदलना ही था क्योंकि दोनों आन्दोलनों के सहारे सत्ता कब्जाने वाले विपक्षी दलों ने कोई नीतिगत विकल्प प्रस्तुत नहीं किया बल्कि आन्दोलन के दौरान जिन मुद्दों पर आम जनता का समर्थन प्राप्त किया गया उन्हें कुर्सी पर बैठते ही ताक पर रख दिया गया।
आजकल देश में जो किसान आन्दोलन हो रहा है उसके सहारे विपक्षी दल एकता दिखाना चाहते हैं। एक बात मूलभूत रूप से समझनी चाहिए कि देश में 1991 में जिन आर्थिक नीतियों को कांग्रेस के प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने लागू किया था मूलतः वे भारतीय जनसंघ के 1951 में लिखे गये घोषणापत्र का ही हिस्सा थीं। जनसंघ खेती को उद्योग का दर्जा देने का हिमायती रहा है और आर्थिक उदारीकरण भी कुछ बन्धनों को छोड़ कर इसी सिद्धान्त की वकालत करता है। यही वजह थी कि 2011 में देश के कृषि मन्त्री के रूप में राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता श्री शरद पवार ने मंडी समिति कानून के हक में लोकसभा में धुंआधार बयान देते हुए कहा था कि यह कानून किसानों को आर्थिक सुरक्षा इस प्रकार देगा कि कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ने के अवसर भी पैदा होंगे और किसानों की आमदनी भी बढे़गी। वास्तव में मंडी समिति कानून का प्रारूप तो 2003 में स्व. वाजपेयी की सरकार में ही स्वीकृत हो गया था परन्तु इसे मूर्त रूप 2004 में कृषि मन्त्री बनने पर श्री पवार ने ही दिया था। यह कार्य डा. मनमोहन सिंह की सरकार में कांग्रेस से निकल कर ही अपनी अलग पार्टी बनाने वाले शरद पवार ने इसलिए किया क्योंकि उस समय के प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह भी कृषि जगत के बाजारीकरण के पक्के पक्षधर थे। यह भी किसी से छिपा हुआ रहस्य नहीं है कि कांग्रेस शासन के अन्तिम समय में लाया गया खाद्य सुरक्षा कानून डा. मनमोहन सिंह की इच्छा के अनुरूप नहीं था। इसकी वजह यह थी कि डा. सिंह मूल रूप से अर्थशास्त्री थे और जानते थे कि देर-सबेर भारत के कृषि क्षेत्र को बाजार की शक्तियों से बांधना ही होगा। यही वजह रही कि 2019 के पंजाब के अपने चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस पार्टी ने मंडी समिति कानून के समानान्तर निजी मंडियों का तन्त्र विकसित करने की बात कही थी। अतः इस मुद्दे पर विपक्षी दलों को किसान आन्दोलन ही एक मंच पर ला रहा है, जरूरी नहीं कि उनके पास ठोस विकल्प हो।