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यू.पी.: कानून से ऊपर कोई नहीं

1947 में भारत के बंटवारे के परिणामस्वरूप केवल मजहब के आधार पर पृथक मुस्लिम देश पाकिस्तान बन जाने के बाद भारत में बचे हुए मुस्लिम समुदाय के लोगों में मुल्ला-मौलवियों व उलेमाओं ने यह भावना पैदा करने में आंशिक सफलता प्राप्त कर ली

1947 में भारत के बंटवारे के परिणामस्वरूप केवल मजहब के आधार पर पृथक मुस्लिम देश पाकिस्तान बन जाने के बाद भारत में बचे हुए मुस्लिम समुदाय के लोगों में मुल्ला-मौलवियों व उलेमाओं ने यह भावना पैदा करने में आंशिक सफलता प्राप्त कर ली कि आजाद हिन्दोस्तान में भी उनका मजहब सर्वोपरि है। इसका मुख्य कारण तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा उन्हें दिया गया ‘निजी इस्लामी आचार संहिता’ (शरीयत) के पारिवारिक या घरेलू कानूनों को मानने की छूट प्रदान करना था। मुसलमानों को दिये गये इस विशेषाधिकार का उपयोग मुल्ला-मौलवियों ने मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने से रोकने के लिए इस तरह किया जिससे इस समुदाय के लोगों में स्वयं को देश के कानून से ऊपर मानने का भाव जागृत हो सके। इससे बड़ा नुक्सान यह हुआ कि मुसलमानों में अपने मजहब की पहचान को राष्ट्रीय पहचान से भी ऊपर रखने की मानसिकता स्वतः ही बलवती होती गई।
 ये कुछ एेसा कड़वा सच है जिस पर कथित धर्मनिरपेक्षतावादी उदारपंथी लोग आंखें तरेर सकते हैं। इन कथित उदारवादियों का शगल रहा है कि वे मुस्लिम कट्टरपंथियों की भारतीय संस्कृति के समावेशी चरित्र पर किये जाने वाले हर आघात को मानवीय अधिकारों के नाम पर नजरंदाज करते रहे हैं। जबकि मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवी धर्मनिरपेक्ष भारत में ही इस्लाम मजहब न मानने वाले लोगों को बराबरी का दर्जा देने से गुरेज करते रहे हैं और उन्हें ‘काफिर’ की परिभाषा में डालते रहे हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण हमें प्रयागराज में ही पिछले दिनों देखने को मिला जब इस शहर की अटाला मस्जिद के पेश इमाम ‘अली अहमद’ ने उत्तर प्रदेश की पुलिस को ‘काफिर’ बता कर मुसलमानों से उस पर हमला करने को कहा। यूपी पुलिस में हालांकि मुसलमान सम्प्रदाय के भी काफी अफसर और जवान हैं मगर अली अहमद ने इन्हें नजरंदाज कर दिया। सवाल यह पैदा होता है कि जब भारत का संविधान हर सम्प्रदाय व समुदाय के व्यक्ति को बराबर के नागरिक अधिकार कानूनन देता है तो मुसलमानों में स्वयं को कानून से ऊपर मानने का भाव पैदा कैसे हुआ? यहीं पर तुष्टीकरण का प्रश्न आता है। देश से जोड़े रखने के लिए यदि कोई भी सरकार किसी भी समुदाय या सम्प्रदाय का धार्मिक तुष्टीकरण करती है तो उसमें खुद को अन्य समुदायों से ऊपर मानने की भावना का जागृत होना बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। यह मानवीय मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है। इसके तार पाकिस्तान के निर्माण के लिए पैदा किये गये धार्मिक उन्माद से भी जाकर जुड़ते हैं। मगर दुर्भाग्य यह रहा कि लोकतान्त्रिक चुनावी चौसर में मुसलमानों को एक वोट बैंक की तरह प्रयोग करने के लालच में इस जमीनी हकीकत को भुला दिया गया और मुसलमानों को रोशन ख्याल बनाने की जगह उनकी रहनुमाई मुल्ला-मौलवियों के हाथ में ही रहने दी गई। इससे मजहब के आधार पर ही मुल्क के दो टुकड़े होने के बावजूद मुस्लिम सम्प्रदाय गत मानसिकता में वह अन्तर नहीं आ पाया जिसकी तवक्को भारतीय संविधान के लागू होने के बाद रखी गई थी।
स्वतन्त्र भारत में भी हम ‘मुस्लिम राष्ट्रवाद’ को ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ में तब्दील नहीं कर सके। भारतीय राष्ट्रवाद को जो लोग ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ कहते हैं उनका आशय मजहब से कभी नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दू शब्द सबसे पहले ईरान के बादशाह ‘दारा’ ने भारत में रहने वाले लोगों के लिए प्रयोग किया था। हिन्दू को कोई धर्म बताना भी उचित नहीं है क्योंकि किसी भी हिन्दू धर्म शास्त्र में इस शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी और पं. जवाहर लाल नेहरू की पार्टी कांग्रेस भी राष्ट्रवादी पार्टी ही कहलाई जाती थी। मुहम्मद अली जिन्ना तो इसे हिन्दू पार्टी तक बताता था लेकिन आजाद भारत में बचे मुसलमानों के जहन को भारतीयता के अनुरूप ढालने का कोई प्रयास इस तरह नहीं किया गया कि वे अपनी मजहबी रूढ़ीवादिता को छोड़ कर देश के संविधान की रोशनी से खुद को रौशन बनाते हुए वैज्ञानिक मानसिकता की तरफ अग्रसर हों। वे मुल्ला-मौलवियों द्वारा बताये गये दकियानूस रास्तों पर ही चलते रहे जबकि सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में उनकी रसूखदारी हिन्दुओं से बुलन्दी पर रही और इस तरह रही कि आर्थिक क्षेत्र में परस्पर निर्भरता के बिना दोनों में से किसी एक का भी गुजारा मुमकिन नहीं है। यहीं आकर कम्युनिस्टों के महागुरु कार्ल मार्क्स का सिद्धान्त ‘आर्थिक सम्बन्धों से सामाजिक सम्बन्धों का उदय’ ढेर हो जाता है। शायद यही वजह है कि भारत के कम्युनिस्ट मुस्लिम कट्टरवाद को ‘सहिष्णुता’ के घेरे में उलझाते हैं।  
अब हम उत्तर प्रदेश में दंगाइयों और उनके रहनुमाओं के अवैध मकान ध्वस्त करने की योगी आधित्यनाथ सरकार की नीति की बात करते हैं। दंगाइयों के खिलाफ फौजदारी नियमो के तहत माकूल कार्रवाई करना और अवैध निर्माणों को गिराना दोनों बाते अलग-अलग हैं। यह संयोग हो सकता है कि दंगाई का मकान भी अवैध निर्माण हो। अतः उसके विरुद्ध स्थानीय शहरी निकाय नियमानुसार कार्रवाई करेगा। उसे कानून यदि अवैध निर्माण गिराने का हक देता है तो वह ऐसा कर सकता है। मगर पैगम्बर मुहम्मद ‘सले अल्लाह अलै वसल्लम’ बारे में विवादित टिप्पणी करने वाली श्रीमती नूपुर शर्मा का ‘सिर तन से जुदा’ करने का आह्वान भारत के किस कानून के तहत आता है? क्या इसकी मजम्मत जमीयत उल-उलमा-ए-हिन्द के किसी मौलाना की? जबकि प्रयागराज में दंगाइयों के कथित सरगना जावेद मोहम्मद का घर ढहाये जाने के मुद्दे को लेकर जमीयत के उलेमा मदनी साहब सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गये। नूपुर शर्मा के खिलाफ मौत का फतवा जारी करने वाले लोगों के खिलाफ भी क्या शान्तिपूर्वक प्रदर्शन नहीं होना चाहिए?
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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