संतों को किससे भय लगता है?

संतों को किससे भय लगता है?
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पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत वृंदावन के सुप्रसिद्ध संत श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के दर्शन करने गए। आजकल देश भर के वीआईपी और विराट कोहली जैसी सेलिब्रिटी, जो भी वृंदावन आता है वो महाराज के दर्शन करने अवश्य जाता है। इनमें से ज़्यादातर लोग इसलिए जाते हैं क्योंकि पिछले दो-तीन वर्षों में महाराज श्री सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया में बहुत तेज़ी से वायरल हुए हैं। बाक़ी लोग उनका आशीर्वाद लेने जाते हैं और थोड़े से जिज्ञासु लोग उनसे ज्ञान लेने जाते हैं। माना जा सकता है कि भागवत जी भी प्रथम श्रेणी के ही दर्शनार्थी थे, जो आशीर्वाद या आध्यात्मिक ज्ञान लेने नहीं बल्कि महाराज के करोड़ों प्रशंसकों के बीच वहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराने गये थे।
'संतन के ढिग रहत है सबके हित की बात' की भावना को चरितार्थ करते हुए महाराज ने भागवत जी को एक लंबा प्रवचन दे डाला। जिसका मूल आशय यह था कि राजनैतिक दल रेवड़ियां बांट कर भारत का 'विकास' करने का जो दावा कर रहे हैं उससे भारत कभी सुखी और संपन्न नहीं बन सकता। बल्कि मानसिक और नैतिक रूप से दुर्बल और सामाजिक रूप से विभाजित राष्ट्र बन रहा है, जो देश के भविष्य के लिये बहुत घातक है।
प्रेमानंद महाराज जी देश के एक अति शक्तिशाली राजनेता से इतने कड़े शब्दों में ऐसा इसलिए कह सके क्योंकि उनका हृदय निर्मल है और उन्होंने जीवन में कठोर तप किया है और उन्हें किसी भी सरकार से किसी लाभ, उपाधि या सहायता की कोई अपेक्षा नहीं है। अब ज़रा परिदृश्य को बदलिए और देखिए उन तथाकथित संतों की ओर जो अध्यात्म का चोला ओढ़ कर वैभव, सत्ता और ग्लैमर का सुख भोग रहे हैं। किसी एक का नाम लेने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि इनकी फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे सभी आत्मघोषित सद्गुरुओं, महामंडलेश्वरों, शंकराचार्यों और मठाधीशों की पूछ अचानक बढ़ गई है।
धर्म के नाम पर अरबों रुपये की संपत्ति जमा कर लेने वाले ऐसे सभी 'मीडियाजीवी संत' आजकल भारत सरकार या राज्य सरकार द्वारा दी गई एक्स, वाई या जेड श्रेणी की पुलिस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं। इनकी सुरक्षा पर इस देश के मेहनतकश करदाताओं के टैक्स का अरबों रुपया हर साल खर्च हो रहा है। जबकि करदाताओं को इसका कोई लाभ नहीं मिलता। हिरण्यकश्यप के वध के बाद उसके खून में सनी आंतड़ियों की माला पहने रौद्र रूप में सामने खड़े नरसिंह भगवान को शांत करने गये सुकुमार बालक प्रह्लाद जी ने कहा, 'भगवन मुझे आपके इस भयानक रूप से डर नहीं लगता, पर अपनी वासनाओं से डर लगता है जो मेरी आध्यात्मिक राह में बाधक हैं।' सुरक्षा के घेरे में चलने वाले इन संतों ने अपने प्रवचनों में अनेक बार श्रीमद् भागवत के इस प्रसंग का उल्लेख किया होगा? पर क्या इससे मिले ज्ञान पर कभी मंथन भी किया? हमने तो विरक्त संतों से यही सुना है कि लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा के पीछे भागने वाले कभी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते।
आप पूछ सकते हैं कि जब दूसरे विशिष्ट व्यक्तियों को सरकार की तरफ़ से इस तरह की सुरक्षा दी जाती है तो इन मशहूर संतों को सुरक्षा क्यों न दी जाए? दोनों परिस्थितियों में अंतर है। बाक़ी लोग अपने सत्कर्मों या कुकर्मों के कारण लगातार मौत के भय में जीते हैं इसलिए वे सरकार से सुरक्षा मांगते हैं। जबकि स्वयं को संत मानने वाले उस आध्यात्मिक मार्ग के पथिक हैं जिसमें,
'चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह॥'
आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले को मौत का क्या भय? गोस्वामी तुलसीदास जी भी कह गये हैं, 'हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।' फिर मौत से क्या डरना?
अगर पाठकों को ये आत्मश्लाघा न लगे तो विनम्रता से यहां उल्लेख करना चाहूंगा कि 1993-98 के बीच अलग-अलग जगहों पर मुझ पर कई बार जानलेवा हमले हुए। क्योंकि 'जैन हवाला कांड' को उजागर करके मैंने देश के सबसे ताकतवर लोगों और हिज्जबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों के विरुद्ध अकेले ही युद्ध छेड़ दिया था। पर प्रभु कृपा से मैं न तो डरा, न झुका और न बिका। उस दौर में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन और मैं देशभर में जनसभाओं को संबोधित करने जाते थे तो अक्सर मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता था कि 'आप इतना ख़तरनाक युद्ध लड़ रहे हैं, आपको डर नहीं लगता?' मेरा श्रोताओं को उत्तर होता था-
'मारे कृष्णा राखे के, राखे कृष्णा मारे के'
श्री चैतन्य महाप्रभु के उक्त वचन से मुझे नैतिक बल मिलता था।
इसलिए मुझे आश्चर्य होता है कि बड़े-बड़े मंचों से धार्मिक प्रवचन करने वाले लोग कमांडो और पुलिस के घेरे में रहकर गर्व का अनुभव करते हैं। माया मोह त्यागने का उपदेश देने वालों की कथनी और करनी में इस भेद के कारण ही देश की आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पा रहा है। कुछ ऐसी ही बात प्रेमानंद जी महाराज ने डॉ. मोहन भागवत जी से कही।

– विनीत नारायण

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