जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के समाप्त होने का एक वर्ष बीत जाने के बाद घटनाक्रम जिस तेजी के साथ घूम रहा है उससे यह अपेक्षा जागृत होती है कि राज्य में सामान्य हालात जल्दी ही बनेंगे और यहां के नागरिकों को बदलते हालात के मुताबिक अपने सभी मौलिक अधिकार मिलेंगे। इनमें सूचना व संचार का अधिकार ऐसा आधारभूत अधिकार होता है जिसका उपयोग लोकतान्त्रिक हकों को प्राप्त करने में होता है। सर्वोच्च न्यायालय में केन्द्र सरकार की ओर से अटार्नी जनरल का यह कहना कि 15 अगस्त के बाद जम्मू-कश्मीर के दो जिलों में प्रायोगिक तौर पर 4-जी नेट सुविधा शुरू की जायेगी और सरकार यह कार्य शुरू करके सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेते हुए आगे की कार्रवाई करेगी। इससे यह उम्मीद तो जगती है कि सरकारी स्तर पर नागरिकों की सुविधाओं का ध्यान रखने में तत्परता दिखाई जा रही है मगर साथ ही यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि 4-जी नेट की सुविधा देना इतना दुष्कर क्यों बना हुआ है जबकि पूर्व उपराज्यपाल श्री गिरीश चन्द्र मुर्मु ने कहा था कि 4-जी देने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हैं क्योंकि पाकिस्तान की गतिविधियों की वजह से इसे रोकना उचित नहीं होगा। उनके मत में पाकिस्तान तो अपनी भारत विरोधी गतिविधियां हर सूरत में जारी रखता लगता है। उसका कुप्रचार तो दूसरे माध्यमों से चलता ही रहता है।
कश्मीरियों पर उसका असर होने वाला नहीं है। अब नये राज्यपाल श्री मनोज सिन्हा आ गये हैं। एक तथ्य समझना बहुत जरूरी है कि राज्यपाल को सबसे पहले आम कश्मीरी को ही विश्वास में लेना होगा और उनका भरोसा जीतना होगा। बेशक अब जम्मू-कश्मीर अर्ध राज्य है मगर इसका महत्व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक पर है। पूरी दुनिया की नजरें इस राज्य पर लगी रहती हैं। अतः इस राज्य के हालात में सुधार करना भारत के लिए भी प्रतिष्ठा का प्रश्न है इस सिलसिले में सूबे में राजनीतिक गतिविधियों को शुरू करने की जरूरत है जिससे भारत दुनिया में सर ऊंचा करके कह सके कि जम्मू-कश्मीर के लोग भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पूरा भरोसा रखते हुए बदलते समय के अनुसार स्वयं को ढाल रहे हैं और लोकतन्त्र में विश्वास जता रहे हैं।
राजनीतिक गतिविधियां शुरू करने के लिए जरूरी है कि राज्य में विभिन्न राजनीतिक दलों को अपना काम स्वतन्त्रता पूर्वक करने की वह छूट मिले जिसकी इजाजत भारत का संविधान देता है। इस मामले में चुनाव आयोग को भी चुस्ती दिखानी होगी और अपना दायित्व पूरा करना होगा। पूर्व उपराज्यपाल श्री मुर्मु का यह भी कहना था कि राज्य में राष्ट्रपति शासन अन्नतकाल तक नहीं चल सकता और चुनाव जल्दी ही होने चाहिए। मगर चुनाव आयोग उनकी इसी टिप्पणी का बुरा मान बैठा और उसने कह दिया कि ‘‘चुनाव कब होंगे यह हम तय करेंगे उपराज्यपाल नहीं’’। कानून की नजर से चुनाव आयोग सही था और संभवतः इसी वजह से श्री मुर्मु को जाना भी पड़ा। मगर अब यह श्री सिन्हा की जिम्मेदारी है कि वह राजनीतिक दलों को विश्वास दिलायें कि लोगों को चुनी हुई लोकप्रिय सरकार दिलाने में उनकी भूमिका अग्रणी रहेगी। इसके लिए राज्य में संविधान सम्मत बहुदलीय विचारधारा के फलने-फूलने का वातावरण प्रदान कराना होगा। परन्तु इसका उल्टा हो रहा है और एक के बाद एक कई राजनीतिक दलों द्वारा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का हिस्सा न बनने की घोषणा की जा रही है। इस क्रम में भूतपूर्व नौकरशाह श्री शाह फैसल का सबसे ताजा उदाहरण है जिन्होंने एक साल पहले ही आईएएस की नौकरी से इस्तीफा देकर अपनी नई पार्टी बनाई थी। उन्होंने इस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है और राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा की है, जबकि नेशनल कान्फ्रेंस कह चुकी है कि अर्ध राज्य के रहते चुनावों में हिस्सा नहीं लेगी। दूसरी तरफ सूबे की प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी पीडीपी की नेता श्रीमती महबूबा मुफ्ती अभी तक जेल में हैं। इसके क्या मायने निकाले जायें ? यदि चुनावों की घोषणा होने से कुछ पहले ही महबूबा को जेल से रिहा किया जाता है तो इसके राजनीतिक अर्थ बहुत गहरे हो सकते हैं जिनके बारे में फिलहाल लिखना मुनासिब नहीं होगा क्योंकि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने से पहले श्रीमती महबूबा के नेतृत्व में ही भाजपा व पीडीपी की मिली-जुली सरकार थी। इसके साथ ही राज्य में आतंकवादी कार्रवाइयां अभी भी जारी हैं जिन्हें रोकना नये उपराज्यपाल की पहली जिम्मेदारी है इस मामले में पाकिस्तान को करारा सबक सिखाया जाना जरूरी है क्योंकि उसी की शह पर कुछ स्थानीय युवा भटक जाते हैं हालांकि अब कश्मीर में बैठे इनके आकाओं को सही रास्ते पर ले आया गया है मगर पाकिस्तान अपनी हरकतों से तब तक बाज आने वाला नहीं है जब तक कि उसके कब्जे में पड़ा हम अपना कश्मीर वापस न ले लें। यह कार्य नामुमकिन नहीं है क्योंकि सभी कानूनी दस्तावेज भारत के हक में हैं। मगर इस सबसे ऊपर सबसे पहले जम्मू-कश्मीर राज्य में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का शुरू होना जरूरी है जिससे पूरी दुनिया को पैगाम जा सके कि सिर्फ कश्मीर ही भारत का नहीं है बल्कि कश्मीरी भी सच्चे भारतीय हैं। एेसा कश्मीरी 1947 के बाद से लगातार करते आ रहे हैं और साबित करते आ रहे हैं कि भारत की पाकिस्तान से लगती सीमाओं के प्रहरी भारतीय सेनाओं के साथ यहां के निवासी भी हैं। अतः उनके मौलिक अधिकार देने में हमें देर नहीं करनी चाहिए। हमारा सजग लोकतन्त्र हर कश्मीरी का गहना बन कर शोभायमान होना चाहिए।