विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आगामी चार महीनों तक अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण अभियान को स्थगित करना बताता है कि होने वाले लोकसभा चुनावों के दृष्टिगत इस मुद्दे को आम मतदाता उदासीन भाव से देख रहा था। दरअसल पिछले लगभग 30 सालों से जिस प्रकार अयोध्या मुद्दे पर राजनीति हो रही है और मतदाता जिस तरह साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत हुए हैं उसका सबसे बड़ा खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ा है। भारत ने आजादी के बाद के सत्तर वर्षों में जो सामाजिक-आर्थिक विकास किया है और जिसकी वजह से आज दुनियाभर में इसकी पहचान बनी है उसका कारण है कि भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव आज भी हमारी जड़ों में बसा हुआ है और यही भारत के लोकतन्त्र की खूबसूरती है। मजहब कभी भी राजनीति को निर्देशित नहीं कर सकता क्योंकि इसका सम्बन्ध लोगों की रोजी-रोटी से न होकर अपने निजी जीवन से होता है। वैसे विश्व हिन्दू परिषद ने यह फैसला लेकर एक सूझबूझ वाला कदम उठाया है। यह चौंकाने वाला जरूर कहा जा सकता है क्योंकि जिस प्रकार यह संगठन साधू-सन्तों के सम्मेलनों से लेकर कुम्भ में धर्म संसद का आयोजन कर राम मन्दिर निर्माण का शंख फूंक रहा था उससे यही ध्वनि आ रही थी कि लोकसभा चुनावों में यह विषय भी जमकर उछलेगा। इससे तनाव भी पैदा हो सकता था। विहिप ने यह फैसला कर ऐसी सभी अाशंकाओं को समाप्त कर दिया है।
अयोध्या मामला चूंकि सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है और केन्द्र सरकार ने यहां के विवादित पूजा स्थल के आसपास की 67 एकड़ भूमि इसकी दावेदार संस्थाओं को देने के लिए याचिका दायर कर दी है अतः परिषद के रुख में बदलाव आ गया है। सवाल यह है कि 90 के दशक में केन्द्र की नरसिम्हा राव सरकार और राज्य की कल्याण सिंह सरकार ने आसपास की इस भूमि का अधिग्रहण बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद किस उद्देश्य से किया था? यह सवाल इसलिए वाजिब है कि 6 दिसम्बर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के गैरकानूनी काम का क्या हुआ। इस कांड की जांच करने वाले लिब्रहान आयोग के मुखिया ने पिछले वर्ष ही साफ किया था कि जब तक कि मस्जिद को ढाहने का काम करने वाले लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं हो जाती तब तक विवादित स्थान पर कोई भी नया निर्माण कार्य किस प्रकार किया जा सकता है। अतः इस बात का फैसला होना बहुत जरूरी है कि मस्जिद ढहाये जाने का काम गैरकानूनी तरीके से करने वाले लोग अपराधी की श्रेणी में आते हैं अथवा बाइज्जत राजनीतिज्ञ कहलाये जायेंगे। इसके साथ ही इस घटना के बाद नरसिम्हा राव सरकार ने फरमान जारी किया था कि भारत में विभिन्न धार्मिक स्थानों का दर्जा वही कायम रहेगा जो 15 अगस्त 1947 की अर्ध रात्रि तक था।
मन्दिर निर्माण के पैरोकारों ने सर्वोच्च न्यायालय को भी इस मामले की सुनवाई जल्दी से जल्दी करने के लिए दबाव डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी और बार-बार विभिन्न मंचों से चेतावनियां तक दी गईं। भारत की न्यायप्रणाली को धमकाने की यह अजीब राजनीति थी जिसे भारत के लोगों ने ही एक सिरे से नकार दिया। बेशक हिन्दू समुदाय के लोगों की इच्छा है कि अयोध्या में राम मन्दिर का निर्माण होना चाहिए मगर इसके लिए किसी प्रकार की राजनीति की जरूरत नहीं है क्योंकि इसके आधार पर 21वीं सदी की भारत की संसद की संरचना नहीं हो सकती। यह वास्तविकता है कि 16वीं शताब्दी में बादशाह बाबर के किसी वजीर मीर बकी ने अयोध्या में बने मन्दिर के ऊपर मस्जिद बनाकर अवैध कार्रवाई की थी लेकिन 1949 में इसी मस्जिद में आस्थावान लोगों ने भगवान राम की मूर्तियां आधी रात को रखकर भगवान राम के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा का परिचय दिया था। जब 1949 में अयोध्या में यह काम किया गया था तो उस समय इस इलाके के जिलाधीश या उपायुक्त श्री के.के. नैयर थे।
उन्होंने तब उत्तर प्रदेश सरकार को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि मूर्तियां रखकर गैर-कानूनी काम कर दिया गया है, मगर अब वह कुछ नहीं कर सकते क्योंकि उस समय हालात बहुत तनावपूर्ण हो गये थे। इसी तनाव को देखते हुए तब जिला अदालत ने वहां ताला लगवा दिया था मगर 1992 में उस इमारत को ही ढहा दिया गया जिसके नीचे भगवान राम की मूर्तियां रखी गई थीं परन्तु 1992 से लेकर अब तक राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन के भावुक तेवरों के चलते हम इसी हकीकत को लगातार नजरंदाज करते रहे हैं और बिना किसी कारण के साम्प्रदायिक खेमों में बंटते रहे हैं। यह भी बात सत्य है कि भगवान राम का मंदिर अगर भारत में नहीं बनेगा तो क्या पाकिस्तान में बनेगा। करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का आखिर कब तक मजाक उड़ाया जाता रहेगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह स्पष्ट कर चुके हैं कि अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण करने का कदम न्यायपालिका के फैसले के दृष्टिगत किया जायेगा, तब तक हिन्दुओं को इंतजार करना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संवैधानिक पद पर हैं और वह हर काम संविधान के दायरे में ही करना चाहेंगे। भारत का निर्माण इसके मजदूरों, किसानों और कामगारों ने किया है, मुनाफा कमाने वाले साहूकारों ने नहीं। अतः लोकतन्त्र में सरकार वणिक वृित से नहीं बल्कि ऋषि वृित से चलती है जिसमंे जो कुछ भी होता है वह आसन से नीचे बैठने वाले का होता है।