लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

वाह भई पेट्रोल, हां भई डीजल!

NULL

पेट्रोल–डीजल की कीमतों में लगातार बढ़ौतरी से आम जनता परेशान हो चुकी है। भारत पूरी दुनिया में अकेला एेसा देश है जिसमें लोगों की रोजमर्रा की जरूरत पेट्रोल व डीजल पर केन्द्र सरकार द्वारा लगाई जाने वाली शुल्क दर औसत से आठ गुना अधिक है। यह सरासर सरकार का जन विरोधी कदम है क्योंकि यह सीधे आम आदमी की गाढ़ी कमाई से चुराया गया धन होता है। इस मामले में भारत के महान विचारक आचार्य चाणक्य का यह सिद्धान्त याद रखा जाना चाहिए कि ‘कोई भी राजा अपनी प्रजा से शुल्क वसूली प्रशासन चलाने के ​िलए उसी तरह करता है जिस तरह मधु-मक्खियां विभिन्न फूलों का पराग या रस चूस कर शहद का उत्पादन करती हैं।’ वस्तुतः आचार्य ने यह सिद्धान्त अपने अर्थशास्त्र में किसी भी राज्य के व्यापार व वाणिज्य जगत के ले दिया है। मगर इसी सन्दर्भ में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि ‘राजा का यह कर्त्तव्य होता है कि वह सामान्य प्रजा की जरूरी उपभोग्या वस्तुओं को उदारता के साथ शुल्क प्रणाली में समाहित करे’ मगर आज का भारत किसी राजतन्त्र में नहीं बल्कि लोकतन्त्र में जी रहा है जिसमें लोग स्वयं ही अपनी सरकार का गठन करते हैं।

यह माना जाता है कि इस सरकार में शामिल लोग आम जनता की तकलीफों को केन्द्र में रख कर पूरे प्रशासन को चलाते हैं। यह कैसे संभव है कि अपनी खेती के लिए डीजल खरीदने वाले किसान से सरकार इतना शुल्क वसूल करे जो डीजल की वास्तविक लागत कीमत से भी ज्यादा हो ? किसी गांव या कस्बे में मोटरसाइकिल या छोटा–मोटा माल-वाहक वाहन खरीदने वाले व्यक्ति से पेट्रोल की वह कीमत वह वसूल करे जो पेट्रोल की लागत से दुगनी से भी ज्यादा बैठती हो ? बाजार मूलक अर्थव्यस्था में जब सरकार हर उत्पाद की कीमत को बाजार की शक्तियों के हवाले करती है तो वह साधारण आदमी की क्रय शक्ति को भी उनके हवाले छोड़ देती है। इस व्यवस्था के बीच यदि सरकार सामान्य आदमी के रोजाना जरूरत की वस्तु पर असामान्य शुल्क दर लगाती है तो यह प्रत्यक्ष रूप से जनता की गाढ़ी कमाई पर डाके के अलावा और कुछ नहीं होता । यदि कच्चे तेल के मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय भावों पर भारत में पेट्रोल के परिशोधन के बाद लागत 32 रु. प्रति लीटर बैठती है और उसका भाव दिल्ली में 76 रु प्रति लीटर तय होता है तो जाहिर है कि विभिन्न परिवहन, पेट्रोल पम्प मालिकों के कमीशन और परिशोधन कम्पनियों के मुनाफे के खर्चे के बाद जो भी आगे कीमत बढ़ती है।

वह सरकार की जेब में ही जाती है। जबकि इन विभिन्न खर्चों में अधिकाधिक आठ रु. प्रति लीटर आते हैं। इसके ऊपर जिस तरह भारत में रोज पेट्रोल के भाव तय करने की छूट परिशोधन कम्पनियों को दी गई है वह व्यापारिक अराजकता पैदा करने वाला कदम है क्योंकि तेल कम्पनियां कच्चे तेल की खरीदारी अग्रिम सौदे करके करती हैं। पेट्राेल व डीजल पर सब्सिडी समाप्त करने का अर्थ यह कदापि नहीं था उपभोक्ताओं से बिना–कुछ हाथ हिलाये ही सरकार अपना खजाना भरने का रास्ता ढूंढ ले। राजस्व उगाही का यह आसान रास्ता अर्थ व्यवस्था की कमजोरी का परिचायक इसलिए होता है क्योंकि यह अन्य उत्पादनशील रास्तों से सरकार द्वारा की गई राजस्व उगाही के घाटे को पाटने का काम करता है। अतः ये बेवजह नहीं है कि पिछले चार साल में कच्चे तेल के भावों में पिछले दस साल की अपेक्षा लगातार सुस्ती रहने के बावजूद सरकार ने नौ बार शुल्क दरों में वृद्धि की है। इसका मतलब यही है कि सरकार ने भारत के लोगों को उस बाजार मूलक अर्थ व्यवस्था के लाभों से महरूम रखने का कुचक्र किया है जिस पर उसका हक बनता था। यह जानना भी जरूरी है कि मनमोहन सिंह शासनकाल में कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों की वजह से लगातार शुल्क दरों में कमी इस प्रकार की गई कि आम जनता पर कम से कम बोझ पड़ पाये। मगर पिछले चार साल में कच्चे तेल की गिरती कीमतों के बावजूद शुल्क दरों में इस प्रकार वृद्धि की गई कि आम जनता को महंगा पेट्रोल खरीदने की आदत पड़ जाए। मगर यह राजनैतिक सवाल है जिसका पेट्रोल व डीजल की कीमतों की हकीकत से लेना-देना नहीं है । हकीकत यह है कि यदि सरकार पेट्रोल व डीजल को जीएसटी के दायरे में ले आये तो इस पर अधिकतम 28 प्रतिशत शुल्क ( केन्द्र व राज्य) का मिलाकर लगेगा। मगर इसी मुद्दे पर लागू जीएसटी प्रणाली दम तोड़ देती है और घोषणा करती है कि भारत की आर्थिक, सामाजिक व भौगोलिक विविधता इस प्रणाली को अन्तिम रूप से स्वीकार नहीं कर सकती।

भारत में एक तरफ एेसे राज्य हैं जिनकी अर्थ व्यवस्था कल-कारखानों से लेकर व्यापार केन्द्रों व कृषि मूलक उत्पादों पर निर्भर करती है तो दूसरी तरफ एेसे राज्य हैं जिनमें उद्योग धन्धे नाममात्र के हैं। गरीब राज्यों के लिए पेट्रोल व डीजल पर वैट लगा कर राजस्व वसूलने की वास्तविक मजबूरी होती है। यही वजह है कि 21 राज्यों में भाजपा की सरकारें होने के बावजूद कोई भी राज्य पेट्रोल को जीएसटी में लाने के लिए तैयार नहीं है। यदि यह जीएसटी में आ जाता है तो केवल मदिरा अकेली बचती है जिस पर राज्य सरकारें मनमानी शुल्क दरें लागू कर सकती हैं। मदिरा को जीएसटी से बाहर रखने का कानून पहले ही बना दिया गया है। पेट्रोल के जीएसटी में आने पर उत्तराखंड से लेकर उत्तर-पूर्वी राज्य व जम्मू-कश्मीर व छत्तीसगढ़ व तेलंगाना जैसे राज्य क्या करेंगे ? अतः जरूरी है कि केन्द्र सरकार एेसी नीति तय करे जिसके तहत पेट्रोल व डीजल के भावों को इस तरह नियत किया जाये कि ये जायज दायरे में रहें। यदि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव बढ़ते हैं तो सरकार की कमाई भी बढ़ती है और हर साल इसमें पेट्रोल की घरेलू मांग बढ़ने के साथ इजाफा ही होता है और यदि घटते हैं तो सरकार की कमाई भी घटती है बशर्ते डालर के भावों में तेजी से घट–बढ़ न हो। अतः शुल्क दरें पेट्रोल के किसी औसत भाव को स्थिरांक मानकर उसके सापेक्ष घटाई और बढ़ाई जाती रहें। यह प्रणाली कुछ दक्षिण एशियाई देशों में लागू है। मगर यहां तो शुरू से ही उल्टी गंगा बहाई जाती रही है शुल्क दरें बढ़वाने के लिए ही वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवन्त सिन्हा ने अध्यादेश जारी करवा कर कानून में तब संशोधन करवाया था जब कच्चे तेल के भाव 14 डालर प्रति बैरल के करीब पहुंच गये थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

nineteen − ten =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।