जब राजस्थान के मुसलमान मांगनहार भारत की सांस्कृतिक विरासत सस्वर गायन करते हैं और सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र से लेकर नरसी भगत के भात की दन्तकथा का बखान करते हैं तो भारत का रंग-बिरंगा विविध मत-मतान्तरों को मानने वाले लोगों की स्वतः स्फूर्त बना गुलदस्ता और खिलने लगता है जब हिन्दोस्तान के गली-कूंचों में आवाज लगा-लगा कर अपनी दस्तकारी और फनकारी के बूते पर रोजमर्रा की जिन्दगी में काम आने वाले घरेलू औजारों को दुरुस्त करने से लेकर सब्जी-फल आदि बेचने वाले मुस्लिम नागरिक अपेक्षाकृत सम्पन्न हिन्दू मोहल्लों से लेकर उनकी बस्तियों में अपना मेहनताना पाते हैं तो भारत का माथा थोड़ा और ऊंचा हो जाता है क्योंकि यह अपना यापन हिन्दू-मुस्लिम के भेद से ऊपर उठ कर करने में यकीन रखता है।
यह बेवजह नहीं था कि 16वीं शताब्दी में जब ईरान में शिया-सुन्नी मुसलमानों का विवाद पैदा होने पर वहां के शाह मुअज्जम ने मुगल बादशाह अकबर से यह पूछा था कि वह बतायें कि वह कौन से मुसलमान हैं तो अकबर ने उत्तर दिया था कि वह ‘हिन्दोस्तानी मुसलमान’ हैं। जब औरंगजेब के सिपहसालार मराठा सरदार आपा गंगाधर ने मुगल सल्तनत का झंडा दक्षिण भारत में फहराने के बाद औरंगजेब से ही इल्तिजा की थी कि वह लालकिले के सामने ही अपने ईष्ठदेव भगवान शंकर का मन्दिर खड़ा करने की इच्छा रखते हैं तो औरंगजेब ने शाही फरमान जारी करके इसकी बाकायदा इजाजत दी थी।
हालांकि औरंगजेब खुद को कट्टर सुन्नी मुस्लिम दीनदार मानता था, परन्तु यह मेरा निश्चित और पक्का मत है कि भारत की विविधता में एकता का बखान महान गुरू नानक देव जी महाराज से बेहतर किसी और मनीषी, ने इसके यथार्थ को केन्द्र में रख कर नहीं किया कुछ दिनों पहलेे मैंने गुरुवाणी का वह ‘शबद’ लिखा था जो स्वयं गुरू नानक देव जी के मुखारबिन्द से निकला था-कोई बोले राम-राम कोई खुदाये- इसी की अगली पंक्तियों में गुरू महाराज ने कहा है कि
कोई कहे तुरक, कोई कहे हिन्दू
कोई बांचै भीस्त, कोई सुरबिन्दू
कोई पढै बेद, कोई कोई कथेद
कोई ओड्ढे नील, कोई सफेद
भारत का यह स्वरूप जब साढे़ पांच सौ साल पहले अपने उत्कर्ष पर था तो अनुमान लगाया जा सकता है कि इस देश की मिट्टी की तासीर किसी एक विशेष फूल को उत्प्लावित करने की नहीं बल्कि गुलदस्ते में सजने वाले अनेक पुष्पों को उगाने की रही होगी। यही भारत की मूल संस्कृति है जो पूर्व में द्रविड़, आर्य, शैव, वैष्णव, जैन व बौद्ध धर्मों के साकार से लेकर निराकार ब्रह्म की उपासना में द्वैत व अद्वैत के भेद-विभेद को समरस करते हुए आगे बढ़ी थी। इतना ही नहीं इस देश की सैकड़ों आदिवासी मान्यताएं अपना अस्तित्व भी कस कर संभाले रही थीं।
भारत के मध्यकालीन इतिहास में हमने आदिवासियों के कथित सभ्य समाज से संघर्ष की किसी भी गाथा को पढ़ा है क्या? इनकी टकराहट अंग्रेजों के भारत आने के बाद ही सुनने को मिली है अतः हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष को जन्म देने की पूरी जिम्मेदारी निःसन्देह रूप से अंग्रेजों पर डाली जा सकती है परन्तु वे इस देश की सम्पत्ति लूटने आये थे। उनका काम जब पूरा हो गया और उन्होंने भारत को पूरी तरह निचोड़ डाला तो वे वापस लन्दन चले गये, परन्तु आज भारत के तो हम खुद ही भाग्य विधाता हैं। फिर हम क्यों साम्प्रदायिक सांचों में बंट कर सोचने लगते हैं।
माना कि इसके पीछे 1947 में भारत के धर्म के आधार पर दो टुकड़े होने की मनोवैज्ञानिक वजह हो सकती है परन्तु इसके बाद भारत में रहने वाले मुसलमान तो हिन्दोस्तानी मुसलमान हैं जिनकी रगों में यहां की मिट्टी की तासीर ही दौड़ती है। पाकिस्तान को निपटाने के लिए तो इन हिन्दोस्तानी मुसलमानों की एक आवाज ही काफी है क्योंकि इनकी निस्बत अपने मुल्क से है मुल्क के मजबूत होने पर ही उनकी मजबूती है।
अतः संशोधित नागरिकता कानून को लेकर उत्तर प्रदेश में जिस तरह हिंसा शुरू हुई है वह पूरी तरह भारतीय अवाम की मंशा के खिलाफ है और इसे करने में वे शरारती लोग शामिल हैं जो मुसलमानों के नाम पर अपनी सियासत चमकाना चाहते हैं मुसलमानों का यदि इस कानून से विरोध है तो वह पूरी तरह कुछ ‘बुनियादी पेशनगोई’ की वजह से है उनकी मुखालफत इस बात से है कि मौजूदा सरकार उन्हें हिन्दोस्तान की अमन के बीच से अलग-थलग निकाल कर खड़ा कर रही है जिसकी मनाही हिन्दोस्तान का संविधान करता है दूसरी तरफ सरकार का कहना है कि एक हिन्दोस्तानी मुसलमान होने से उनकी मौजूदा हैसियत पर नये कानून से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए जरूरी है कि जोर कानूनी नुक्तों पर ही हो।
भारत का संविधान तो वह है जिसने कानूनी नुक्तों की वजह से ही 1969 में इन्दिरा गांधी की सरकार द्वारा किये गये बैंकों के राष्ट्रीयकरण को अवैध करार दे दिया था और इसके बाद राजा-महाराजाओं के प्रिवीर्स खत्म करने का हश्र भी सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा ही किया था, परन्तु दोनों मामलों में संविधान संशोधन की गुंजाइश थी और इन्दिरा जी ने ऐसा ही किया और इसके लिए सम्पत्ति के मूल अधिकार को निरस्त तक किया परन्तु नागरिकता कानून में इसकी कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि संविधान लिखने वालों ने बड़ी दूरन्देशी के साथ यह लिखा था कि भारत का नागरिक हिन्दू या मुसलमान देख कर नहीं बल्कि इंसान देख कर बनाया जायेगा।
इसलिए कानून (सर्वोच्च न्यायालय) पर ही हर हिन्दू-मुसलमान को भरोसा रखना चाहिए और अपना विरोध या समर्थन पूरी तरह गांधी बाबा के सिखाये रास्ते पर चल कर करना चाहिए। इस मामले में हरियाणा के मेवात इलाके के मेव मुसलमानों से सबक लेना चाहिए जिन्होंने पूरी तरह अहिंसक मार्ग से अपनी आवाज लाखों की संख्या में एकत्र होकर बुलन्द की। अब यह सरकार का काम है कि वह ऐसी ‘खामोश’ सी दिखने वाली आवाजों का भी संज्ञान ले।