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मतदाताओं का भी फर्जीवाड़ा !

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मध्य प्रदेश की मतदाता सूची में मतदाताओं के फर्जीवाड़े को लेकर चुनाव आयोग से जो शिकायत की गई है वह लोकतन्त्र में अत्यन्त गंभीर मामला है, क्योंकि यदि मतदाताओं की पहचान के स्तर पर ही कोई भी सरकार फर्जी मतदाताओं की फेहरिस्त तैयार करा देती है तो मतदान के परिणामों को बिना कोई मेहनत किए प्रभावित किया जा सकता है। एेसी व्यवस्था पूरी चुनाव प्रणाली का मखौल उड़ाते हुए घोषणा करती है कि चुनाव आयोग की संविधान परक उस जिम्मेदारी को भी संशय के घेरे में खड़ा करने की राज्य की प्रदेश सरकार सभी तिकड़म कर रही है जो प्रत्येक वयस्क नागरिक को वैधानिक रूप से केवल एक वोट का अधिकार देने की है। मतदाता सूचियों काे तैयार करना चुनाव आयोग का दायित्व है। वह यह कार्य राज्य सरकारों की मशीनरी के माध्यम से ही करता है, यदि मतदाता सूची में ही प्रारम्भिक स्तर पर धांधली कर दी जायेगी तो चुनाव किस प्रकार साफ-सुथरे और बेदाग होंगे? एेसी मतदाता सूची के आधार पर यदि चुनाव कराये जाते हैं जिनमें 13 प्रतिशत के लगभग फर्जी मतदाता शामिल हों तो उससे निकलने वाले नतीजों का विश्लेषण मतदान होने से पहले ही कोई भी कर सकता है, लेकिन इसके साथ यह इस बात का भी पक्का सबूत है कि मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार किस तरह सरकारी मशीनरी की रग-रग में समा गया है ​िक राज्य की कुल 230 विधानसभा सीटों में 60 लाख फर्जी मतदाताओं को शामिल कर दिया।

इससे पता चलता है कि राज्य मे संविधान के शासन को किस रास्ते से परास्त करने की तरकीब अभी से निकाली जा रही है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस ने फर्जी मतदाता सूची की शिकायत पुख्ता सबूतों के आधार पर की है और कमलनाथ जैसे सुलझे हुए नेता से कोई यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि वह राजनीतिक बढ़त लेने के लिए एेसी शिकायत कर सकते हैं जिसका सीधा सम्बन्ध चुनाव आयोग द्वारा स्थापित विश्वसनीयता और शुचिता से हो। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावाें में अभी काफी समय शेष है, मगर सभी राजनैतिक दलों ने चुनावी महासमर के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी है। इसी तैयारी के दौरान यह चाैंकाने वाला मामला सामने आया है कि हर विधानसभा सीट की मतदाता सूची में फर्जी मतदाताओं के नाम घुसा दिये गये हैं। जाहिर है कि जिस राज्य में भी चुनाव होने होते हैं वहां चुनाव आयोग सालभर पहले से ही मतदाता सूचियों के नवीनीकरण का काम शुरू कर देता है और यह काम पूरी निष्ठा व ईमानदारी से किये जाने की उम्मीद चुनाव आयोग को रहती है। स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों की देख-रेख में यह काम किया जाता है। जब चुनाव होते हैं तो इनमें से ही कई को चुनाव अधिकारी (रिटर्निंग आ​िफसर) की जिम्मेदारी भी दी जाती है। ऐसे में चुनाव के समय उनकी निष्पक्षता और राजनीतिक उदासीनता पर किस तरह यकीन किया जा सकता है? अतः एेसे किसी भी अधिकारी को चुनाव आयोग रिटर्निंग आ​िफसर नहीं बना सकता। राज्य की भोली-भाली जनता के विश्वास के साथ जिस तरह पल-पल छल किया जा रहा है उसका दूसरा उदाहरण ढूंढने से नहीं मिल सकता। क्या कयामत है कि राज्य के किसानों से ‘बांड’ भरवाने की हिमाकत तक इस सरकार के कारिन्दों ने की कि यदि उन्होंने किसान आन्दोलन में भाग लिया और हिंसा भड़काने में उनका नाम आया तो उनसे 25 हजार रुपया वसूला जायेगा। लोकतन्त्र में ऐसा किसी तरह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता जो लोगों से उनके लोकतान्त्रिक अधिकार छीनने की जुर्रत दिखाये।

जरूरत इस बात की है कि चुनाव आयोग उन असली मुजरिमों की निशानदेही करके मतदाताओं को अभय दान दे कि उनके वोट की पवित्रता के साथ जिसने भी बेइमानी करने की कोशिश की उसे बेनकाब कर दिया जायेगा। चुनाव आयोग पहले से ही ईवीएम मशीनों के प्रयोग को लेकर मतदाता के सामने रक्षात्मक मुद्रा में है। मैं पहले ही लिख चुका हूं कि ईवीएम मशीनों के प्रयोग के मसले पर राजनैतिक दलों को आपस में उलझने की जरूरत नहीं है। न तो भाजपा का इसका समर्थन करना कोई मायने रखता है और न ही कांग्रेस का विरोध करना। असली मसला मतदाता द्वारा ईवीएम मशीनों पर विश्वास किये जाने का है। मतदाता अपने मत और प्रत्याशी के बीच में किसी अन्य वस्तु की सक्रिय भूमिका बर्दाश्त करना नहीं चाहता है। उसका मत अपरिवर्तनीय होता है और मतदान प्रक्रिया में यदि उसे यह आशंका हो जाती है कि उसके द्वारा दिये गये मत का मूल्यांकन कोई तीसरी मशीन या वस्तु करेगी तो उसका विश्वास डगमगाने लगता है, मगर मध्य प्रदेश ने चुनाव आयोग के सामने एक एेसी चुनौती फेंक दी है कि चुनावों में गड़बड़ी करने की नई ‘टैक्नोलोजी’ भी वाह-वाह करने लगे।

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