लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

आखिर आदिवासी जाएं तो जाएं कहां?

NULL

जल, जंगल और जमीन को अपना कहने वाले लाखों आदिवासियों को 27 जुलाई से पहले बेदखल करने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दे दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 16 राज्यों से कहा है कि जिन परिवारों के वन भूमि स्वामित्व के दावों को खारिज कर दिया गया था, उन्हें बेदखल कर दिया जाए। हैरानी की बात तो यह है कि आदिवासी जंगल बचाते हैं और प्राकृतिक साधनों के जरिये जीवनयापन करते हैं, उनसे ही जल, जंगल और जमीन छीना जा रहा है। आदिवासी कहां जाएंगे, इसे लेकर लोकतंत्र चुप है। जंगल और अपने अधिकार को लेकर आदिवासियों की लड़ाई काफी लम्बी रही है। झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित कई अन्य राज्यों में आदिवासियों को अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ी है।

ओडिशा के नियमागिरी पर्वत, पोस्को और छत्तीसगढ़ में महाना आंदोलन को पूरे देश ने देखा। हैरानी की बात तो यह है कि देश के बड़े वाणिज्यिक घराने अवैध खनन करते रहे। नियमागिरी पहाड़ को खोदते रहे लेकिन आदिवासियों की बढ़ती मुश्किलों का पता तब चला जब लन्दन और न्यूयार्क के अखबारों ने भारत में प्राकृतिक संसाधनों की लूट के बारे में विस्तृत रिपोर्ट छापी अन्यथा भारतीय मीडिया को कुछ पता ही नहीं चलता। मध्य प्रदेश में चुटका परमाणु, कनहा डैम परियोजना, सोनभद्र में भी आदिवासियों को आंदोलन करने पड़े। झारखंड के नेकिया में कोपलकारी परियोजना के विरोध में सन् 1980-90 के दशक का इन्हें संघर्ष करना पड़ा था। नेतराहट फाय​रिंग रेंज विस्थापन मामले में आदिवासियों का संघर्ष पिछले तीन दशकों से जारी है। राज्य सरकारें लगातार जंगल की जमीन उद्योगपतियों को देती रहीं आैर आदिवासियों को बेदखल करती रहीं। उद्योगपतियों ने प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन किया। किसी ने लौह अयस्क को मिट्टी के भाव खरीदकर सोने के भाव बेचा।

किसी ने जस्ता निकालकर करोड़ों अरब कमाए, आदिवासियों को कुछ नहीं मिला। विस्थापन की समस्या विकराल रूप धारण करती रही। यह भी सच है कि आदिवासी जिन जमीनों पर वर्षों से रह रहे हैं, उस जमीन के कागजात उनके पास नहीं हैं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट कानून के तहत ही कार्रवाई कर रहा है। वह मानता है कि ये आदिवासी जंगल की जमीन पर अवैध कब्जा जमाए बैठे हैं। कुछ पर्यावरणप्रेमी संरक्षणवादी संगठनों ने अतिक्रमण और कब्जे के खिलाफ कोर्ट में जनहित याचिका लगाई थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत जनजातियों, आदिवासियों और गैर जनजातीय वनवासी समूहों को जंगल से निकालने का काम शुरू किया जाएगा। राज्यों की भेजी संख्या में हजारों लोगों के दावे छूटे हुए हो सकते हैं क्योंकि गिनती और पहचान की प्रक्रिया में भी गड़बड़ है। आदिवासी मामलों के मंत्रालय के मुताबिक वन रिहायश के 42.19 लाख दावे किए गए थे जिनमें 18.89 लाख ही स्वीकार किए गए हैं। यानी 23 लाख से ज्यादा आदिवासी और वनवासी परिवारों पर तलवार लटक रही है।

लोकसभा में 47 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है, इसके बावजूद इनके लिए कोई कुछ नहीं कर रहा। राज्य सरकारों ने भी आनन-फानन में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने की घोषणा कर दी है। यह मामला आदिवासी अधिकारों बनाम संरक्षणवादियों के हठ, पर्दे के पीछे सक्रिय कार्पोरेट, निर्माण और निवेश लॉबी, वन प्रशासनिक मशीनरी की सुस्ती और अनदेखी, कार्पोरेट से मिलीभगत, कानूनों के लचीलेपन और सरकारों की उदासीनता का है। 2006 में जब अनुसूचित जनजाति और पारम्परिक वनवासियों के हितों और अधिकारों की सुरक्षा के लिए वन अधिकार अधिनियम लाया गया था। जब यह कानून 2007 में लागू किया गया तो उसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग याचिकाएं डाली गईं।

सुप्रीम कोर्ट भी अपने पूर्व के कुछ फैसलों खासकर 2011 के एक फैसले में आदिवासी समुदायों के उत्पीड़न पर फटकार लगा चुका है और जंगलों पर उनका जायज हक भी मान चुका है। वन अधिकार बिल लाया ही इसलिए गया था कि आदिवासियों के साथ हुए अन्याय को दूर किया जा सके। आदिवासियों की जीविका ही वन उपज पर निर्भर है। राज्य सरकारों ने भी अदालतों में आदिवासी हितों की पैरवी नहीं की। देश में आतंकवाद, नक्सलवाद, बेरोजगारी जैसे इतने बड़े मुद्दे हैं। भीषण कोलाहल में भला आदिवासियों को कोई क्या पूछेगा। पर्यावरण संगठनों की भूमिका को लेकर भी संदेह पनप चुके हैं। वे आदिवासियों के बिना किसी तरह जंगल की वकालत कर रहे हैं।

आदिवासियों का जंगल से जैविक सम्बन्ध है तो फिर जंगल क्यों सिकुड़ रहे हैं। दरअसल वन तस्करों से लेकर लकड़ी, खनन और भूमाफिया सक्रिय है। जंगल साफ हो रहे हैं और जंगलों के मूल निवासी बेदखल किए जा रहे हैं। आदिवासी और जंगल एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां-जहां से आदिवासी उजाड़े गए, वहीं-वहीं नक्सलवाद की नींव पड़ी। सरकारों को कार्पोरेट सैक्टर की मददगार बनने की बजाय आदिवासियों का मददगार बनना चाहिए अन्यथा विस्थापन की समस्या बहुत बढ़ जाएगी। केन्द्र ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल कर दी है जिस पर अभी सुनवाई होनी है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

two × two =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।