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ये क्या जगह है दोस्तो…

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देश की आजादी के बाद जब भारत ने द्विसदनीय संसदीय प्रणाली की व्यवस्था को अपनाया तो 1949 में नवम्बर महीने में संविधान के लिखे जाने का काम पूरा होने के बाद संसदीय विभाग को संसदीय कार्य मन्त्रालय में बदलने की पहल की गई और 1952 में पहले चुनाव होने के बाद स्व. सत्य नारायण सिन्हा को देश का पहला संसदीय कार्यमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपने मन्त्रिमंडल में नियुक्त किया।

इसकी वजह यह थी कि लोकसभा व राज्यसभा के बीच सरकार के विधायी कार्य से लेकर अन्य संसदीय कार्यों में किसी भी प्रकार की ढिलाई न आ पाये और सरकार विपक्ष द्वारा उठाये गये किसी भी मुद्दे पर रचनात्मक रूप से जवाब दे सके और अपनी जवाबदेही सिद्ध करने के साथ ही संसद की कार्यवाही को बाधारहित तरीके से चला सके। हमने मनमोहन सरकार के अन्तिम वर्ष के शोर-शराबे और तेज तरकशी जुबान के दौर में देखा कि किस तरह तब संसदीय कार्यमन्त्री का भार संभालने वाले कांग्रेसी नेता श्री कमलनाथ अचानक मनमोहन सरकार के संकटमोचक बनकर उभरे और हर संसदीय झंझावत से सरकार को इस तरह बाहर निकाल कर लाये कि विपक्ष भी सन्तुष्ट हो सके और सरकार भी अपनी बात कह सके।

आजकल लोकसभा में जो काम अन्नाद्रमुक और तेलंगाना राष्ट्रीय समिति मिलकर कर रहे हैं वहीं काम उस समय भारतीय जनता पार्टी के सांसद भी किया करते थे। इसके बावजूद सदन एक-दो दिन बाधित होकर पुनः सुचारू रूप से चलने लगता था। उस समय पूरे देश में घोटालों की गूंज हो रही थी और श्री कमलनाथ के लिए विपक्षी भाजपा सांसदों को समझाना मुश्किल हो रहा था।

इसका मुख्य कारण यह था कि चारों तरफ संकटों से घिरे होने के बावजूद सरकार और विपक्षी पार्टियां संसद की गरिमा के साथ उस हद तक समझौता करने को तैयार नहीं थीं कि आम जनता की निगाहों में इसकी कार्यवाही केवल राजनीतिक अंक बटोरने का जरिया बन जाये परन्तु इसके पीछे श्री कमलनाथ की सक्रिय भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थी। वह रोजाना संसद शुरू होने से पहले विपक्षी दलों के नेताओं के साथ संवाद स्थापित करके यह सुनिश्चित करने की कोशिश करते थे कि कार्यवाही के दौरान संसदीय नियमों का पालन हो सके।

इसके साथ ही वह सत्तारूढ़ यूपीए के भी सभी घटक दलों के नेताओं से सम्पर्क साधकर उनकी भी इच्छा जानने की कोशिश करते थे। एेसा नहीं है कि भाजपानीत एनडीए की पिछली वाजपेयी सरकार में एेसा नहीं होता था। उस सरकार में स्व. प्रमोद महाजन संसदीय कार्यमन्त्री थे। उनका काम ज्यादा मुश्किल था क्योंकि भाजपा के साथ उत्तर से लेकर दक्षिण तक के एेसे राजनैतिक दलों का जमावड़ा था जिनकी विचारधारा इस पार्टी से कहीं मेल नहीं खाती थी। हालत यह थी कि अपने राज्य में चुनाव लड़ने के लिए इनमें से कई दल बीच में ही सरकार छोड़कर उन पार्टियों के साथ गठबन्धन बना लेते थे जो केन्द्र में वाजपेयी सरकार का विरोध करती थीं।

इसके बावजूद श्री महाजन इस ‘शंकर जी की बारात’ को बिना किसी हादसे के आगे चलाते रहते थे। मुझे यह भी पता है कि लोकसभा और राज्यसभा में केबिनेट मन्त्रियों की रोस्टर ड्यूटी लगाने के मामले में वह कभी झुंझला भी जाते थे क्योंकि उस समय वाजपेयी सरकार में शत्रुघ्न सिन्हा जैसे केबिनेट मन्त्री भी थे, जो गायब हो जाते थे। इसके बावजूद श्री महाजन ने कारगिल व तहलका रक्षा खरीद प्रकरण जैसे मुद्दे पर विपक्षी कांग्रेस पार्टी के साथ लगातार विचार-विमर्श करना बन्द नहीं किया था।

हालांकि इस मुद्दे पर संसद की कार्यवाही लगातार 17 दिन के लगभग बाधित रही थी मगर फिलहाल तो वर्तमान केन्द्र सरकार के सामने एेसा कोई भी संकट नहीं है जिसे वर्तमान संसदीय कार्यमन्त्री अनन्त कुमार संभाल न सकें। वह लोकसभा के भीतर और बाहर यह तो कह रहे हैं कि सरकार प्रत्येक मुद्दे पर चर्चा कराने के लिए राजी है मगर इन सांसदों की पार्टी के नेताओं को यह नहीं समझा पा रहे हैं कि उनकी जो भी मांग है उस पर सदन के भीतर बाकायदा प्रस्ताव लाकर चर्चा होनी चाहिए जबकि सदन में जो अविश्वास प्रस्ताव पूरे कायदे-कानूनों के तहत लाया जा रहा है उसे ये प्रदर्शनकारी सांसद विचारार्थ पेश किये जाने के मार्ग में बाधा बन रहे हैं।

वह सदन के भीतर तो जरूर कहते हैं कि सांसद अपने स्थानों पर वापस जायें मगर उनके मुद्दों को कार्यसूची में डालकर उन्हें निहत्था नहीं बना रहे हैं। कम से कम राज्यसभा में तो वह यह कर सकते हैं क्योंकि वहां अविश्वास प्रस्ताव का मुद्दा नहीं है। यह संसदीय कार्यमन्त्री का ही प्रथम कर्तव्य होता है कि वह सदन की कार्यवाही सुचारू चलाने के लिए उस कार्यसूची पर आम सहमति बनाये जिससे सभी पक्षों के मुद्दों पर चर्चा हो सके। केवल अन्नाद्रमुक व तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के सांसदों को ही इस बात के लिए मनाना है कि वे अपने अधिकारों के साथ ही सदन में मौजूद अन्य सांसदों के अधिकारों का भी ध्यान रखें क्योंकि संसद सभी सांसदों से मिलकर बनती है मगर हो यह रहा है कि इन दोनों ही पार्टियों के सांसद कार्यवाही शुरू होते ही दोनों ही सदनों में शोर-शराबा और नारेबाजी शुरू कर देते हैं तो सदन अगले दिन के लिए स्थगित हो जाता है।

वाजपेयी सरकार के अन्तिम सवा साल के दौरान श्रीमती सुषमा स्वराज भी संसदीय कार्यमन्त्री थीं और उनके समय में वाजपेयी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया था जो गिर गया था। उन्होंने सदन की कार्यवाही कम से कम बाधित होने दी थी लेकिन वर्तमान स्थिति में संसद के बिना हिले-डुले 13 दिन भी पूरे हो गये हैं, फिर भी कोई हलचल नहीं है !

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