हम चाहे हिन्दू हों, मुस्लिम, सिख या ईसाई, बात चाहे मंदिर की हो या मस्जिद की, चर्च या गुरुद्वारे की, बस यही मान कर चलना चाहिए कि सभी आस्था स्थल परम् आदरणीय हैं, जैसा कि "धर्मपुत्र" नामक 1961 की इस पुरानी कव्वाली में कहा गया है, "काबे में रहो या काशी में, मतलब तो उसी की जात से है/ तुम राम कहो कि रहीम कहो, मतलब तो उसी की बात से है/ यह मस्जिद है, वह बुतखाना/ चाहे यह मानो, चाहे वह मानो"!
हालांकि मुस्लिम संप्रदाय ने राम मंदिर के उच्चतम न्यायालय के निर्णय को तसलीम कर लिया है, मगर फिर भी कुछ स्वयंभू नेता मुस्लिमों को भड़काने और भटकाने में लगे हुए हैं, जो कि देश और मुस्लिम संप्रदाय, दोनों के लिए ही अति हानिकारक है। हाल ही में एक मुस्लिम नेता ने फसाद की हवा को फरोग देने के लिए कहा है कि बाबरी मस्जिद का विवाद कभी समाप्त नहीं होगा। इसका अर्थ यह है कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय को नहीं स्वीकारते। चूंकि भारत के संविधान में काफ़ी लचीलापन है इसी की आड़ में आए दिन उसका नाजायज लाभ उठाया जाता है। उक्त नेता यदि ऐसा भड़काऊ बयान पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, चीन, रूस आदि में देते तो सलाखों के पीछे होते। कहने को तो उन्होंने ब्रिटेन से "बार-ऐट-लॉ" को डिग्री ली है, मगर समझ नहीं आता कि वहां के क़ानूनी पाठ्यक्रम में "कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट" (कानून की अवहेलना) की सजा के बारे में सिखाया जाता है कि नहीं।
कुछ इसी प्रकार का भड़काऊ और वैमनस्य फैलाने वाला बयान, असम के मुस्लिम नेता और सांसद, बदरुद्दीन अजमल ने दिया है कि मुस्लिम तबका 20-26 जनवरी तक सफर न करे क्योंकि इस बीच सरकार हिंदू-मुस्लिम फसाद करा कर और राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के दम पर चुनाव जीतना चाहती है। इस प्रकार की विचारधारा न केवल शरजील इमाम की तरह उकसाने व चिकन असम की नेक काटने वाली है, बल्कि आतंकित करने वाली है। अचंभा तो इस बात का है कि वे लोग जो संविधान की कसम खाकर जनता-जनार्दन की सेवा का प्रण लेते हैं और कानून के अधिवक्ता होते हैं, वे बजाय जोड़ने के तोड़ने की और वातावरण को ज़हरीला बना कर, हिंदू-मुस्लिम प्रदूषण पैदा कर आपस में फसाद कराने की आवश्यकता क्यों होती है? क्या वे स्वयं को मुस्लिमों का मुहम्मद अली क्ले और रुस्तम-ए-हिंद बना कर पेश करना चाहते हैं।
इसी प्रकार से मुसलमानों को बरगलाने और दिग भ्रमित करने वाले ख़ुद साख्त एक अन्य नेता, मौलाना तौकीर रज़ा खां, उत्तर प्रदेश से आते हैं और कभी अकबरुद्दीन ओवैसी की तरह कहते हैं कि वे अगर मुस्लिम नौजवानों को इस सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतार दें तो कोहराम मच जाएगा, ईंट से ईंट बजा देंगे, भारत को घुटनों पर ले आएंगे आदि। इसी प्रकार से उन्होंने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर भी जहर उगला है। पहली बात तो यह कि ये लोग राम लला के मंदिर में स्थापित होने खुश होते, चलिए कोई बात नहीं, खुश होने का माद्दा नहीं रखते तो कम से कम खुराफ़ाती बयान तो नहीं देते। तौकीर रज़ा ने कहा कि शंकराचार्य के दिल में काफी पीड़ा है। क्योंकि मजहब के मुताबिक प्राण प्रतिष्ठा का जो मामला है वो शंकराचार्य की जिम्मेदारी है। उनके द्वारा ही राम लला की प्राण प्रतिष्ठा किया जाना चाहिए, मगर मर्यादाओं का उल्लंघन करना नरेंद्र मोदी की पुरानी आदत है। उन्होंने कहा कि अपनी आस्था के अनुसार वे बुलावा मिलने पर भी मंदिर नहीं जा सकते।
इन सब मुस्लिम नेताओं को और उन हिंदू जोशीले नेताओं को भी जो हर मस्जिद, मुस्लिम स्मारक, मकान की खुदाई पर आतुर हैं कि वहां से उन्हें मूर्तियां मिलेंगी और उस स्थान पर वे किसी प्राचीन मंदिर का दावा करते हुए उसे स्वयं अन्यथा कोर्ट द्वारा ध्वस्त करा उसकी प्राण प्रतिष्ठा कर पुनः भव्य मंदिर का निर्माण करेंगे। यदि मुस्लिम दौर में इस प्रकार की कुछ गलत हरकतें हुई होंगी तो उसका खामियाजा मौजूदा दौर के मुसलमान क्यों भुगतें। इसी के कारण काशी और मथुरा की मस्जिदों पर कानून की कटार लटक रही है। आज का मुस्लिम, इस्लामी उसूल, "हुब्बुल वतनी/निस्फुल ईमान" में विश्वास रखता है, अर्थात एक मुस्लिम का आधा ईमान वतन से वफादारी है।
ईमानदारी की बात यह है कि मौजूदा हालात और एक शांत, सभ्य और सौहार्दपूर्ण समाज को मद्देनज़र रखते हुए मुस्लिमों ने हालात से बावजूद इसके समझौता कर लिया कि जहां एक बार मस्जिद होती है, सदा ही वहां कयामत तक सात आसमान पार जन्नत तक मस्जिद ही रहती है। जब मुस्लिम समाज ने कोर्ट के फ़ैसले की आस्था का सम्मान करते हुए सब कुछ अल्लाह पर छोड़ दिया है, तो ये सब लंपटवादी मुस्लिम नेता, चंडूखाने की चिरांद सियासत को क्यों हवा दे रहे हैं। मुसलमान अब एक परिपक्व कौम है और ऐसे जहरीले और भारत में आग लगाने वाली भाषा क्यों बोल रहे हैं।
इस्लाम में यह भी कहा गया है कि किसी भी विवादित स्थान पर मस्जिद नहीं बनाई जा सकती। हज़रत मुहम्मद (सल्लल.) ने तो एक ऐसी मस्जिद की दीवारों को अपने हाथ से ध्वस्त कर दिया था जो इस्लाम के विस्तार के समय नौमुस्लिमों ने किसी की ज़मीन कब्ज़ा कर निर्माण करनी शुरु कर दी थी। सदियों से मुसलमान, बिरादरान-ए-वतन, हिंदुओं के साथ ऐसे रहते चले आए हैं, जैसे दूध के साथ शक्कर, मगर दोनों ओर वोट बैंक की राजनीति करने वालों ने भाईचारे में आग लगाने की ठान रखी है। भारत एक शांति प्रिय देश है और ऐसा प्यारा वतन हमें कहीं नहीं मिलेगा।
– फ़िरोज़ बख्त अहमद