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चेतावनी देती अर्थव्यवस्था

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भारत की अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में अर्थशास्त्री अभी समय रहते सचेत नहीं करते हैं तो हम ऐसी विकट​​ स्तिथि में फंस सकते हैं जिसकी वजह से हमारे ऊपर से विदेशी निवेशकों का विश्वास डगमगा सकता है और जिस तेजी के साथ पिछले तीन वर्षों में पूंजी बाजार ( शेयर बाजार) बढ़ा है उसमें तूफानी रफ्तार से गिरावट दर्ज हो सकती है। इसकी वजह यह है कि औद्योगिक उत्पादन से लेकर आम कारोबार तक की गति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है और घरेलू बाजार में खपत से लेकर निर्यात कारोबार में लगातार सुस्ती आ रही है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि बड़े नोटों को बन्द करने से अर्थव्यवस्था पर इस कदर दुष्प्रभाव पड़ा है कि मध्यम व लघु उद्योग लगभग चौपट होने के कगार पर पहुंच चुके हैं और रही-सही कसर ‘जीएसटी’ ने पूरी कर डाली है। इस कर प्रणाली के क्रियान्वयन से देश के छोटे व मझले शहरों से लेकर कारोबारी मंडियों में अफरा-तफरी का माहौल इस कदर बना हुआ है कि सारा बोझ उपभोक्ताओं के कन्धों पर आकर पड़ गया है। इसका असर सामाजिक ताने-बाने पर पड़े बिना उसी तरह नहीं रह सकता जिस तरह नोटबन्दी का हुआ था।

नोटबन्दी पूरी तरह आर्थिक कदम होने के बावजूद सामाजिक स्तर पर जादुई असर डालने वाला साबित हुआ था और राष्ट्रीय स्तर पर इसने गरीबों को मोदी सरकार के पक्ष में लामबन्द करने का अदृश्य कार्य किया था मगर यह उस सामाजिक गुस्से का भी प्रतीक था जो भारतीय लोगों में अमीरों या रईसों के प्रति रहता है। यही वजह रही कि इसके आर्थिक प्रभावों से बेखबर रहते हुए आम भारतीय ने प्रधानमन्त्री के इस अचानक उठाये गये कदम का हृदय से समर्थन किया था मगर अब वह खुमार काफूर हो चुका है और आम आदमी को दैनिक मुसीबतों से उसी तरह जूझना पड़ रहा है जिस तरह वह नोटबन्दी से पहले जूझा करता था, बल्कि अब आम भारतीय खाद्य पदार्थों से लेकर औद्योगिक व उपभोक्ता वस्तुओं के बढे़ हुए दामों का अपने-अपने हिसाब से विश्लेषण कर रहा है और इस नतीजे पर पहुंच रहा है कि सरकार ने पेट्रोल व डीजल के दाम लगातार महंगा बनाये रखने की नीति इसीलिए अपना रखी है जिससे इन पर लगने वाले शुल्क या टैक्सों से उसकी आमदनी में लगातार इजाफा होता जाए। हकीकत यह है कि सरकार ने पिछले तीन वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल की कीमतें लगातार नीचे आने के बावजूद 11 बार शुल्क वृद्धि की, 2016-17 वित्त वर्ष में अकेले पेट्रोल व डीजल पर लगे शुल्क से ही उसे सवा तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक की राजस्व उगाही हुई।

पेट्रोल व डीजल को ‘जीएसटी’ के अन्तर्गत लाने के लिए न तो राज्य सरकारें तैयार हैं और न ही केन्द्र अपनी बढ़ती राजस्व उगाही को देखते हुए इसे वृहद एक समान कर ढांचे में लाने के लिए उत्सुक है। इसकी वजह एकमात्र यह है कि पेट्रोल व डीजल राजस्व उगाही का सबसे सरल माध्यम है जिसमें सरकार को कुछ करने की जरूरत नहीं है। दूसरे, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भाव गिरने या बढ़ने से आम उपभोक्ता का कोई सीधा सरोकार नहीं है और उसे आसानी से यह बताया जा सकता है कि जितना पैसा उसका मनमोहन सराकर के सत्तारूढ़ रहते खर्च हो रहा था उतना ही करीब अब हो रहा है अतः भाव बढे़ कहां ? मगर यह आम आदमी की आंखों में धूल झोंकने से कम नहीं है, क्योंकि मई 2014 में मनमोहन सरकार के विदा होते समय कच्चे तेल के भाव दुनिया के बाजारों में 110 डालर प्रति बैरल पर थे, जबकि मौजूदा साल के सितम्बर महीने में इसके भाव 56 डालर प्रति बैरल के करीब हैं, जबकि इससे पहले पिछले तीन वर्षों में इसके भाव 40 डालर प्रति बैरल तक देख चुके हैं। अतः घरेलू बाजार में पेट्रोल व डीजल के भाव लगातार ऊपर रखने के लिए सरकार ने बार-बार शुल्क दरों को बढ़ाया जिससे उसकी आमदनी तो बढ़ी मगर आम आदमी की जेब से कम पैसे नहीं निकले। हम यह भूल जाते हैं कि भारत में जितना डीजल खर्च होता है उसका एक तिहाई तो अकेले रेलवे विभाग द्वारा ही खपाया जाता है।

रेलवे के यात्रा किरायों पर भी इसका असर तब पड़ता जब हम डीजल पर शुल्क दरों में वृद्धि न करते। साथ ही रक्षा मन्त्रालय में भी डीजल की खपत काफी मात्रा में होती है। डीजल पर जब सब्सिडी प्रणाली जारी थी तो उसका असर रेलवे के किरायों को स्थिर रखने पर भी पड़ता था, लेकिन पेट्रोलियम अर्थव्यवस्था का एक खास अंग है जिसका सीधा सम्बन्ध आम आदमी के जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं से होता है। तदर्थ नीति अपनाकर सरकार पेट्रोलियम के घरेलू बाजारों को स्थिर नहीं रख सकती है। क्या होगा यदि भविष्य में पुनः पेट्रोलियम पदार्थ मई 2014 के स्तर पहुंच गये? मगर वृहद स्तर पर अर्थव्यवस्था का आकलन करने से स्पष्ट है कि हमारी दुनिया की तेज गति से वृद्धि करती अर्थव्यवस्था की असलियत विदेशी निवेशकों के सामने ज्यादा ढकी नहीं रह सकती, क्योंकि जुलाई महीने तक औद्योगिक वद्धि दर यदि छह प्रतिशत भी कम रहती है तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि सकल विकास वृद्धि दर का आंकड़ा पूरे साल में पांच प्रतिशत के करीब ही घूमेगा। घरेलू बाजार में तैयार माल की खपत की दर दो प्रतिशत तक पिछले वर्ष के मुकाबले गिर चुकी है। यह स्थिति खतरे का संकेत देने वाली है। इसके साथ ही बैंकों द्वारा लघु व मध्यम क्षेत्र को दिये जाने वाले ऋणों की मिकदार भी कम होने से पूंजी निवेश का माहौल खराब हुए बिना नहीं रह सकता, जबकि यह क्षेत्र रोजगार सर्वाधिक रूप से प्रदान करता है। बेशक सरकार के पास विदेशी मुद्रा भंडारण अपार है मगर इसमें से 70 प्रतिशत च्पार्किंग मनीज् ही है जिसे हम स्थायी निवेश नहीं कह सकते। अतः हमें अभी से सचेत होकर अपनी अर्थव्यवस्था की चाल सुधारनी पड़ेगी।

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