संशोधित नागरिकता कानून के विरुद्ध जिस तरह लगातार विरोध प्रदर्शनों का दौर जारी है उसे देख कर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इससे भारत की आम जनता में जबर्दस्त मत विभाजन का माहौल बन चुका है। बेशक राजनीतिक रूप से भी देश में इस पर सीधा मत विभाजन है और घोषित विपक्षी पार्टियों के साथ ही सत्तारूढ़ दल भाजपा के साथ खड़ी रहने वाली कुछ पार्टियां भी विरोध के स्वर परोक्ष रूप से प्रकट कर रही हैं।
इनमें बिहार में भाजपा के साथ सत्ता सांझा कर रही जनता दल (यू) पार्टी प्रमुख है मगर यह भी गजब की कुंठा है कि बिहार के जद (यू) के सर्वोच्च नेता व मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार इस मुद्दे पर बच कर खेल रहे हैं और कह रहे हैं कि उनके राज्य में एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) नहीं बनेगा। दूसरी तरफ राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने घोषणा कर दी है कि उनके राज्य में संशोधित नागरिकता कानून नहीं लागू होगा। तीसरी तरफ प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी इस कानून के खिलाफ तूफानी युद्ध छेड़े हुए हैं और लगातार सचेत कर रही हैं कि यह नया कानून संविधान विरोधी है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि इस कानून पर विवाद को साम्प्रदायिक रंग देने की भी कोशिश हो रही है।
जाहिर है इसके राजनीतिक निहितार्थ भी होंगे। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान अचानक इस मैदान में उतर गये हैं जबकि इसकी कोई आवश्यकता सम्भवतः नहीं थी। संसद में पारित किया गया कोई भी कानून तब तक संवैधानिक ही होता है जब तक कि संविधान की शर्तों का खुलासा करने वाला सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में अलग राय न दे दे। अतः आरिफ साहब को यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि वह संवैधानिक पद पर हैं अतः नागरिकता कानून का समर्थन करेंगे। यह तो आत्मसिद्ध है कि राज्यपाल की हैसियत संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के केवल एक प्रतिनिधि की होती है और उसी के अनुरूप उसके दायित्व व अधिकार तय होते हैं।
संसद में कोई भी विधेयक बहुमत से ही पारित होता है और सत्ता पर काबिज सरकार का यह तकनीकी अधिकार भी होता है। संसद विभिन्न राजनीतिक दलों की संरचना होती है जिसमें सियासी पार्टियां अपने दलगत हितों का भी ध्यान रखती हैं। किसी भी विधेयक पर विपक्ष सरकार को इसी मुद्दे पर पटखनी देने का प्रयास करता है कि अमुक विधेयक राष्ट्रीय हित साधने की जगह सत्ताधारी दल के राजनीतिक हितों को साधने का काम ज्यादा करेगा। अतः संसद द्वारा बनाये गये कानूनों के गुण-दोष की बहस में राज्यपाल प्रायः नहीं पड़ते हैं और विवाद से दूर रहते हैं मगर आरिफ साहब ने जबर्दस्ती ही ‘ओखली में सर’ डालने का काम कर दिया।
इसकी वजह यही है कि राज्यपाल का पद संविधान में पूर्णतः ‘अराजनीतिक’ होता है मगर लोकतन्त्र में जनता या मतदाता ‘प्रजा’ नहीं होती बल्कि ‘राजा’ होती है। हर पांच साल बाद यही राजा हुक्म देता है कि कौन सा राजनीतिक दल सरकार बनायेगा। अतः केन्द्र से लेकर प्रत्येक राज्य सरकार का कर्त्तव्य बनता है कि वह इस ‘राजा’ के सम्मान को किसी भी हालत में गिरने न दे, परन्तु उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून का विरोध करने के दौरान प्रदर्शनों में जो हिंसा हुई उसके आरोप में यदि पुलिस किसी मृत व्यक्ति के विरुद्ध ही नामजद रिपोर्ट दर्ज करके उसे तलब करती है तो स्वयं सरकार के पक्ष की ही फजीहत इस प्रकार होती है कि वह धार्मिक आधार पर आम जनता से भेदभाव कर रही है।
संशोधित नागरिकता कानून पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बंगलादेश में धार्मिक आधार पर प्रताड़ित हिन्दुओं की मदद के लिए लाने का दावा भाजपा की केन्द्र सरकार कर रही है। यदि उत्तर प्रदेश में पुलिस आंख मींच कर धार्मिक पहचान को ही अपराध का पर्याय मान लेती है तो फिर फर्क कहां रहेगा? विचारणीय मुद्दा यही है जो आम जनता को परेशान कर रहा है। जो भारत की मिट्टी में पैदा हुए हैं और पले-बढे़ हैं वे सभी हिन्दोस्तानी हैं और इस मुल्क के हर सूबे की सरकार एेसे ही लोगों ने मिल कर बनाई है।
सत्ता में उनका भी वही हिस्सा लोकतन्त्र तय करता है जितना कि सत्ता पर काबिज लोगों का। अतः नागरिक के तौर पर एक मुख्यमन्त्री और साधारण नागरिक के अधिकारों में कोई फर्क नहीं है मगर दुखद यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति पिछले लगभग तीस सालों से कभी हिन्दू-मुसलमान की राजनीति तो कभी दलित- ठाकुर या चौहान या जाट अथवा राजपूत की राजनीति बनी हुई है और आम नागरिक अपनी मूल पहचान भारतीय की भूल कर इसी साम्प्रदायिक व जातिगत पहचान को पकड़ने में अपना लाभ देख रहे हैं। यह रास्ता उन्हें राजनीतिज्ञों ने ही दिखाया है लेकिन इस नागरिकता कानून के विवाद के चलते ही झारखंड विधानसभा के चुनाव परिणाम आये हैं।
इस राज्य के चुनाव पांच चरणों में हुए और अन्तिम तीन चरणों में नागरिकता कानून का मुद्दा भी चुनाव प्रचार में छाया रहा। नतीजे हमारे सामने हैं जो बहुत कुछ बयान कर रहे हैं। मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि भारत एेसा अजीम मुल्क है जहां हर ‘हिन्दू’ में एक मुसलमान और हर मुसलमान में एक हिन्दू रहता है। इसके मूल में भारत की सामन्ती समाज व्यवस्था से लेकर वर्तमान औद्योगीकृत समाज व्यवस्था का क्रम और आर्थिक व्यवस्था का वह स्वरूप जिम्मेदार है जो दोनों ही समुदायों के लोगों को परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर बनाता है, परन्तु 1947 में पाकिस्तान बनाने का जो षड्यन्त्र अंग्रेजों ने हमारे साथ किया उसके जाल में हम अभी तक फंसे हुए हैं क्योंकि पाकिस्तान का निर्माण ही केवल भारत की संयुक्त शक्ति और साझा संस्कृति के महाबल को तोड़ने के लिए ही हुआ था।
अतः पाकिस्तान का अन्त तो स्वयं उसके ही पाकिस्तान का अंत तो स्वयं उसके ही अन्तर्क्षय से निश्चित है क्योंकि उसकी बनावट में मिट्टी की ताकत कहीं नहीं है। भारत की असली ताकत इसकी मिट्टी की ताकत है और इसके वे लोग हैं जो इसी में खेल कर बड़े हुए हैं। जननी ‘जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ केवल हिन्दुओं का मन्त्र नहीं है बल्कि हर मुसलमान, ईसाई व पारसी का भी मन्त्र है क्योंकि भारत के गांवों में यह कहावत कही जाती है कि जो ‘जमीन से टूटा जग से गया।’