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यू.पी. में ‘जनसंख्या’ का रौला

सर्वप्रथम यह समझना जरूरी है कि संविधान में राज्यों को जो अधिकार दिये गये हैं वे प्रदेशों के हितों को इस प्रकार संरक्षित करने के लिए दिये गये हैं

सर्वप्रथम यह समझना जरूरी है कि संविधान में राज्यों को जो अधिकार दिये गये हैं वे प्रदेशों के हितों को इस प्रकार संरक्षित करने के लिए दिये गये हैं कि प्रत्येक राज्य का नागरिक सबसे पहले भारतीय होते हुए अपने निजी विकास व उत्थान के लिए एक समान रूप से संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का उपयोग एक समान रूप से कर सके और कोई भी सत्ता या शासन उसके साथ उसकी जाति या धर्म अथवा शिक्षा या लिंग को लेकर किसी प्रकार का भेदभाव न कर सके। अतः उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ अपनी नई जनसंख्या नीति का जिस तरह प्रचार कर रहे हैं उसे भारत के संविधान के तहत देश का सर्वोच्च न्यायालय पहली ही नजर में कूड़े की टोकरी में फैंकने ऐलान कर सकता है कि राज्य सरकारों का पहला कर्त्तव्य संविधान के अनुसार नागरिकों के उन हितों का संरक्षण करना है जिनसे वे स्वयं को अधिक सशक्त बना कर राष्ट्रीय विकास में अपना योगदान दे सकें। यद्यपि मुख्यमंत्री योगी ने जनसंख्या नियंत्रण का ड्राफ्ट जारी करके यह कहा है कि इसमें हर वर्ग का ध्यान रखा जाएगा लेकिन जनसंख्या के बारे में जो बुनियादी तौर पर गलत अवधारणा फैलाने की कोशिश की जा रही है वह यह है कि इसके लिए नागरिक या समाज दोषी हैं। जबकि हकीकत यह है कि इसके लिए वे सामाजिक परिस्थितियां व विसंगतियां दोषी हैं जिन्हें बदलने का प्रयास जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों द्वारा ही नहीं किया गया। इस मामले में संविधान का स्पष्ट निर्देश है कि प्रत्येक सरकार समाज में वैज्ञानिक सोच व दृष्टि बढ़ाने के लिए काम करेगी  परन्तु पिछले तीस साल से पूरा देश देख रहा है कि किस प्रकार समाज में अन्धविश्वास और रूढ़ि​वादिता की जड़ें मजबूत की जा रही हैं जिनमें जातिगत व्यवस्था सबसे ऊपर है। संविधान निर्माता  बाबा साहेब अम्बेडकर का सपना था कि संविधान में सामाजिक बराबरी के प्रावधानों के लागू होने के बाद भारत में एक न एक दिन जाति विहीन समाज की नींव जरूर पड़ेगी। मगर इसके विपरीत हो यह रहा है कि जैसे-जैसे हम वैज्ञानिक प्रगति करते जा रहे हैं वैसे-वैसे ही और अधिक रूढ़ीवादी व अन्धविश्वासी होते जा रहे हैं। इसका सीधा दोष उस राजनीतिक तन्त्र को दिया जा सकता है जिससे लोकतन्त्र में सत्ता पैदा होती है। अतः जनसंख्या के मामले में सत्ता कोई भी कानून नागरिकों पर किसी कीमत पर नहीं थोप सकती है। जनसंख्या का सीधा सम्बन्ध नागरिकों की गरीबी और सामाजिक सोच से है। यदि जनसंख्या नीति में यह बखान करने की कोशिश की जाती है कि जिनके दो से अधिक बच्चे होंगे उन्हें न तो सरकारी नौकरी मिलेगी और न वे पंचायत स्तर का चुनाव लड़ पायेंगे या अन्य किसी सरकारी कल्याण सुविधा का लाभ ले पायेंगे, यहां तक कि उनके राशन कार्ड में सिर्फ चार लोगों का अनाज ही दिया जायेगा तो यह सत्ता द्वारा उनके गरीब होने की सजा दी जा रही है। गरीबी का न कोई धर्म होता है और न जाति बल्कि यह आर्थिक हालत होती है। जो आदमी पहले से ही गरीब है जिसका कारण अशिक्षा व सामाजिक ताना-बाना है तो भारत की कल्याणकारी राज की संस्थापना कहती है कि सरकारी सुविधाओं पर उसका पहला हक बनता है। मगर जनसंख्या नीति उसे ही सबसे पहले निशाने रख कर उसे सजा सुना रही है। 
 दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस बड़ी जनसंख्या के लाभ का हम अभी तक ढिंढोरा पीट-पीट कर कह रहे थे कि ढाई अरब हाथ अगर किसी काम को करने की ठान लें तो उसे पूरा होने से कौन रोक सकता है, वह आज अचानक बोझ कैसे हो गई? जनसंख्या अकेले उत्तर प्रदेश की समस्या नहीं है बल्कि यह पूरे देश की समस्या है और उत्तर प्रदेश का समूचे राष्ट्रीय विकास में हिस्सा भी है और योगदान भी है। जरा सोचिये भारत के सभी राज्यों ने अपने वित्तीय अधिकार वस्तु व सेवा शुल्क परिषद के समक्ष क्यों गिरवीं रखे?  इसी वजह से कि सभी राज्य एक दूसरे की खूबियों का लाभ उठा सकें और कमजोरियों को पाट सकें। अतः उत्तर प्रदेश की जनसंख्या नीति से नीयत पर सवाल खड़ा होता है क्योंकि इसका लक्ष्य विकास करना नहीं बल्कि विकास के चक्र से गरीबों को बाहर करना है क्योंकि योगी स्वयं मान रहे हैं कि जनसंख्या का सम्बन्ध गरीबी से है। यदि गरीबी और जनसंख्या समानुपाती हैं तो कोई भी शासन किस प्रकार गरीबों को ही सजा दे सकता है। लोकतन्त्र इसे जुल्म के दायरे में रखता है। हालांकि योगी जी की जनसंख्या नीति अभी केवल एक वैचारिक सपना है क्योंकि इसका मसौदा ही बहस के लिए जारी किया गया है, इसी वजह से नीयत पर सवाल खड़ा हो रहा है क्योंकि जब कक्षा 12 का नागरिक शास्त्र का विद्यार्थी तक यह जानता है कि भारत का संविधान किसी भी नागरिक के साथ उसकी सामाजिक व घरेलू परिस्थिति को देख कर भेदभाव करने की इजाजत नहीं देता है तो किस प्रकार दो से अधिक बच्चे रखने वाले नागरिक को दोयम दर्जे का नागरिक कोई भी राज्य सरकार बना सकती है। 
जनसंख्या का सीधा सम्बन्ध महिलाओं की स्थिति से भी जाकर जुड़ता है। पिछड़े या अशिक्षित अथवा ग्रामीण समाज में महिला की स्थिति ऐसी नहीं है कि उसका बच्चे पैदा करने पर अपना अधिकार हो। सब कुछ उसके पति की इच्छा पर ही निर्भर करता है अतः ऐसी नीति का सबसे ज्यादा कुप्रभाव महिलाओं पर ही सबसे पहले पड़ेगा। महिला सशक्तीकरण के इस नीति से परखचे उड़ जायेंगे परन्तु जनसंख्या के मुद्दे पर मैंने पहले भी लिखा था और बताया था कि दुनिया भर में सबसे बड़ी आबादी का मालिक होने के बावजूद चीन अब अपने नागरिकों से दो की जगह तीन बच्चे पैदा करने के लिए कह रहा है? इस बारे में भारत के राजनीतिज्ञों को गंभीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि 2050 तक चीन की प्रजनन क्षमता में कमी होती जायेगी जिसकी वजह से इसे काम करने वाले हाथों की किल्लत होने लगेगी। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षणों में भारत में भी यह पाया गया है कि यहां के नागरिकों की प्रजनन क्षमता इस सदी के अतः 2100 तक मात्र 1.3 प्रतिशत ही रह जायेगी अर्थात चार में से एक परिवार ही ऐसा होगा जिसके दो बच्चे होंगे। ऐसा इसलिए होगा कि 2050 तक भारत की आबादी का 70 प्रतिशत शहरों में होगा और शिक्षा का प्रसार इसी क्रम से होगा जिससे जनसंख्या कम होने की तरफ चलने लगेगी। अभी हम केरल का ही उदाहरण लें कि वहां किस प्रकार जनसंख्या कम हुई। केरल में पूरे देश में सबसे ज्यादा शिक्षित लोग रहते हैं। अतः उत्तर प्रदेश के नागरिक दिमाग खोल कर गलत अफवाहों से बचे और अपनी आर्थिक तरक्की के बारे में सोचें और शिक्षा के नये साधनों और हर अमीर-गरीब की एक समान शिक्षा के लिए सरकार पर जोर डालें। जनसंख्या नियंत्रण पर कोई कानून हो तो पूरे देश में एक समान हो। कुछ ही सालों में जनसंख्या की समस्या स्वयं दूर हो जायेगी।

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