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किसानों से संवाद का रास्ता

आन्दोलनकारी किसानों को सरकार ने वार्ता का निमन्त्रण भेज कर साफ कर दिया है कि तीन नये कृषि कानूनों में संशोधन करने का उसका विकल्प खुला हुआ है। तर्क खड़ा किया जा सकता है कि यदि ऐसा है तो फिर समस्या के समाधान में क्या दिक्कत है?

आन्दोलनकारी किसानों को सरकार ने वार्ता का निमन्त्रण भेज कर साफ कर दिया है कि तीन नये कृषि कानूनों में संशोधन करने का उसका विकल्प खुला हुआ है। तर्क खड़ा किया जा सकता है कि यदि ऐसा है तो फिर समस्या के समाधान में क्या दिक्कत है? किसान संगठनों की मूल आशंका यह है कि सरकार नये कृषि कानूनों के माध्यम से पूरे कृषि क्षेत्र को बाजार की शक्तियों पर छोड़ देना चाहती है। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का यह अंतिम तार्किक सत्य है। अतः प्रश्न पैदा होता है कि किसानों में यह विश्वास किस प्रकार पैदा हो कि सरकार के संरक्षण का हाथ उनके सिर पर बना रहेगा? क्योंकि सरकार कह रही है कि कृषि उपज की न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली समाप्त नहीं होगी और सरकारी खरीद जारी रहेगी। सरकार संसद से लेकर सड़क तक यह आश्वासन लगातार दे रही है किन्तु संगठन इस पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। सरकार यह वचन लिखित में भी देने को तैयार है मगर किसान इस वचन का कानूनी आलेख मांग रहे हैं। लोकतन्त्र का एक सिद्धान्त होता है कि इस व्यवस्था में चीजें बहुत धीरे-धीरे चलती हैं। जनता के सवालों का हल भी बहुत तेज गति से नहीं निकलता है। जनता जब अपने अधिकारों की मांग करती है तो उन्हें पूरा करने का तरीका किसी सरकार की दया पर निर्भर नहीं करता बल्कि उसका समाधान हक के तौर पर संवैधानिक रास्ते से निकलता है। अर्थात लोकतन्त्र में जनता का हक संवैधानिक अधिकार के रूप में दिया जाता है। स्वतन्त्रता के बाद हमने जिस संविधान को अपनाया वह नागरिकों के अधिकारों से ही भरा पड़ा है और ये सभी संवैधानिक अधिकार हैं क्योंकि इस व्यवस्था में सरकार की सतत् प्रक्रिया इस प्रकार होती है कि हर पांच साल बाद उसकी निगेहबानी में परिवर्तन आ सकता है। अतः हमारे दूरदर्शी संविधान निर्माता पहले ही यह व्यवस्था करके गये कि जनता के अधिकारों को कानूनी जामा पहना कर ही पूरा किया जाये। इसलिए किसान संगठनों को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि वे बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में किस प्रकार के संवैधानिक अधिकार चाहते हैं।
भारत में कृषि क्षेत्र में सुधारों का इतिहास इतना लम्बा है कि इसका सम्बन्ध ब्रिटिश राज तक से जाकर जुड़ता है। 1926 के लगभग कपास के किसानों की मुश्किलों को देखते हुए तब करंजा मंडियों (कपास मंडियों) की स्थापना की गई थी। इसकी वजह यह थी कि कपास के किसानों का तब जमकर व्यापारी शोषण करते थे। मंडी के माध्यम से उनकी उपज के दाम तय होने लगे और कपास किसानों में एका हुआ। यह आजादी से पहले की घटना है लेकिन आजादी मिलने के बाद कृषि प्रधान देश होने की वजह से भारत की सरकार ने सबसे ज्यादा जोर खेती पर ही दिया और इसे लाभप्रद बनाने के लिए बहुत बड़ी धनराशि कृषि सब्सिडी के रूप में देने के नियम संसद के माध्यम से बनाये। इसकी व्यवस्था वार्षिक बजट के जरिये की गई। यह इसलिए जरूरी था जिससे भारत खेती से निकल कर उद्योग प्रधान देश हो सके।
विचारणीय मुद्दा यह है कि जब भारत आजाद हुआ तो वर्ष 1947 में इसका कुल वा​िर्षक बजट मात्र 259 (दो सौ उनसठ) करोड़ रुपए का था और इसकी 95 प्रतिशत राशि कृषि राजस्व से ही प्राप्त ​होती थी मगर जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गये वैसे-वैसे हमारी राजस्व राशि औद्योगिक गतिविधियों से बढ़ती गई। 1991 में आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के बहुत पहले ही भारत दुनिया के 20 औद्योगीकृत राष्ट्रों में आ चुका था। यह सब हमने अपनी खेती को मजबूत करते हुए ही किया था जिसकी वजह से हम अपने बाजारों को विदेशी कम्पनियों के लिए खोल सके और हमने भारतीय कम्पनियों के लिए प्रतियोगिता का दरवाजा खोलने की हिम्मत जुटाई। तब तक भारत में मध्यम आय वर्ग का इतना बड़ा बाजार बन चुका था कि विदेशी कम्पनियों के माल के खरीदार तैयार थे। यह सब हमने अपने कृषि क्षेत्र को मजबूत करके ही प्राप्त किया था और इस क्षेत्र से 30 प्रतिशत आबादी को अन्य उद्योग-धन्धों में लगा कर प्राप्त किया था। भारत की यह उपलब्धि कोई छोटी-मोटी नहीं थी बल्कि आर्थिक मोर्चे पर यह दुनिया में एक रिकार्ड के तौर पर आंकी गई क्योंकि यह सब कार्य हमने लोकतान्त्रिक प्रणाली के तहत पूरा किया था। यह कार्य हम इसलिए कर सके क्योंकि लोकतन्त्र में जो भी सरकार चुन कर आती है वह जनता की मालिक नहीं बल्कि उसकी सेवादार होती है और राष्ट्रीय सम्पत्ति की देखभाल (क्यूरेटर) करने वाली होती है। इसका समानुपाती बंटवारा उसका पहला दायित्व होता है जिससे सरकार को लोक कल्याणकारी राज स्थापित करने वाली संस्था के रूप में जाना जाता है। इसमें नागरिकों के भी कुछ कर्त्तव्य होते हैं जिनका सम्बन्ध संविधान का शासन बनाये रखने से होता है। अतः किसान संगठनों का भी दायित्व बनता है कि वह लोकतान्त्रिक परंपराओं का अनुसरण करते हुए संवाद से समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करें जिससे गतिरोध समाप्त हो। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस प्रणाली में कानून बनाने का अधिकार केवल संसद के पास ही है। उसका यह अधिकार पवित्र और अक्षुण्य है। अतः कृषि कानूनों में जो भी संशोधन होगा वह केवल संसद के माध्यम से ही होगा।

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