हम घर फूंक तमाशा देख रहे हैं

हम घर फूंक तमाशा देख रहे हैं

जलवायु के बारे…हम केवल खतरे में ही नहीं हैं, हम ख़तरा हैं। पर हम ही समाधान हैं–एंटोनियो गुटेरेस

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की यह संक्षिप्त टिप्पणी तीन बातें कहती है। जलवायु का ख़तरा है, यह ख़तरा हमने ही पैदा किया है और इसका समाधान भी हमारे पास ही है। जहां तक ख़तरे का सवाल है, इसके संकेत तो बहुत पहले से मिल रहे थे। सब कुछ असामान्य है, बारिश, बाढ़, सूखा, गर्मी, सर्दी, बर्फ़बारी। पर इस साल हमने गर्म होती धरती का भयानक रूप देखा है। विशेष तौर पर उत्तर भारत में जो हीट वेव चली है ऐसी पहले कभी नहीं देखी गई। चिलचिलाती धूप और लू के थपेड़े तो हर साल मिलते हैं पर पहली बार है कि लम्बे समय के लिए उत्तर और मध्य भारत में तापमान सामान्य से 4-8 डिग्री उपर रहा है। दिल्ली के कुछ इलाक़ों के समेत, कुछ जगह यह 50 डिग्री से अधिक तक गया है। यह तापमान तो कुवैत, साऊदी अरब जैसे मुल्कों में रहता है। पुराने आंकड़े बताते हैं कि यहां हीटवेव दस से पन्द्रह दिन रहती है पर इस बार लगभग सारा मई और तीन चौथाई जून हीट वेव रहा है। रात के वकत भी तापमान बढ़ने का नींद और स्वास्थ्य दोनों पर असर पड़ता है। गर्मी के कारण चुनाव दौरान उत्तर प्रदेश में 33 चुनाव अधिकारी मारे गए। चुनाव आयोग को निश्चित तौर पर इस मौसम में चुनाव करवाने पर दोबारा गौर करना चाहिए।

स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार मार्च के बाद गर्मी लगने से 110 लोग मारे गए, 40000 हीट स्ट्रोक से पीड़ित हुए हैं। दिलीप मावलंकर जिन्होंने अहमदाबाद के लिए देश का पहला ‘हीट एक्शन प्लान’ बनाया था, का कहना है कि, “2022 के बाद हम लगातार गर्मी के रिकार्ड बना रहे हैं। अगर हम कदम नहीं उठाते तो स्थिति बदतर हो जाएगी। यह वेक अप कॉल है”। दुनिया भर से ऐसी शिकायतें आ रही हैं। मई 2024 इतिहास में सबसे गर्म महीना माना गया है। मक्का में हज के दौरान 1300 लोग मारे गए। हज़ारों अस्पतालों में दाखिल हैं। कई टूरिस्ट के मरने या बेहोश होने के बाद ग्रीस ने अपने कई टूरिस्ट स्थल बंद कर दिए हैं। झुलसने वाले तापमान और प्रखर सूरज के कारण जहां यूरोप में कई जगह लोग बीमार पड़ रहे हैं वहीं अमेरिका में कई जगह जंगल की आग बुझने का नाम नहीं ले रही। अगले महीने से पेरिस में शुरू होने वाले ओलम्पिक खेलों पर ‘अत्यधिक उच्च तापमान’ का ख़तरा है। जिसे ग्लोबल वॉर्मिंग कहा जाता है उसने सारा जीवन बदल दिया है। हमने दुनिया को वहां पहुंचा दिया है जहां उसकी बस हो रही है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि वह दिन दूर नहीं जब बड़े शहरों में हीटवेव की चेतावनी वाले साइरन बजा करेंगे। न केवल इंसान तकलीफ़ में है पर कई लाख जीव प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं और कई वनस्पतियां ग़ायब हो चुकी हैं। यह सिलसिला चल रहा है।देश में अब गिद्ध नज़र नहीं आता। इसका पर्यावरण के चक्र पर बहुत बुरा प्रभाव होगा। पंजाब में पहले शीशम के पेड़ लुप्त हुए फिर कीकर। अब खेतिहर बताते हैं कि नीम पर ख़तरा है। एक दोस्त ने पंजाबी की कविता भेजी है जो हमारी पर्यावरण त्रासदी बताती है,

टाहलियां ना रहिया, इतिहास होइयां बेरियां, किकरां ते नीमां ने असां तो अखां फेरियां
बिरखां नू पूजदा अवाम उक्क चलिया है, घुघिऐ नी उड जा,पंजाब सुक चलिया है!

बिगड़ती जलवायु और पर्यावरण से और बहुत से खतरे हैं। इससे सारा जीवन ही अस्तव्यस्त हो सकता है। पानी को लेकर दिल्ली और हरियाणा में जो तू-तू, मैं-मैं चल रही है वह तो ट्रेलर है। आगे चल कर पानी को लेकर देशों के बीच जंग हो सकती है। हमारे देश के प्रमुख 150 जलाशयों में केवल 21 फ़ीसदी पानी बचा है। सिंचाई के लिए भी पानी की कमी आ सकती है जिसका क्या प्रभाव होगा हम समझ सकते हैं। किसी के पास इन खतरों से निपटने का रोड-मैप नहीं है, और न ही दिलचस्पी ही है। इससे बेरोज़गारी और सामाजिक तनाव दोनों बढ़ सकते हैं। बैंगलोर जैसे शहर से हरियाली और तालाब सब ग़ायब हो गए हैं। परिणाम है कि बाढ़ और पानी की भारी क़िल्लत दोनों से जूझना पड़ रहा है।

बिजली की भारी कमी हो सकती है जो जीवन और आर्थिकता दोनों को प्रभावित करेगी। जिस देश की जनसंख्या के बड़े हिस्से को हीट से बचाव नहीं, वहां औद्योगिक और कृषि उत्पादन दोनों प्रभावित होंगे। स्वास्थ्य सेवाएं दबाव में आ सकती हैं। रसोई में काम कर रही महिलाओं के लिए तकलीफ़ बढ़ेगी। जो स्लम में रहते है जहां चारों तरफ़ निर्माण है और जहां बिल्कुल हरियाली नहीं है, वह लोग भी खतरे में हैं। यहां सारे दिन की हीट को रात में भी निकलने का रास्ता नहीं मिलता। बाक़ी कसर प्रदूषण पूरी कर रहा है। दुनिया के 100 में से 83 सबसे प्रदूषित शहर भारत महान मे हैं। बिहार का बेगूसराय दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर समझा जाता है। हमारी नदियां प्रदूषित हैं। दिल्ली में यमुना की सतह पर तैरती झाग बताती है कि हम कितना अन्याय कर रहे हैं। नदियों से भी, और अपने से भी। लाखों लोग प्रदूषण से यहां मारे जाते हैं पर हम मस्त चल रहे हैं। हाल ही में आम चुनाव हो कर हटे हैं पर क्या किसी भी नेता को हीटवेव या प्रदूषण पर बोलते देखा है?

ऐसी हालत क्यों बनी? कहा जा सकता है कि ‘हम से तो हमारी बहारों को सम्भाला न जा सका’! खुद को बेहतर लाईफ़ स्टाइल देने की दौड़ में हमने अपना बेड़ागर्क कर लिया है। पूंजीवाद की इमारत ही प्राकृतिक संसाधनों के शोषण पर खड़ी है। विकास के लिए हम पर्यावरण से बहुत समझौते कर चुके हैं। उतराखंड के चारधाम तक पहुंचने के लिए जो सड़कें बनाईं जा रही है उनके कारण बार-बार आफ़त आ रही है। हिमाचल में भी बहुत बाढ़ आई है जिससे बहुत अवैध निर्माण बह गए। पर इसके बावजूद सरकार हरी छत को कम करने में लगी है। शिमला की जलवायु और ख़राब करने का इंतेजाम कर लिया गया है। इसकी आने वाली पीढ़ियां बहुत बड़ी क़ीमत चुकाएंगी। वैज्ञानिक बता रहे हैं कि कुछ जगह को छोड़ कर, भारत में अत्यधिक तापमान और तेज़ी से बढ़ रहा है। कल्पना कीजिए कि अगर 45-50 डिग्री तापमान सामान्य हो गया तो क्या होगा? करोड़ों ज़िन्दगियां खतरे में पड़ सकती हैं। वृद्ध, बच्चे और गरीब विशेष तौर पर खतरे में हैं। दुख की बात है कि आने वाले इस खतरे की तरफ़ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा। कोयले पर निर्भरता कम करनी होगी। सरकार ने गैस कनेक्शन तो दे दिए पर इसे इतना महँगा कर दिया कि करोड़ों घर फिर चूल्हा जलाने के लिए मजबूर हैं। सौर्य ऊर्जा पर प्रशंसनीय ज़ोर दिया जा रहा है पर अभी बहुत कुछ करना बाक़ी है।

सरकार ने पर्यावरण को सुरक्षित करने के लिए कई क़ानून बनाए हैं पर सबसे बड़ी दोषी भी सरकारें ही हैं। नवीनतम समाचार उत्तर प्रदेश से है जहां कांवड़ियों के लिए नया रास्ता बनाने के लिए सरकार पूरी तरह से हरे भरे 33000 पेड़ काटना चाहती है। यह कैसी ज़ालिम सरकार है? यहाँ तो पेड़ों की पूजा होती है और जो सरकार ऐसी कटाई करना चाहती है उसके प्रमुख तो योगी हैं। उन्हें तो अधिक संवेदनशील होना चाहिए। याद आते हैं सुन्दरलाल बहुगुणा और उनके साथी जिन्होंने उत्तराखंड के चमोली में वृक्षों की कटाई के खिलाफ ‘चिपको आन्दोलन’ चलाया था जिसमें अधिक संख्या में महिलाएं शामिल थी। नारा था, ‘क्या है जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और बयार! मिट्टी पानी और बयार, ज़िन्दा रहने के आधार’। जो पहाड़ों या जंगलों में रहते हैं वह अच्छी तरह जानते हैं कि पेड़ किस तरह जीवन का आधार हैं। जलवायु को सही रखने के लिए पेड़ बहुत ज़रूरी हैं। पर विकास के नाम पर या शहरीकरण, राजनीतिक या धार्मिक कारणों से हम पेड़ काटते जा रहें है। हमें हरा आवरण अधिक चाहिए कम नहीं। भोपाल में ‘चिपको आन्दोलन’ के बाद सरकार ने 29000 पेड़ काटने का प्रस्ताव निरस्त कर दिया। ऐसा ही आंदोलन उत्तर प्रदेश में भी चाहिए ताकि 33000 पेड़ों की हत्या न हो।

दिल्ली हाईकोर्ट ने चेतावनी दी है कि अगर इसी तरह तरह नाश होता रहा तो एक दिन दिल्ली बंजर रेगिस्तान बन जाएगी। दुनिया में 3 ट्रिलियन पेड़ बताए जाते हैं जो प्रति व्यक्ति 400 पड़ते हैं पर भारत में प्रति व्यक्ति केवल 28 पेड़ ही आते हैं। घटते पेड़ों का बढ़ते तापमान से सीधा सम्बंध है। कीनिया में हर साल 2 करोड़ पेड़ लगाए जाते हैं। इसका मतलब है कि अफ्रीका के लोग अधिक समझदार और सभ्य हैं।

जलवायु परिवर्तन और बढ़ रही झुलसती गर्मी हमारी प्राथमिकताओं में ही नहीं है। इसे बदलना होगा। हम बेपरवाह नहीं हो सकते। हम तो घर फूंक तमाशा देख रहे हैं। उत्सर्जन कम करने में तो बहुत समय लगेगा। यह भी मालूम नहीं कि यह कभी हो भी सकेगा कि नहीं, क्योंकि चाबी बड़े देशों के पास है जो सबसे अधिक उत्सर्जन करते हैं। पर तब तक हम अपना घर तो सही कर सकते हैं, पेड़ लगा कर, जलाशय पर से अवैध निर्माण ख़ाली करवा कर। इससे हम पानी की उपलब्धता बेहतर कर सकते हैं।पानी के प्राकृतिक स्रोत जो मृत प्रायः हैं को फिर से जीवित करना होगा। दूसरा, पेड़ लगाओ। जितने लगा सको पेड़ लगाओ। समीप आ रही इस त्रासदी से निपटने का यही देसी इलाज है। अगर हम न सुधरे तो ‘घरौंदा’ फ़िल्म (1977) के गुलज़ार द्वारा लिखित गाने के यह बोल हमारे दम घोंटते शहरों पर चरितार्थ हो जाऐंगे,

‘इन सूनी अंधेरी आंखों में, आंसुओं की जगह आता है धुआँ।
जीने की वजह तो कोई नहीं, मरने का बहाना ढूंढता हैं’!

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