पूरी दुनिया में भारत का संसदीय लोकतन्त्र इसीलिए सबसे बड़ा माना जाता है क्योंकि इसमें संसद के भीतर सत्तारूढ़ सरकार का कोई दखल नहीं होता और यह अपने बनाये हुए नियमों के तहत इस प्रकार चलती है कि इसमें चुन कर आये हर संसद सदस्य की आवाज किसी भी प्रकार के भय या खतरे से बाहर रहते हुए बेबाकी के साथ उठ सके और सुनी जा सके। संसद के दोनों सदनों के पीठाधिपतियों को हमारे संविधान निर्माताओं ने न्यायिक अधिकार भी इसीलिए दिये जिससे संसद के दोनों सदनों लोकसभा व राज्यसभा के भीतर प्रत्येक दल के सांसद के साथ न्याय हो सके और सदनों की कार्यवाही किसी प्रकार की न्यायिक समीक्षा के घेरे में न जा सके। इसे देखते हुए आज संसद के उच्च सदन राज्यसभा में दो कृषि विधेयक जिस शोर-शराबे और हंगामे के वातावरण में पारित हुए हैं उन्हें लेकर संसद की गरिमा को बट्टा जरूर लगा है क्योंकि जिस तरह उपसभापति के आसन के पास जाकर नियम पुस्तिका आदि फाड़े गये और माइक तोड़े गये, उसने विपक्ष को कमजोर हालत में खड़ा कर दिया।
लोकतन्त्र में इस प्रकार की हरकत की ताईद किसी तौर पर नहीं की जा सकती। याद रखा जाना चाहिए कि जब इस सदन में समाजवादी नेता स्व. राजनारायण विपक्ष में रहते हुए धरने पर बैठ जाया करते थे तो उन्हें मार्शल से बाहर निकलवा कर सदन की कार्यवाही चलवाई जाती थी। आज सदन में मार्शलों की मदद लेनी पड़ी और विपक्षी सांसदों को काबू में किया गया। बेशक यह राज्यसभा का नियम ही है कि कोई भी विधेयक सदन में केवल आशान्तिपूर्ण माहौल में ही पारित होगा परन्तु सदन में अशान्त वातावरण के लिए विपक्ष अपनी जिम्मेदारी से कैसे बचेगा जबकि सदन की कार्यवाही दोपहर एक बजे से आगे बढ़ाने की अनुमति उपसभापति हरिवंश ने दे दी थी। हालांकि बाद में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने यह सवाल खड़ा किया कि सदन की अवधि बढ़ाये जाने की मंजूरी सदन की भावना देख कर ही दी जानी चाहिए। सदन के चलने की प्रक्रिया तय हो जाने पर जरूरत इस बात की थी कि विपक्षी सांसदों को विधेयकों के विरोध में रखे गये अपने प्रस्तावों पर जोर डालना चाहिए था और अपनी संख्या बल के बूते पर सरकार को इन विधेयकों को प्रवर समिति के पास भेजने के लिए दबाव बनाना चाहिए था और मतदान की प्रक्रिया का अनुपालन करते हुए अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए था परन्तु ऐसा न करके विपक्षी सांसदों ने शोर-शराबा व हंगामा करना बेहतर समझा। राज्यसभा में ऐसा माहौल तब भी बना था जब डा. मनमोहन सिंह सरकार के प्रथम कार्यकाल में महिला आरक्षण विधेयक पारित कराया गया था। कुछ विपक्षी सांसदों ने उस समय भारी हंगामा खड़ा किया था और सदन में शीशा आदि तक तोड़ डाला था। तब भी मार्शलों के पहरे में विधेयक पारित हुआ था। कृषि विधेयकों के बारे में स्पष्ट है कि सरकार इन्हें किसानों के हित में बता रही है जबकि विपक्ष इन्हें उनके खिलाफ मानता है। राज्यसभा में हालांकि सत्तारूढ़ गठबन्धन का बहुमत नहीं है परन्तु विपक्ष भी एकजुट नहीं है और यह बंटा हुआ है। आज सदन में आन्ध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस के सांसद ने जिस तरह विधेयकों का खुला समर्थन किया और बहुजन समाज पार्टी के सांसद ने जो बीच का रुख अपनाया उससे साफ था कि सरकार इन विधेयकों पर मतदान होने की सूरत में बराबरी पर आ सकती थी। एेसे माहौल में विपक्ष को विधेयकों पर कल तक मतदान टालने से बचने के लिए सदन की कार्यवाही में बाधा डालने की रणनीति अपनाना बताता था कि समूचा विपक्ष बंटा हुआ है।
लोकतन्त्र हर स्थिति में मर्यादा की दरकार करता है और कहता है कि हार-जीत का फैसला करते हुए नियमगत सीमाओं को नहीं तोड़ा जाना चाहिए। सदन में जो कुछ भी हुआ उसे पूरे भारत ने देखा। अतः लोकतन्त्र के मालिक आम मतदाता की बुद्धि पर ही यह छोड़ दिया जाना बेहतर होता कि वह इन विधेयकों को किस नजरिये से देखता है क्योंकि यह भी सत्य है कि पंजाब व हरियाणा में इन विधेयकों के खिलाफ किसान सड़कों पर उतरे हुए हैं जबकि सरकार की यह पूरी कोशिश है कि वह इन विधेयकों को किसानों के हित में सिद्ध करे। लोकतन्त्र में लड़ाई विचारों की होती है और विपक्ष को इन्हीं तरीकों को अपनाना चाहिए। यदि समूचा विपक्ष इस मुद्दे पर एक नहीं हो पा रहा है तो इसमें सत्तारूढ़ दल की गलती नहीं है बल्कि यह विपक्ष की ही खामी है। अपनी खामी को सदन में शोर-शराबा करके और हंगामा खड़ा करके विपक्ष किस प्रकार भर सकता है। लेकिन इसके साथ ही यदि एक दर्जन विपक्षी दलों ने इन अध्यादेशों पर मतदान की मांग की थी तो उपसभापति को यह मांग सदन के नियमों के अनुसार तुरन्त माननी चाहिए थी। यदि यह मांग न मानने पर सदन में हंगामा बरपा तो दोनों पक्षों को अपने-अपने गिरेबां में झांक कर देखना होगा और लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखना होगा।