आरक्षण को लेकर पहले भी इस देश में कई बड़े आंदोलन हो चुके हैं। कई बार देश हिंसा का दंश झेल चुका है। वीपी सिंह के शासन में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने पर प्रजा सड़कों पर आकर आत्मदाह करने लगी थी। जो भी उस समय हुआ उससे देश में समाज के भीतर खाई और बढ़ी।
जिस तरह से राजनीतिक दलों ने चुनाव जीतने के लिये आरक्षण को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और सत्ता के वोट की खातिर हर किसी को आरक्षण में आरक्षण दिया उससे हालात यह हो गये है कि समाज में आरक्षण की इच्छा बढ़ती गई। सभी आरक्षण के भीतर आरक्षण मांगने लगे। फिर सरकारी नौकरियों में पदोन्नति का ढिंढोरा पीटा गया। कभी चुनावों से पहले मुस्लिमों को आरक्षण का ढिंढोरा पीटा गया ।
पदोन्नतियों में आरक्षण को लेकर राज्यों में अब भी विवाद कायम है। उत्तराखंड सरकार ने पदोन्नतियों में आरक्षण न देने का फैसला करके साहस का परिचय दिया है। इस देश में आरक्षण की जरूरत को लेकर लगातार बहस होती आई है लेकिन राजनीतिक दल वोट बैंक खोने के डर से खुल कर बोलने को तैयार ही नहीं होते।
राजनीतिक दल वोटों के लालच में आरक्षण का विरोध करके खुद पर दलित विरोधी होने का ठप्पा नहीं लगवाना चाहते। यही कारण रहा कि समाज में धनी और प्रतिभाशाली जातियां भी आरक्षण की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आईं। समाज के मलाईदार तबके के आरक्षण का लाभ लेने पर सवाल उठते रहे हैं।
ऐसी स्थिति में उत्तराखंड की भाजपा सरकार का फैसला जोखिम भरा जरूर है लेकिन नीितगत दृष्टि से सही फैसला है। अगड़ी जातियों का संयुक्त कर्मचारी संघ लम्बे समय से इसकी मांग कर रहा था। अब उत्तराखंड सरकार इससे संबंिधत शासनादेश जारी करेगी। राज्य सरकार के इस फैसले का विरोध होना शुरू भी हो गया है।
पदोन्नति में आरक्षण खत्म करने के फैसले के विरोध में एससी/एसटी कर्मचारियों के आंदोलन में अब सफाई कर्मचारी भी शामिल हो गए हैं। उत्तराखंड एससी/एसटी इंप्लाइज फैडरेशन ने सफाई कर्मचारियों की ठेका प्रथा समाप्त करने की मांग को भी अपने एजेंडे में शामिल कर दिया है। फैडरेशन ने सरकार को 15 अप्रैल तक का अल्टीमेटम दिया है।
फैडरेशन का आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहीं नहीं कहा कि प्रमोशन में आरक्षण को खत्म कर दिया गया है। उत्तराखंड सरकार ने संविधान का भी उल्लंघन किया है। संविधान में प्रतिनिधित्व की व्यवस्था है। इस मामले में एक वर्ग का ध्यान रखा गया, दूसरे वर्ग की अनदेखी की गई। सरकार का फैसला तानाशाहीपूर्ण है।
फैडरेशन का कहना है कि यदि सरकार पदोन्नति में आरक्षण नहीं देगी तो उनके समाज के व्यक्ति कैसे उन पदों पर पहुंच जाएंगे जिनसे नीति निर्धारण होती है। पदोन्नति में आरक्षण को लेकर कुछ सवाल तो पहले से खड़े हैं-
– क्या यह व्यवस्था कुशल और दक्ष प्रतिभाओं के साथ न्याय कर सकेगी?
– क्या इससे मानवाधिकारों का हनन नहीं होता?
– क्या यह व्यवस्था सामाजिक समरसता में जहर घोलने का काम नहीं करेगी?
-क्या इससे प्रतिभा सम्पन्न लोगों को पदोन्नति के समान अवसर उपलब्ध होंगे?
इन सब बातों को न्यायालयों के समक्ष भी रखा जा चुका है। इस बात की भी जमकर वकालत की गई कि जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हैं उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए लेकिन राजनीतिक दलों ने वोटों की खातिर सामाजिक न्याय को भी राजनीति की भेंट चढ़ा दिया है।
संविधान मेें उन सबको नौकरियों और फिर शिक्षा में आरक्षण देने का प्रावधान किया गया था जिनका जातीय आधार पर उत्पीड़न किया गया, शोषण किया गया। उन्हें जीवन यापन के बेहतर अवसरों से कई वर्षों तक वंचित किया गया। आरक्षण की व्यवस्था इसलिए की गई थी कि दलित, उत्पीड़ित, शोषित वर्ग समाज की मुख्य धारा में शामिल हो। बार-बार आरक्षण की अवधि बढ़ाई गई और इसके दायरे का विस्तार किया गया।
आरक्षण का लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी लिया जाने लगा। समाज का एक बड़ा वर्ग आरक्षण का लाभ नहीं उठा सका। कोई ऐसा हल निकाला जाना चाहिए ताकि इन जातियों को पदोन्नति के अवसर मिलें और अन्य वर्गों पर भी कुठाराघात नहीं हो। निजी क्षेत्र में आरक्षण नहीं है लेकिन उसका प्रदर्शन सरकारी क्षेत्र से कहीं अधिक अच्छा है।
देश में प्रतिभाओं का गला घोंटना उचित नहीं। आखिर आरक्षण की कोई सीमा तो होनी ही चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि यह व्यवस्था देश की सामािजक समरसता को ही अग्निकुंड में धकेल दे। सामािजक समरसता तो पहले ही काफी तार-तार हो चुकी है।