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भारत का ट्रंप के खिलाफ वोट

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भारत के अरब जगत से संबंध बहुत पुराने हैं। सम्राट अशोक के काल से ही यह संबंध चले आ रहे हैं। भारत और फलस्तीनी संबंधों पर भारत की नीति की जड़ें भारत की स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी हुई हैं। क्योंकि कांग्रेस पार्टी एक ऐसी पार्टी थी जो धार्मिक आधार पर भारत के वि​भाजन का विरोध कर रही थी, उससे यह अपेक्षा करना मुश्किल था कि वह यहूदी आंदोलन के लक्ष्यों का समर्थन करे जिससे अंततः इस्राइल देश की स्थापना हुई। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वयं 11 नवम्बर, 1938 के ‘हरिजन’ के अंक में लिखे संपादकीय को स्पष्ट रूप से भारत के परिप्रेक्ष्य को प्रतिपादित किया। यह एक प्रमुख नीतिगत बयान था जिसने फलस्तीन पर भारत की नीति का मार्गदर्शन किया था। यहूदियों ने जो सदियों से भेदभाव और उत्पीड़न के शिकार रहे थे, के लिए अपनी सहानुभूति के बावजूद महात्मा गांधी की फलस्तीनियों के अधिकारों के बारे में स्पष्ट राय थी। उन्होंने कहा था कि मेरी सहानुभूति न्याय की आवश्यकताओं के प्रति मुझे अंधा नहीं बना सकती। यहूदियों की अपने लिए अलग देश की आवाज मुझे बहुत अपील नहीं करती।

दुनिया के अन्य लोगों की तरह वह उस देश में अपना घर क्यों नहीं बनाते जहां वे पैदा हुए हैं आैर जहां वे अपनी आजीविका कमाते हैं। फलस्तीन का उसी अर्थ में अरबों का जैसे कि इंग्लैंड अंग्रेजों का और फ्रांस, फ्रांसीसियों का एक अरबों पर यहूदियों को थोपना गलत आैर अमानवीय है। निश्चित रूप से यह मानवता के प्रति एक अपराध होगा कि स्वाभिमानी अरबों को अपमानित किया जाए और ​फलस्तीन को आंशिक या पूर्ण रूप से एक अलग देश के रूप में यहूदियों को सौंप दिया जाए।’’ भारत ने हमेशा फलस्तीन की एक संप्रभु, स्वतंत्र और व्यवहार्य राज्य की स्थापना का समर्थन करता रहा है। फलस्तीनी लोगों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में भारत की सक्रियता उस समय देखी गई जब उसने फलस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) को मान्यता थी। भारत पहला गैर अरब देश था जिसने फलस्तीन के राष्ट्रपति के रूप में यासर आराफात को मान्यता दी थी। अराफात के भारत के नेताओं से विशेष रूप से स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से विशेष संबंध थे। फलस्तीन हमेशा ही भारत के लिए संवेदनशील मुद्दा रहा है। फलस्तीन को मान्यता देने के बाद अब तक काफी पानी नदियों में बह चुका है। भारत ने इस्राइल को 1950 में औपचारिक राजनयिक मान्यता दी। फिर भी भारत ने इस्राइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित नहीं किए थे।

प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार के सत्ता में आने के बाद भारत ने अपनी नीति से हटना शुरू किया। मोरारजी देसाई का झुकाव पश्चिम की ओर था। आज की तारीख में भारत के संबंध इस्राइल से भी अच्छे हैं लेकिन इससे फलस्तीन से संबंधों में कोई ज्यादा असर नहीं देखा गया। कुछ दिन पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डेनाल्ड ट्रंप ने परम्परागत अमेरिकी नीति से हटते हुए यरुशलम को इस्राइल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी थी लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि यरुशलम को इस्राइल की राजधानी मानने का अमेरिकी फैसला उसे मंजूर नहीं है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उस प्रस्ताव को भारी समर्थन से पारित कर दिया जिसमें यरुशलम को इस्राइल की राजधानी का दर्जा रद्द करने की मांग की गई थी। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के समर्थन में 128 देशों ने मतदान किया और विरोध में केवल 9 वोट पड़े। 35 देशों ने मतदान की प्रक्रिया से खुद को अलग रखा। भारत ने भी इस प्रस्ताव के समर्थन में यानी अमेरिका के खिलाफ मतदान किया है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने तो मतदान से पहले प्रस्ताव के समर्थन में मतदान देने वाले देशों की आर्थिक मदद को रोक देने की धमकी दी थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा में अमेरिका की हार ट्रंप के लिए बहुत बड़ा झटका है क्योंकि इस मामले में उसे मित्र राष्ट्र भी उसके साथ नहीं खड़े हैं। कूटनीतिक तौर पर दुनिया ने खासतौर पर संयुक्त राष्ट्र ने ट्रंप को जोरदार तमाचा मारा है।

प्रस्ताव के विरोध में जिन नौ देशों ने वोट डाला है वो ऐसे देश हैं जिन्हें लोग जानते भी नहीं हैं। यह सही है कि इस्राइल एक सामान्य देश बनने और अपनी पहचान बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। यह भी सही है कि इस्राइल भारत को रक्षा सहयोग कर रहा है। उसने भी भारत में काफी निवेश किया है लेकिन भारत द्वारा प्रस्ताव के समर्थन में वोट डाला, भारत फलस्तीन क्षेत्र और इस्राइल में संतुलन बनाकर चलता है। हाल के समय में भारत की अमेरिका और इस्राइल से करीबी नज़र आ रही थी, फिर भी प्रस्ताव का विरोध कर भारत ने संतुलन बनाने का प्रयास किया है। भारत के लिए प्रस्ताव का समर्थन करना कोई नई बात नहीं, पिछले 50 वर्षों में भारत ने ऐसा कई बार किया है। जिस तरह भारत की भूमि पर पाकिस्तान बना था, इस्राइल भी इसी तरह फलस्तीन की भूमि पर बना है। भारत हमेशा संप्रभु फिलीस्तीन का समर्थन करता आया है। इस मामले में भारत ने दिखा दिया है कि वह अमेरिका का पिछलग्गू नहीं है। फलस्तीन पर उसकी नीति पहले की तरह और स्वतंत्र है। देश भी अमेरिका के विरोध में एकजुट हो गए हैं। दुनिया अब इस मसले से ऊब चुकी है, बेहतर होगा इस्राइल और फलस्तीन वार्ता के माध्यम से अपना हल निकालें।

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