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चुनावों में मतदाता का एजेंडा!

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उत्तर भारत के तीन राज्यों में चुनावी माहौल जिस तरह गर्मा रहा है उसे देखते हुए इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इन तीनों ही राज्यों की जनता का फैसला आर-पार का होगा अर्थात किसी भी राज्य में त्रिशंकु विधानसभा बनने के आसार बहुत कम ही हैं। अकेला छत्तीसगढ़ एेसा राज्य माना जा रहा है जिसमें पूर्व कांग्रेसी नेता अजीत जोगी द्वारा अपनी अलग पार्टी जनता कांग्रेस बनाए जाने से त्रिकोणीय मुकाबले की संभावना मुख्य पार्टियों कांग्रेस व भाजपा के अलावा हो सकती है। मगर इसकी नौबत इसलिए नहीं आएगी क्योंकि श्री जोगी ने आज इस राज्य की 72 सीटों पर होने वाले मतदान से पहले जिस अंदाज में यह कहा है कि वह मृत्यु पर्यन्त भाजपा के साथ गठबन्धन करना पसन्द नहीं करेंगे, उससे स्थिति स्पष्ट हो गई है कि वह राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अधिकाधिक वोट हथिया कर सत्ता की चाबी अपने जेब में रखना चाहते हैं। असल में राजनीति की वास्तविकता वह नहीं होती है जो ऊपर से दिखाई पड़ती है। इसीलिए कहा जाता है कि सत्ता में आने की राजनीति कुछ और होती है और सत्ता चलाने की कुछ आैर, 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद केवल दिल्ली और बिहार व पंजाब को छोड़ कर जितने भी राज्यों में चुनाव हुए उनमें भाजपा की जीत हुई।

मगर इनमें से केवल गुजरात को छोड़ कर शेष सभी राज्यों में उसकी विरोधी कांग्रेस आदि पार्टियों की सरकारें ही थीं। इन सभी विजयी राज्यों में भाजपा ने स्थानीय राजनीतिक पार्टियों के साथ हाथ मिला कर सत्ता हासिल करने में सफलता प्राप्त की। त्रिपुरा जैसे छोटे से राज्य में जहां कुल मतदाता 25 लाख के लगभग हैं वहां भी भाजपा ने आंचलिक कही जाने वाली राजनीति शक्तियों से हाथ मिलायाऔर पिछले तीन दशकों से राज कर रही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को हुकूमत से बेदखल किया। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में भी भाजपा ने ‘अपना दल’ जैसी छोटी–छोटी पार्टियों के साथ मिल कर ही चुनाव लड़ा। पंजाब में उसकी सहयोगी पार्टी अकाली दल थी मगर वह पहले से ही सत्ता में थी अतः इस राज्य में उसे कांग्रेस के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा। जिन तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान में चुनाव हो रहे हैं, इन तीनों में ही भाजपा की सरकारें हैं और इनमें से किसी भी राज्य में उसका कोई सहयोगी दल भी नहीं है।

पार्टी अपने बूते पर ही अपने पिछले शासन के कार्यकाल के भरोसे मतदाताओं का विश्वास हासिल करने की लड़ाई लड़ रही है। इन तीनों ही राज्यों में उसकी मुख्य प्रतिद्वन्द्वी पार्टी कांग्रेस है। इस पार्टी के कर्णधारों को भरोसा है कि सत्ता के विरुद्ध उपजे रोष का लाभ उन्हें मिलना निश्चित है। वस्तुतः संसदीय लोकतन्त्र में चुनावी गणित लगाने और सफलता पाने का यह सबसे सरल तरीका है। मगर मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में पिछले 15 वर्षों से भाजपा की सरकारें जिस तरह सत्ता पर काबिज हैं उससे यह विश्लेषण इसलिए गलत हो जाता है क्योंकि ‘चुनावी चौसर’ पर राजनीतिक दल जिस प्रकार की गोटियां बिछाते हैं उसमें सत्ता विरोधी लहर का असर कम करने की तकनीक बहुत कारगर तरीके से काम करती है।

चुनावों में विरोधी प्रत्याशियों की अधिकता इसका एक तरीका होती है। पिछले चुनावों में छत्तीसगढ़ में भाजपा व कांग्रेस के मतों में मुश्किल से एक प्रतिशत से भी कम का अन्तर था। मगर हार–जीत का अन्तर बहुत कम रहने की वजह से भाजपा की रमन सिंह सरकार ने बहुत सहूलियत के साथ पुनः सत्ता हथिया ली थी। इससे पहले हमें यही करामात पंजाब के 2012 के विधानसभा चुनावों में देखने को मिली थी जब अकाली– भाजपा गठबन्धन की सरकार को पूरे राज्य में पड़े कुल मतपत्रों में केवल 75 हजार के लगभग ही ज्यादा मत मिले थे मगर विधानसभा में इसकी विपक्षी पार्टी कांग्रेस से सीटें काफी ज्यादा आ गई थीं। अतः चुनावों में अन्तिम समय तक हार–जीत के बारे में कुछ भी निश्चिन्त होकर नहीं कहा जा सकता किन्तु यह सोचना मूर्खता होगी कि भारत के मतादता इस चुनावी गणित को नहीं समझते हैं अथवा राजनीतिक पार्टियां एेसी चौसर बिछा कर उनकाे बेवकूफ बना सकती हैं। वे गफलत में तभी आते हैं जब सत्ता और विपक्ष दोनों का ही एजेंडा उनके दिलों में उठने वाले सवालों से दूरी बनाए रखता है।

असल में भारत का सत्य यह है कि यहां के कम पढ़े-लिखे मतदाता इतने समझदार हैं कि वे अपने मन की बात मतदान केंद्रों पर जाकर इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि राजनीतिज्ञों के होश उड़ा देते हैं। ये मतदाता किसी हवा या बहाव में आ जाते हों यह सोचना भी गलत होता है क्योंकि वे चुनावों का राजनीतिक एजेंडा स्वयं तय करते हैं और उन मुद्दों को छांट लेते हैं जिन पर उन्हें राजनीतिक दलों को परखना होता है, जो राजनीतिक दल जमीन पर जनता के बीच चल रही इस हलचल के आधार पर अपना एजेंडा उछाल देता है वही विजयश्री का वरण करता है। भारत का पूरा चुनावी इतिहास इसी तथ्य का साक्षी है। अतः चाहे जितनी भी कोशिश कर ली जाए और मतदाताओं को चाहे जितना भी भावुक बनाने की कोशिश की जाए मगर उनका मत उसी पार्टी को पड़ता है जिसका घोषित एजेंडा उनके दिल में उठ रहे सवाल होते हैं और जिस राज्य में इस प्रकार की परिस्थितियां नहीं बन पातीं वहां त्रिशंकु विधानसभा का गठन होना जरूरी हो जाता है। किसी भी राजनीतिक दल में इतनी ताकत नहीं है कि वह अपने गढ़े हुए एजेंडे को लोगों के एजेंडे के ऊपर रख सके। इसलिए इन तीनों राज्यों में विजय उसी की होगी जो लोगों के दिलों में पहले से बैठ चुका होगा। इस मामले में न ‘मीडिया’ कुछ कर सकता है और न ‘मा​िनटरिंग’।

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