Usefulness of Exit Polls: एक्जिट पोल की उपयोगिता

Usefulness of Exit Polls: एक्जिट पोल की उपयोगिता
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Usefulness of Exit Polls: भारत में चुनाव बाद एक्जिट पोल किये जाने का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। यह कथित विधा नब्बे के दशक से ही प्रचलित हुई है। इसकी वैधता औऱ विश्वसनीयता शुरू से ही सन्देहों के घेरे में खड़ी रही है। मगर सबसे गंभीर बात यह है कि यह सीधे मतदाताओं की बुद्धिमत्ता को चुनौती देती है। सवाल यह नहीं होता कि एक्जिट पोल किस पार्टी को जिताते या हराते हैं बल्कि असली सवाल यह होता है कि ये नतीजे किस तरह निकालते हैं। दूसरे एक्जिट पोल करने वाली संस्थाओं की विश्वसनीयता क्या होती है? क्या इनकी जवाबदेही मतदाताओं के प्रति होती है? एक्जिट पोल करने वाली संस्थाओं का उद्देश्य क्या होता है? इस काम के लिए वित्त पोषण करने वाले न्यूज चैनलों का लक्ष्य क्या होता है? जाहिर है कि लाखों रुपए खर्च करने के बाद न्यूज चैनल बदले में कुछ प्राप्ति की कामना भी रखते होंगे।

फेक न्यूज और एक्जिट पोल में फर्क तब कैसे किया जा सकता है। भारत में संसदीय प्रणाली की चुनाव व्यवस्था है जिसमें 543 चुनाव क्षेत्रों में अलग-अलग मतदाता नमूने रख कर नतीजे निकाले जाते होंगे। इन नमूने की संख्या क्या रहती है और भारतीय समाज की विविधीकृत संरचना को देखते हुए मतदाताओं की इच्छा का आंकलन कैसे किया जाता होगा, यह भी बहुत पेचीदा सवाल है। मगर इस सबसे ऊपर सवाल यह है कि इन एक्जिट पोलों की भारत में जरूरत ही क्या है जबकि एक-दो दिन बाद असली चुनाव परिणाम आने ही होते हैं। मतदान औऱ मतगणना के दिनों के बीच के खाली स्थान को भरने के लिए एक्जिट पोलों का शगूफा छोड़ने की जरूरत क्या है? जाहिर है कि इस शगूफे की अपनी व्यावसायिक उपयोगिता न्यूज चैनलों के लिए रहती है मगर अपने व्यावसायिक हितों के लिए ये चैनल देश की जनता का मूर्ख नहीं बना सकते।

हार- जीत की भविष्यवाणी लब्ध प्रतिष्ठित अनुभवी पत्रकार भी करते हैं मगर वह केवल माहौल बताते हैं। एक्जिट पोलों में तो बाकायदा सीटों की संख्या की घोषणा की जाती है जो संवैधानिक रूप से सत्य को छद्म रूप में पेश करने के गुनाह के समकक्ष रखी जा सकती है। चुनाव आयोग को इस बारे में विचार करना चाहिए कि क्या एक्जिट पोलों का प्रकाशन फेक न्यूज के समकक्ष नहीं है? बेशक एक्जिट पोल का असर असली मतगणना पर नहीं पड़ सकता परन्तु मनोवैज्ञानिक रूप से ये मतदाताओं की भावनाओं पर बुरा असर डाल सकते हैं और राजनैतिक दलों की कार्यप्रणाली पर भी प्रभाव छोड़ सकते हैं। चुनाव के दौरान भारत में सत्ताधारी दल की सरकार काम चलाऊ सरकार ही रहती है। एक्जिट पोल के नतीजों से उस पर भी गलत असर पड़ सकता है। साथ ही विपक्षी दलों या हारने वाले दलों पर भी गलत असर पड़ सकता है। मगर मुख्य मुद्दा सत्य को छद्म रूप में पेश करने का है। चुनाव आयोग ने चुनाव के बीच होने वाले चुनावी सर्वेक्षणों व एक्जिट पोलों पर प्रतिबन्ध लगाया हुआ है। उसी समय यह मांग भी की गई थी कि चुनाव बाद होने वाले एक्जिट पोलों पर भी प्रतिबन्ध लगाया जाये।

चुनाव परिणाम तो चुनाव परिणाम ही होते हैं उन्हें किस प्रकार दो अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत किया जा सकता है। सबसे बड़ा खतरा असली मतगणना को प्रभावित करने का प्रयास भी हो सकता है। क्योंकि मतगणना से पूर्व ही आंकड़ों में हार-जीत देकर जो भ्रम पहले से ही खड़ा कर दिया जाता है उसका मनोवैज्ञानिक असर मतगणना कर्मियों पर भी पड़ सकता है। अतः एेसी कार्रवाई को हम फर्जी कार्रवाई ही कहेंगे। सवाल यह नहीं है कि किस संस्था के आंकड़े गलत निकले या किसके सही बल्कि सवाल यह है कि ये आंकड़े केवल अनुमान पर टिके होते हैं जबकि सत्य आज बाहर आना ही है। सत्य को किसी आसरे की जरूरत नहीं होते। इसलिए एक्जिट पोलों पर प्रतिबन्ध लगाने के बारे में चुनाव आयोग को गंभीरता से विचार करना चाहिए। यह टैक्नोलोजी का युग है। चुनावों में किस राजनैतिक दल के हारने या जीतने के कयास तो लगाये जा सकते हैं मगर हार-जीत को सीधे सीटों की संख्या में बताना उचित नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन आंकड़ों के गलत होने की जिम्मेदारी कौन लेगा?

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