विश्व की सबसे बड़ी सामरिक शक्ति होने के कारण अमेरिका ने हमेशा दादागिरी दिखाई है। अपने राजनीतिक लक्ष्यों को वह इस तरह से पेश करता है कि विश्व के हित और सुरक्षा की दिशा में वे एकमात्र विकल्प दिखाई दें। अमेरिकी आक्रामकता के कारण सारी बहस उसके सुझाए विकल्प पर सीमित हो जाती है। उसने एक-एक करके इराक, अफगानिस्तान और लीबिया को तबाह किया। फिर उसने उत्तर कोरिया को घेरा, अब वह ईरान को घेर रहा है। अब अमेरिका ने ईरान पर फिर से कड़े प्रतिबंध लगाते हुए दुनिया के अन्य देशों पर भी दबाव बढ़ा दिया है कि वे ईरान से दूरी बना लें। जो देश ईरान के साथ व्यापारिक संबंध जारी रखेंगे, वे अमेरिका के साथ व्यापारिक संबंधों को आगे नहीं बढ़ा पाएंगे। डोनाल्ड ट्रंप ने फिर विश्व शांति का राग अलापा है। मई में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ईरान से ऐतिहासिक बहुपक्षीय परमाणु समझौते को तोड़ते वक्त छोड़े गए कठोर प्रतिबंधों को लागू कर दिया गया। इसके तहत अब ईरान सरकार न तो अमेरिकी मुद्रा खरीद सकेगी और न ही अमेरिका के साथ कारों या कालीन का कारोबार कर पाएगी।
ईरान से आेबामा प्रशासन ने परमाणु समझौता किया था। अमेरिका ने इसके साथ ही सोने व कीमती धातुओं के व्यापार पर रोक लगा दी है। पैट्रोलियम संबंधी लेन-देन और विदेशी वित्तीय संस्थानों का ईरान के केन्द्रीय बैंक के साथ लेन-देन भी रुक जाएगा। इसमें ईरान की मुद्रा रियाल में और अधिक गिरावट आएगी और देश की अर्थव्यवस्था खराब होगी। यद्यपि ट्रंप ने नए समझौते के विकल्प खुले रखते हुए कहा है कि यदि ईरान परमाणु हथियार विकसित करने, बैलेस्टिक मिसाइल बनाने आैर आतंकवाद का समर्थन करने वाले कार्य रोके तो वह नए समझौते को तैयार है। ईरान के खिलाफ अमेरिका द्वारा लगाए गए दोबारा प्रतिबंधों काे ईरानी राष्ट्रपति हसन रुहानी ने अमेरिका का इस्लामिक देशों के खिलाफ ‘मनोवैज्ञानिक युद्ध’ करार दिया। अब ये सवाल उभरने लगे हैं कि क्या अमेरिका ईरान को इराक या उत्तर कोरिया बना देना चाहता है?
1979 में अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई ईरानी क्रांति ने ईरान को अमेरिका आैर दूसरी यूरोपीय शक्तियों के विरुद्ध खड़ा कर दिया था। अमेरिका ने इसे पूरे विश्व को दी गई चुनौती के रूप में चित्रित किया आैर उस पर अनेक तरह के प्रतिबंध लगाए। उसके बाद प्रचार शुरू किया गया कि ईरान परमाणु बम बनाने का प्रयास कर रहा है आैर यदि वह इसमें सफल हो गया तो मध्य एशिया की स्थिति विकट हो जाएगी। इस प्रचार के बाद 1995 में ईरान पर आैर कड़े प्रतिबंध लगाए गए। ईरान को घेरने की रणनीति के तहत इस रणनीति में संयुक्त राष्ट्र का निर्लज्जता से उपयोग किया गया लेकिन 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले ने सारी स्थिति बदल दी। अमेरिका काे लगा कि उसे चुनौती अरब सुन्नियों से मिल रही है। इस दृष्टिकोण ने सुन्नी सद्दाम हुसैन को विश्व शांति का शत्रु बना दिया। इराक में विध्वंस का जो खेल खेला गया उसे सब जानते ही हैं लेकिन सुन्नियों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और अलकायदा ने अपनी ताकत बढ़ा ली। फिर उससे आईएसआईएस के रूप में दुर्दान्त आतंकवादी संगठन उभरा। अमेरिका चाहता था कि आतंकवाद की चुनौती का शिया ईरान जवाब दे। अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध हटाने का रास्ता निकाला और ईरान से समझौता कर लिया। हैरानी इस बात की है कि अमेरिका ने कभी इस्राइल या दक्षिण अफ्रीका के परमाणु कार्यक्रम पर शोर नहीं मचाया।
पाकिस्तान और उत्तर कोरिया भी परमाणु ताकत बन चुके हैं लेकिन शत्रुता के कारण उत्तर कोरिया प्रतिबंध और गरीबी झेल रहा है जबकि आतंकवाद की खेती करने वाले पाकिस्तान को अमेरिकी मदद पर अभी भी आंच नहीं आई। अरब के लोगों को रंज इस बात का है कि अरब की सत्ताएं यूरोपीय कूटनीति की देन हैं और लोगों में यूरोप-अमेरिका के लिए विद्वेष भरा रहता है। अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने के लिए शिया-सुन्नी अपने मतभेद भुला देते हैं। इस्राइल के विरुद्ध संघर्ष में सऊदी अरब और ईरान एक हैं। 1980-88 के बीच लम्बा ईरान-इराक युद्ध हुआ जो अनिर्णीत रहा था। ईरान पर नियंत्रण करने में इराक विफल रहा था। ईरान का कहना है कि उसका परमाणु कार्यक्रम ऊर्जा उपलब्ध कराने के लिए है जबकि अमेरिका और इस्राइल का मानना है कि वह परमाणु बम बना रहा है। अमेरिका के प्रतिबंध लगाने के फैसले पर यूरोपीय संघ ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और कुछ अन्य देशों का रुख इसके विपरीत है। देखना होगा अमेरिका अपने लक्ष्य में कितना सफल रहता है।
ईरान पर प्रतिबंधों से भारत पर काफी असर पड़ने की आशंका है। भारत ईरान से काफी मात्रा में तेल आयात करता है, साथ ही उसकी तेल परियोजना में भी सहयोग दे रहा है। दोनों देशों के इन्हीं नजदीकी रिश्तों की वजह से ईरान ने भारत को चाबहार बंदरगाह में साझेदारी का मौका दिया है। चाबहार से होकर भारत की योजना अफगानिस्तान के लिए माल आपूर्ति की है, ताकि पाकिस्तान वाले रास्ते को दरकिनार किया जा सके। देखना होगा अमेरिकी प्रतिबंधों के असर से भारत कैसे निपटता है। भारत अमेरिका संग खड़ा होता है या ईरान के साथ। इराक आैर सऊदी अरब के बाद भारत को तेल देने वालों में ईरान का नम्बर आता है। ऊर्जा जरूरतों काे पूरा करने के लिए भारत के लिए ईरान बहुत अहम है। वह तेल आयात के लिए भारत को कुछ रियायतें भी देता है। ईरान से तेल आयात रोकने पर भारत को काफी नुक्सान हो सकता है। देखना होगा अमेरिका-ईरान तनातनी के क्या परिणाम निकलते हैं।