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चर्चों पर अनुचित हमले

भारत के सन्दर्भ में सबसे दुखद वे घटनाएं होती हैं जिसमें किसी एक धर्म के पूजा स्थलों पर दूसरे धर्म के मानने वालों द्वारा हमला किया जाता है।

भारत के सन्दर्भ में सबसे दुखद वे घटनाएं होती हैं जिसमें किसी एक धर्म के पूजा स्थलों पर दूसरे धर्म के मानने वालों द्वारा हमला किया जाता है। ऐसा  इसलिए है क्योंकि भारत की अवधारणा ही विभिन्न धर्मों को समायोजित करने वाले समाज से बनी है। यह सामाजिक संरचना भारत की वह आन्तरिक अन्तर्निहित शक्ति है जिसके बूते पर यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र बना है और एक मायने में प्रजातन्त्र के विचार का उद्गम स्थल भी माना जाता है। हमारे संविधान निर्माता पुरखों ने इसे ‘विविधता में एकता’ का पर्याय निरुपित किया और सुनिश्चित किया कि स्वतन्त्र भारत में सभी धर्मोंं व मतों को मानने वाले लोग भारतीय संविधान से इस प्रकार ताकत लेते हुए अपना निजी विकास इस प्रकार करें कि उनका धर्म इस मार्ग में कोई बाधा न बने। इसके लिए संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गई और अपने मत के प्रचार-प्रसार की छूट दी गई। मगर यह भी व्यवस्था की गई कि किसी भी धर्म को मानने या उसे परिवर्तित करने की छूट भी उसे मिले जिसमें राज्य का हस्तक्षेप न हो परन्तु कालान्तर में किसी दबाव या लालच अथवा भय के आवेश में किये गये धर्म परिवर्तन की संभावनाओं को समाप्त करने के लिए उपयुक्त कानून भी बनाये गये। अतः बहुत ही स्पष्ट है कि भारत में कोई भी व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन केवल स्वेच्छा से ही अपनी आस्थाओं के बदल जाने पर ही कर सकता है। इसका प्रमाण यह है कि भारत पर सात सौ साल से अधिक मुस्लिम शासकों का शासन रहा और दो सौ साल के लगभग अंग्रेजों का शासन रहा परन्तु इस धरती के अधिसंख्य लोगों का धर्म हिन्दू या सनातन ही रहा। 
यहां तक कि औरंगजेब जैसे आतताई मुगल शासक की हिम्मत भी इस देश में इस्लाम धर्म को जबरन थोपने की नहीं हुई हालांकि उसके बारे में यह कहा जाता है कि वह रोज ‘सवा मन जनेऊ’ जला कर ही सन्तुष्ट होता था। इसकी वजह यही थी कि भारतीय संस्कृति इतनी शक्तिशाली थी कि औरंगजेब जैसे शासक को भी इसकी ताकत का लोहा मानना पड़ा और हिन्दू संस्कृति के सामने नतमस्तक होना पड़ा और अपने मराठा सिपेहसालार ‘आपा गंगाधर’ की यह मांग माननी पड़ी कि वह लालकिले के सामने चांदनी चौक में ही भगवान शिव का ‘गौरी- शंकर’ का मन्दिर तामीर करना चाहते हैं। औरंगजेब जैसे कट्टरपंथी इस्लामी बादशाह को पूरे देश में शरीया कानून लागू करने से कौन रोक सकता था ? मगर यह हिन्दू संस्कृति की ताकत ही थी जिसके समक्ष औरंगजेब ने घुटने टेके। क्योंकि यह संस्कृति समावेशी थी और इसका मूल सिद्धान्त मानवतावादी था। जिसका प्रमाण हमें आज भी मिलता है जो हिन्दू धर्मस्थलों में लगने वाले इस नारे के रूप में परिलक्षित होता है ‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो ’। अतः 21वीं सदी के भारत में जब हम यह सुनते हैं कि खुद को हिन्दू धर्म के स्वनामधन्य संरक्षक कहने वाले लोगों ने किसी चर्च अर्थात गिरजाघर पर इस आशंका में हमला कर दिया कि वहां धर्म परिवर्तन का प्रयास किया जा रहा था तो सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि ऐसे  लोग भारत की उज्ज्वल छवि को क्यों दागदार बनाना चाहते हैं और दूसरे धर्मों के मानने वाले लोगों में दहशत का माहौल क्यों बनाना चाहते हैं?  दरअसल यह मानसिकता ही हिन्दू विरोधी है क्योंकि इसमें किसी के धर्म परिवर्तन करने से ही अपनी संस्कृति के ह्रास होने का खतरा छिपा हुआ है जबकि इसकी असली वजह हिन्दुओं की अपनी गूढ़ सामाजिक जातिवादी संरचना के बीच बसी हुई है जिसने सदियों तक दलित कहे जाने वाले लोगों के साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया और उन्हें ‘अछूत’ तक की संज्ञा से नवाजा। 
हाल ही में कर्नाटक से सबसे ज्यादा चर्चों पर हमले होने की खबरें आ रही हैं। इस मामले में पूरे भारत को यह सोचने की जरूरत है कि ऐसे  हमले जो लोग खुद के हिन्दू होने के नाम पर कर रहे हैं वे मूल रूप से भारत का ही नुक्सान कर रहे हैं और अपने देश की अन्तर्राष्ट्रीय छवि को नुक्सान पहुंचाते हुए विदेशों में बसे हिन्दू नागरिकों के लिए कठिनाइयां पैदा कर रहे हैं क्योंकि इससे उन लोगों की छवि भी प्रभावित हो सकती है। वैसे गौर से देखा जाये तो अंग्रेजों के समय तक में भी भारत में ईसाइयत को फैलाने के लिए कभी जोर-जबर्दस्ती या लालच का इस्तेमाल नहीं किया गया बल्कि ईसाई मिशनरियों ने ‘मानव सेवा’ को आधार बना कर अपनी साख बनाई ​जिसमे  स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्र में किया गया उनका योगदान प्रमुख रहा। मगर हमें मध्य प्रदेश के शहर ‘विदिशा’ से एक ईसाई स्कूल पर किये गये हमले की खबर मिली। यह हमला निश्चित रूप से इस वाहियात खबर पर था कि स्कूल में ही धर्म परिवर्तन करने की कोशिशें की जा रही हैं। ऐसे  लोग भूल जाते हैं कि भारत में विभिन्न धर्मादा संस्थाएं या ट्रस्ट भी शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं जाे अधिसंख्य हिन्दू संरक्षकों द्वारा ही संचालित होते हैं और इसमें सभी धर्मों के लोगों को स्वास्थ्य व शिक्षा की सेवाएं दी जाती हैं। जाहिर है कि इनका उद्देश्य लोगों का धर्म परिवर्तन करना नहीं होता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तीर्थ स्थली हरिद्वार में चल रहे कई धर्मादा अस्पताल हैं जिनमें से एक ‘गंगा माता अस्पताल’ का जिक्र मैं यहां करना चाहता हूं जिसमें मुसलमान मरीज भी बराबर की संख्या में आते हैं और यहां के चिकित्सक उन्हें वैसी ही सुविधाएं देते हैं जैसी कि हिन्दू मरीजों को। इसी प्रकार ईसाई मिशनरी अस्पतालों में भी व्यवस्था होती है। जहां तक शिक्षण संस्थाओं का प्रश्न है तो अल्संख्यक शिक्षण संस्थानों के अपने कुछ नियम व कानून होते हैं जिनका अनुपालन वे अपने धर्म के अनुसार करते हैं जिसमें किसी भी छात्र के धर्म का उससे कोई लेना-देना नहीं होता। इनका लक्ष्य केवल विद्यार्थियों के  चरित्र निर्माण से होता है। अतः बहुत जरूरी है कि हम हिन्दू संस्कृति को कमजोर समझना बन्द करें और आक्रामकता त्याग कर अपने भीतर की बुराइयों को दूर करें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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