अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। 11 सितम्बर, 2001 को वाशिंगटन और न्यूयार्क में हुए आतंकवादी हमले के बाद से ही अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में मौजूद है। उस वक्त अफगानिस्तान पर नियंत्रण रखने वाले तालिबान ने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी तो तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने हमले के मास्टर माइंड ओसामा बिन लादेन का पता लगाने के लिए एक सैन्य अभियान छेड़ा था। इस सैन्य अभियान को आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध करार दिया गया और दुर्भाग्य से इस लड़ाई में बुश ने पाकिस्तान को साथी बना लिया था। सैन्य अभियान के चलते तालिबान ने सत्ता गंवा दी। दस वर्षों के इंतजार के बाद अमेरिका को लादेन मिला भी तो पाकिस्तान में, जिसे 2 मई, 2011 को जलालाबाद के ऐबटाबाद में अमेरिकी नेवी सील कमांडो ने मार गिराया था।
आधिकारिक तौर पर अमेरिका के युद्ध अभियान 2014 में समाप्त हो गए थे लेकिन इसके बाद से तालिबान ने ताकत में काफी इजाफा कर लिया। अमेरिका ने अफगानिस्तान में स्थिरता और शांति प्रयासों के चलते अपने सैनिकों को वहां रोके रखा। अमेरिका और उसके मित्र देशों की सेनाओं ने तोराबोरा की पहाड़ियों की खूब खाक छानी। आतंकवाद को खत्म करने की काफी कोशिशें कीं लेकिन अफगानिस्तान में शांति कायम नहीं हुई। ओबामा भी राष्ट्रपति पद का कार्यकाल पूरा करके चले गए। फिर डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने। उनका नजरिया शुरू से ही यह रहा है कि अफगानिस्तान में लड़ाई से अमेरिका को कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि नुक्सान हुआ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आतंकवाद को जड़-मूल से नष्ट करने की आड़ में अमेरिका ने इराक, लीबिया और अफगानिस्तान में विध्वंस का खेल खेला, उसके बाद आज तक इन देशों में राजनीतिक स्थिरता कायम नहीं हो सकी है। अमेरिका के लोग भी लगातार लड़े गए युद्धों से परेशान हो उठे थे। ऐसी स्थिति में अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिक वापस बुलाना ही उचित समझा। अफगानिस्तान में अमेरिका काे अगर पराजय का सामना करना पड़ा है तो उसकी वजह पाकिस्तान है। इसे मजबूरी ही कहा जा सकता है कि अमेरिका को, जिसने तालिबान के खिलाफ अफगानिस्तान में युद्ध लड़ा, अब उसी से समझौता करना पड़ रहा है। अमेरिका और तालिबान के बीच 29 फरवरी को समझौता होने की उम्मीद है।
अमेरिकी वार्ताकारों और तालिबान के बीच बातचीत के एक सप्ताह तक हिंसा में कमी या युद्ध विराम की जिस बात पर समझौता हुआ था, उसकी शुरूआत भी आज से हो चुकी है। समझौते के बाद अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि 18 वर्षों से चली आ रही हिंसा समाप्त होगी। इस हिंसा ने अफगानिस्तान को जर्जर बना डाला है। अमेरिका तो समझौता कराके निकल जाएगा लेकिन अफगानिस्तान सरकार के लिए भविष्य के फैसले बहुत कठिन होंगे। अफगानिस्तान में चुनाव नतीजे घोषित कर दिए हैं और अशरफ गनी इसमें जीत गए हैं लेकिन अशरफ गनी के विरोधी अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह इस नतीजे को मानने से इंकार कर रहे हैं और उन्होंने धमकी दी है कि वह अपनी सरकार बनाएंगे।
सवाल यह भी है कि क्या तालिबान इन चुनावी नतीजों को स्वीकार करेगा। तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता में भागीदारी करेगा तो उसकी रूपरेखा क्या होगी? अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं है कि यह समझौता अफगानिस्तान पर कितना प्रभाव डालेगा। इससे सिर्फ अमेरिका को अपने सैनिक वापस बुलाने का मौका जरूर मिल जाएगा। चुनावी साल में ट्रंप अमेरिकी सैनिकों को घर वापस लाने का वादा जरूर पूरा कर लेंगे। तालिबान का कहना यह रहा है कि सरकार तो कठपुतली है क्योंकि सरकार अमेरिका चलाता है।
देश के 55 फीसदी इलाके पर तालिबान का नियंत्रण है। अफगानिस्तान की आधी आबादी उन इलाकों में रहती है जिन पर तालिबान का नियंत्रण है। तालिबान की वार्षिक कमाई 105 अरब से ज्यादा है। अफीम की खेती वाले इलाके तालिबान के कब्जे में हैं और वह नशे का कारोबार करता है। तालिबान के उदय के पीछे भी अमेरिका का हाथ रहा है। अफगानिस्तान में जब सोवियत संघ की सेना मौजूद थी तो उसको उखाड़ने के लिए अमेरिका ने ही तालिबान को पैसा और हथियार दिए थे।
जहां तक भारत-अफगान संबंधों का सवाल है, दोनों के रिश्ते बहुत बेहतरीन हैं। भारत अफगानिस्तान के नवनिर्माण में जुटा हुआ है। वहां की संसद तक का निर्माण भारत ने किया है। भारत ने वहां की परियोजनाओं में अरबों का निवेश कर रखा है। अगर तालिबान वहां सत्ता में आता है तो भारत पर काफी बुरा प्रभाव पड़ सकता है। पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी नहीं चाहता। पाकिस्तान वहां के आतंकवादी गुटों को फंड भी देता है। अफगानिस्तान में भारतीय ठिकानों पर हमलों में भी पाक समर्थित गुटों का हाथ रहा है। ऐसी स्थिति में भारत के लिए खतरा बढ़ जाएगा। पाकिस्तान अफगानिस्तान, तालिबान पर रिमोट कंट्रोल चाहता है। अफगानिस्तान की आगे की राह कैसी होगी, यह आने वाले दिन ही बताएंगे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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