जो लोग भारत की राजनीति को नाजायज मुल्क पाकिस्तान की मजहबी तास्सुब की सियासत में तब्दील करने की साजिशें रच रहे हैं उन्हें आिखर में बहुत अफसोस और निराशा होगी क्योंकि हिन्दोस्तान वह मुल्क है जिसकी आजादी के बाद शिक्षा और संस्कृति की नींव एक मुस्लिम नेता स्व. मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने रखी थी। भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद से लेकर कला अकादमी व साहित्य अकादमियों की बुनियाद मौलाना साहब ने बहुत संजीदगी के साथ रखते हुए आगाह किया था कि ‘इस मुल्क की संस्कृति हिन्दू-मुस्लिम भेद से कहीं बहुत ऊपर उठकर सभ्यता का वह किला तैयार करती है जिसमें समूची मानव जाति स्वयं को महफूज पाती है।’ एक तरफ स्वतन्त्र भारत में उच्च िशक्षा के बड़े-बड़े संस्थान स्थापित करने वाले केवल ‘मदरसे’ से पढ़े हुए मौलाना साहब ने पाकिस्तान के बारे में कहा था कि ‘इसका मुस्तकबिल सिर्फ मुसलमानों को पामाल हालत में छोड़ने का है।
अतः यह समझने में जरा भी गफलत नहीं की जानी चाहिए कि जो लोग भारत में समूचे राजनैतिक कलेवर को सिर्फ हिन्दू-मुसलमान में बांट देना चाहते हैं उनका उद्देश्य सिवाय भारत के नागरिकों को बदहाल बनाये रखने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता है। यह कैसे संभव है कि भारत के मतदाता उन आर्थिक मुद्दों के बारे में न सोचें जो उनकी बदहाली की वजह बने हुए हैं और केवल उन्हीं मुद्दों के बारे में सोचते रहें जो उन्हें आपस में बांटते हैं। कोई भी राजनैतिक विमर्श आम आदमी के जीवन को बेहतर बनाने के उपायों के बिना पूरा नहीं हो सकता। यदि झारखंड जैसे राज्य में गऊ का मांस रखने के अंदेशे में किसी मुस्लिम नागरिक की हत्या पीट-पीट कर भीड़ ने की थी तो उसके प्रभाव से इसी राज्य में नये लागू होने वाले ‘भूमि अधिग्रहण कानून’ को सन्दर्भहीन नहीं बनाया जा सकता। अभी दो दिन पहले ही इस राज्य में इस भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ व्यापक रोष प्रकट करते हुए समूचे राज्य के शिक्षण संस्थानों से लेकर व्यापारिक बाजार बन्द रखे गये थे। झारखंड के आम लोगों का इस कानून के प्रति इतना गुस्सा था कि छोटे-छोटे कस्बों तक में लोगों ने अपना कारोबार बन्द रखा था मगर इस बात की सफाई देने के बजाय इसका जो तोड़ निकाला गया वह लोकतन्त्र में किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं हो सकता और एेसी किसी भी साजिश को लोग गले नहीं उतार नहीं सकते।
पिछले वर्ष राज्य के रामगढ़ इलाके में जिस मुस्लिम नागरिक की हत्या करने के आरोप में अदालत में मुकदमें लम्बित पड़े हुए हैं और जो लोग जमानत पर बाहर हैं उन्हें यदि कोई केन्द्रीय मन्त्री अपने घर मंे सम्मानित करता है और उन्हें फूल मालाएं पहनाता है तो इससे उपजा हुआ विवाद किसी भी तरीके से भूमि अधिग्रहण के विवाद पर पानी नहीं डाल सकता है। इस कानून में आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों की जमीन को अधिग्रहित करने के नियमों को इस प्रकार बदला गया है कि कोई भी बाहरी व्यक्ति उसका मालिक बन सकता है। झारखंड जैसे राज्य तक में अगर हम गुनहगारों को सम्मानित करने का काम करते हैं तो किस तरह से यहां की नक्सली समस्या पर काबू पा सकते हैं? मगर क्या गजब की हवा बह रही है कि कोई भी मन्त्री कुछ भी बयान जारी करके खुद को राष्ट्रभक्त होने का प्रमाणपत्र दे देता है और ऊपर से तुर्रा मार देता है कि जो अपराधी है उसे कानून जरूर सजा देगा। जरा कोई इन ‘अनमोल रत्नाें’ से पूछे कि जब अपराध को अंजाम देने वालों की हुजूर खुद ‘इज्जत अफजाई’ कर रहे हैं तो समाज में एेसे मौकों को कौन हाथ से जाने देगा और वे तत्व क्यों नहीं सिर उठायेंगे जिन्हें एेसे अपराधों को अंजाम देने पर इनाम मिलेगा? एक और एेसे ही सूरमा ने पहले एेलान किया था कि उनकी पार्टी का लक्ष्य तो संविधान को ही बदलना है। जनाब आज भी मन्त्री के औहदे पर हैं।
एक और ‘मुख्तारे आजम’ हरियाणा के मुख्यमन्त्री हैं जो पत्रकारों को ही समझा रहे हैं कि पहले सवाल पूछने की तहजीब सीख कर आओ। बिल्ली के भागों जब छींका टूटता है तो वह खुद को शेर से कम नहीं आंकती। जनता के वोटों के बूते पर हुकूमत के सिंहासनों पर विराजे हुए लोग भूल जाते हैं कि जनता को इतनी अक्ल होती है कि वह आवाज से ही अंदाजा लगा लेती है कि किसके गले में ‘गुल्लू’ लगा हुआ है मगर देखिये चारों तरफ बस एक ही राग को अलापने की कोशिश हो रही है कि भारत में अगर कोई समस्या है तो वह बस हिन्दू-मुसलमान की है। एेसी सोच वे जाहिल लोग ही रख सकते हैं जिन्हें न भारत के इतिहास की जानकारी हो और न ही इसकी विकास गाथा का कोई इल्म हो। आजादी के सत्तर सालों में हमने पूरी दुनिया काे जो उपहार दिया है वह यही है कि मजहब के आधार पर भारत से अलग टूट कर पाकिस्तान बन जाने के बावजूद भारत ने जो तरक्की का रिकार्ड कायम किया है उसमें पाकिस्तान से ज्यादा भारत में ही रह रहे मुसमानों की शिरकत किसी भी सूरत में हिन्दुओं से कम नहीं है।
यह कोई छोटी-मोटी ‘विरासत’ हिन्दोस्तान ने दुनिया की नई पीढ़ी के लिए नहीं छोड़ी है बल्कि सबूत पेश किया है कि मुल्क मजहब से नहीं चला करते बल्कि मेहनत से चला करते हैं और मेहनत का कोई न धर्म होता है और न सम्प्रदाय। अब कोई पूछे उन इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़-उखाड़ कर आम जनता को हिन्दू-मुस्लिम में बांटने वालों से कि वे इसी देश की लगातार मुंह के बल लेटती मुद्रा ‘रुपये’ को किसके खाते में डालेंगे? जब भारत आजाद हुआ था तो एक रुपये की कीमत एक ‘डालर’ के भी नहीं बल्कि एक ‘पौंड’ के बराबर थी मगर जब 1966 में इन्दिरा जी ने रुपये की कीमत पहली बार एक डालर के मुकाबले साढ़े चार रु. से बढ़ाकर साढ़े सात रु. के लगभग की थी तो तब स्वतन्त्र पार्टी व जनसंघ और संसोपा जैसी विपक्षी पार्टियों ने कहा था कि इन्दिरा गांधी जैसी गैर समझदार प्रधानमन्त्री ने भारत की आर्थिक प्रभुसत्ता का ही सौदा कर डाला है मगर यह इंदिरा गांधी का ही दम था कि उन्होंने 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद पूरी तरह जर्जर अर्थव्यवस्था को भारत के बूते पर ही सुधारने का भारी जोखिम लिया था और अमरीका व विश्व बैंक की इस धमकी को धूल में मिला दिया था कि अगर भारत ने अपने बाजार विदेशी कम्पनियों के लिए न खोले तो उसके हाथ में भीख का कटोरा आ जायेगा मगर हमने हिम्मत तब भी नहीं हारी थी और ईश्वर की कृपा से आज भी नहीं हारेंगे क्योंकि भारत की महान जनता को अल्लाह ने वह तौफीक दी है कि वह सियासतदानों के चेहरों पर पड़े नकाबों को तार-तार करना जानती है। यह जनता हर उस ‘तिलिस्म’ के बेजार होने का इंतजार जरूर करती है जो उसे अपनी पनाह में लेकर ‘फना’ करना चाहता है मगर खुदा गवाह है कि एेसे हर मोड़ पर हर ‘हिन्द’ के वासी ने अपने ‘ईमान’ के जादुई हौंसलों से ‘हिन्द’ की ‘रूह’ को ही नवाजा है।