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उत्तराखंड पर प्राकृतिक आपदा की मार

उत्तराखंड पर लगातार प्राकृतिक आपदा की मार पड़ रही है। पहले उत्तराखंड के जंगल जल उठे, फिर अब चमोली जिले के नीनी घाटी के सुमना में बर्फबारी के बाद ग्लेशियर टूटने की घटना से 8 लोग मारे गए। बर्फीले तूफान से बार्डर रोड आर्गेनाइजेशन का एक शिविर भी चपेट में आ गया।

उत्तराखंड पर लगातार प्राकृतिक आपदा की मार पड़ रही है। पहले उत्तराखंड के जंगल जल उठे, फिर अब चमोली जिले के नीनी घाटी के सुमना में बर्फबारी के बाद ग्लेशियर टूटने की घटना से 8 लोग मारे गए। बर्फीले तूफान से बार्डर रोड आर्गेनाइजेशन का एक शिविर भी चपेट में आ गया। यद्यपि समय रहते भारतीय सेना और बार्डर रोड आर्गेनाइजेशन ने 384 लोगों को बचा लिया।
चमोली जिले की नीनी घाटी में ढाई माह बाद फिर से ग्रामीण दहशत में आ गए। सुमना में हिमसंख्लन से तपोवन, रैणी और साथ लगते गांवों के लोगों की रातों की नींद फिर उड़ गई। इसी साल 7 फरवरी को ऋषिगंगा की त्रासदी के बाद इस घटना ने ग्रामीणों को फिर झकझोर कर रख दिया है। इस बार यह घटना जोशीमठ से 94 किलोमीटर दूर सुमना में हुई। रैणी गांव के शीर्ष भाग से ऋषिगंगा निकलती है, जबकि सुमना चीन सीमा पर स्थित बाड़ाहोती क्षेत्र में है। यहां ग्लेशियरों से होतीगाड़ और धौलीगंगा निकलती है जो रैणी में ऋषिगंगा से मिल जाती है। जहां देश के मैदानी इलाकों में तापमान 40 डिग्री तक पहुंच रहा है। वहीं उत्तराखंड में 21 अप्रैल से लगातार बर्फबारी हो रही है। ऐसा लगता है जैसे ठंड फिर लौट आई हो। ऐसा नहीं है कि सुमना और ऋ​ंषिगंगा क्षेत्र में पहले भी हिमसंख्लन की घटनाएं होती रही हैं लेकिन पहले नुक्सान कम होता था। आज सड़क मार्ग के साथ ही नदियों के ​किनारे ही आवासीय भवनों का निर्माण हो रहा है, जिसमें छोटी-छोटी आपदाएं भी विकराल हो रही हैं।
पहाड़ी राज्यों में जब भी ग्लेशियर फटने की खबर सामने आती है तो लोगों की आंखों के सामने वर्ष 2013 में आई उत्तराखंड की त्रासदी का मंजर घूमने लगता है। अभी तक फरवरी में ग्लेशियर फटने से अनेक लोगों की जान चली गई थी, वहां लापता लोगों का अब तक कोई पता नहीं चला है।
वैसे तो ग्लेशियर टूटने के कई कारण होते हैं लेकिन सबसे प्रमुख कारण गुरुत्वाकर्षण बल होता है, वहीं ग्लेशियर टूटने या फटने का दूसरा बड़ा कारण ग्लेशियर के किनारे पर टेंशन और ग्लोबल वार्मिंग है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर की बर्फ तेजी से पिघलने लगती है और उसका एक हिस्सा टूट कर अलग हो जाता है। ग्लेशियर फटने के बाद उसके भीतर ड्रेनेन ब्लॉक में मौजूद पानी अपना रास्ता ढूंढ लेता है और जब वह ग्लेशियर के बीच बहता है तो बर्फ के पिघलने का रेट भी बढ़ जाता है। इसमें उसका रास्ता बड़ा हो जाता है और पानी का एक सैलाब आता है। इससे नदियों में अचानक बहुत तेजी से जलस्तर बढ़ने लगता है। नदियों के बहाव में भी तेजी आती है और आसपास के इलाकों में भारी तबाही लाती है। ग्लेशियर के टूटने से जलस्तर के तेज बहाव से होने वाली तबाही का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी चपेट में आने से कई पुल टूट गए और कई गांवों का शहरों से सम्पर्क टूट गया। 
उत्तराखंड के ग्लेशियरों पर हुए आज तक के शोध यही बताते हैं कि यहां पर कमजोर होते ग्लेशियर भविष्य में और अधिक तबाही ला सकते हैं। इस समय हिमालय से दो तरह का प्रदूूषण पहुंच रहा है। एक है बायो माप प्रदूषण (कार्बन डाईआक्साइड) और दूसरा है एलिमेंट पोल्यूशन (तत्व आधारित प्रदूषण) जो कार्बल मोनो आक्साइड उत्पन्न करता है। ये दोनों ही तरह के प्रदूषण ब्लैक कार्बन बनाते हैं, जो ग्लेशियर के लिए खतरनाक होते हैं। अब तक माना जाता रहा था कि हिमालयी जंगलों में लगने वाली आग के चलते ग्लेशियरों में ब्लैक कार्बन जमता है, यही कारण है कि ग्लेशियर तेज रफ्तार से पिघल रहे हैं।
राज्य सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड के आसपास 1834 ग्लेशियर और 75 वर्ग किलोमीटर पर 127 ग्लेशियर झीलों का बसेरा है। हिमालय पर जमा हो रहा ब्लैक कार्बन और पृथ्वी के बढ़ते हुए तापमान के कारण यह ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। शोधकर्ता यहां तक अनुमान लगा चुके हैं कि तापमान में वृद्धि की यही रफ्तार रही तो 2100 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे और पूरी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी।  
इसमें कोई संदेह नहीं कि पहाड़ी राज्य में मनुष्य ने प्रकृति से बहुत खिलवाड़ किया। नदियों के बहाव को सीमित कर दिया गया। हिमालय पर्वत को भी डायनामाइट से तोड़-तोड़ कर रास्ते बनाए गए। पानी रोकने के लिए बांध बनाए गए। बड़े-बड़े तीर्थों एवं नदियों के किनारे बड़े-बड़े रेस्टोरेंट, होटल, अस्पताल, धर्मशालाएं इत्यादि खड़े कर दिए गए। छोटी-छोटी जगह पर लाखों के पहुंचने से तापमान बढ़ता है जो प्रकृति को असंतुलित कर देता है। केदारनाथ धाम में हुए हृदय विदारक हादसे से हजारों माताओं की गोद खाली हो गई। हजारों महिलाओं का सुहाग उजड़ गया। लोग अभी तक जल प्रलय को नहीं भूल पाए। जंगल तेजी से कटे, मृदा ऋण बढ़ा, जल स्रोत तेजी से सूखे, पहाड़ी ढाल कमजोर और जर्जर पड़ गई। अंधाधुंध विकास के नाम पर घाटियों को हर तरह से लाद दिया गया। अब भी समय है कि प्रकृति से छेड़छाड़ बंद की जाए। ग्लेशियर टूटने की घटनओं को प्राकृतिक आपदा कहने की भूल न करें क्योंकि मानव निर्मित आपदा है। जीवन बचाना है तो प्रकृति की रक्षा करनी ही होगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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