पंजाब की सुध कौन लेगा ?

पंजाब की सुध कौन लेगा ?
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पंजाब में लोकसभा चुनाव इस सप्ताह सम्पन्न हो जाएंगे। कोई जीत जाएगा तो कोई हार जाएगा पर पंजाब वहां का वहां ही रहेगा, एक वह प्रांत जो कभी देश का सबसे प्रसिद्ध प्रांत था पर कई कारणों से पिछड़ता गया। यह भी उल्लेखनीय है कि चुनाव में किसी भी पार्टी ने पंजाब को बर्बादी से बचाने या उसकी प्रगति का कोई बलूप्रिंट लोगों के सामने पेश नहीं किया। सब एक-दूसरे की ग़लतियां निकाल और गालियां देकर काम चलाना चाहते हैं। पंजाब तो हरियाणा और हिमाचल प्रदेश से भी पिछड़ गया। एक समय हम नम्बर 1 ज़रूर थे पर अब हमारी अर्थव्यवस्था 16वें नम्बर पर है। प्रति व्यक्ति आय में हम 19वें स्थान पर हैं। और अभी कोई आशा नज़र नहीं आती कि हमारा टर्न-अबाउट होगा। पंजाब पर क़र्ज़ा 3.20 लाख करोड़ रुपए हो गया है। 2024-25 के अंत तक इसके बढ़ कर 3.74 लाख करोड़ रुपए पहुंचने की सम्भावना है। पर पंजाब का कल्याण करना केवल पंजाब सरकार की ही ज़िम्मेवारी नहीं है चाहे बड़ी ज़िम्मेवारी इनकी बनती है,पर मेरा मानना है कि हम पंजाबी भी भावना में बार-बार बहकर अपना बहुत नुक़सान कर चुके हैं, और कर रहें हैं।

हमारे पास पड़ोसी हिमाचल प्रदेश की मिसाल है जो कभी पंजाब का बड़ा हिस्सा रहा है। अपनी जटिल भूगौलिक स्थिति के बावजूद हिमाचल प्रदेश ने आश्चर्यजनक तरक्की की है। बड़ा कारण है कि लोग झगड़ालू नहीं हंै, शांतिमय है और सारी राजनीति विकासोन्मुख है,चाहे इस बार व्यापक दलबदल की तोहमत लगवा ली है। स्कूल की मांग, स्कूल को अपग्रेड करना, कालेज की मांग, सड़क बनवाना, पुल या डिस्पेंसरी बनवाना या अस्पताल खुलवाना, सारा संवाद और राजनीति इनके इर्द-गिर्द घूमती है। मांगों को लेकर कभी कोई उग्र आंदोलन नहीं हुआ। कभी किसी ने रास्ता नहीं रोका न रेल पटरी पर धरना ही दिया है। न गैंगस्टर ही पैदा किए। न उनके गायक गन संस्कृति को ही बढ़ावा देते हैं या वोडका का गुणगान ही करते हंै। हिमाचल प्रदेश शायद एकमात्र प्रदेश है जिसने कभी देश के लिए कोई समस्या खड़ी नहीं की। परिणाम है कि यह सबसे अग्रणी प्रदेशों में गिना जाता है। अगर पंजाब की तरफ़ नज़र दौड़ाऐं तो यहां नित नया बखेड़ा खड़ा हो रहा है। हम सबसे बेचैन प्रदेश बन चुके हैं लेकिन दूसरों को ज़िम्मेवार ठहराने की जगह क्या हम अन्दर झांकने के लिए तैयार भी हैं? क्या हम खुद तो अपने पांव पर बार-बार कुल्हाड़ी नहीं चला रहे? यह मैं बार-बार उठ रहे किसान आन्दोलन के संदर्भ में कह रहा हूं जिनकी मांगों का सम्बंध दिल्ली से है पर हर बार वह लम्बे समय के लिए अपने लोगों को ही सजा देकर बैठ जाते हैं।

किसानों ने पंजाब के प्रवेश द्वार शम्भू की रेल पटरी पर एक महीने से लगा धरना हटा लिया है। किसान मोर्चे के दौरान हरियाणा सरकार द्वारा गिरफ्तार 3 किसानों की रिहाई को लेकर 17 अप्रैल को धरना शुरू किया था जिस कारण अम्बाला-अमृतसर मुख्य रेल लाईन पर यातायात ठप्प हो गया था। सीधा रूट बंद होने के कारण लोगों को बहुत तकलीफ़ उठाना पड़ी। अनुमान है कि पंजाब को रोज़ाना 800-900 करोड़ रुपए का नुक़सान हो रहा था। इससे न केवल व्यापार को धक्का लगा बल्कि निवेश के लिए नकारात्मक माहौल भी बना। आख़िर कौन उस प्रदेश में निवेश करेगा जहां यह ही मालूम नहीं कि कब सड़क रुक जाएगी या कब पटरी पर धरना लग जाएगा? रेलें रुक जाने के कारण कई व्यापारियों ने पंजाब आना ही बंद कर दिया था। अनिश्चितता का माहौल व्यापार धंधे को ख़त्म कर देता है। पंजाब कच्चे माल के लिए दूसरे प्रदेशों पर निर्भर है। यहां बना 80 प्रतिशत माल दूसरे प्रदेशों में बिकता है या निर्यात होता है। रेल यातायात में विघ्न के कारण न माल ठीक से अंदर ही आ सका न ही ठीक से बाहर ही जा सका। ट्रांसपोर्ट का खर्चा अलग बहुत बढ़ गया। निर्यातक अपने आर्डर नहीं पूरे कर सके। अनुमान है कि निर्यात 40 प्रतिशत कम हो गया। पंजाब में बिजली उत्पादन के लिए कोयला और फसलों के लिए खाद बाहर से आती है, यह सब बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।

और यह सब इसलिए हुआ कि हरियाणा की पुलिस तीन किसानों के गिरफ्तार कर ले गई थी जिस कारण पंजाब के किसानों वे अपने पंजाब को ही ठप्प कर दिया। यह कहां की बुद्धिमत्ता है कि पंजाब के किसानों ने पंजाब के लोगों को ही सजा दे दी गई? क्या किसान नेतृत्व ने सोचना ही बंद कर दिया ? दिल्ली के बाहर 2020-2021 में लगभग एक साल धरना देकर कि इन संगठनों ने अपनी ताक़त का प्रदर्शन दिखा ही दिया था। तब सरकार को आख़िर झुकना पड़ा और तीन क़ानून वापिस लेने पड़े पर पंजाब के व्यापार और उद्योग का भारी नुक्सान हुआ। जो उद्योग पंजाब में लगे हैं वह भी विस्तार प्रदेश से बाहर कर रहे हैं। पंजाब देश के कोने में स्थित है, बंदरगाहें हमारे से बहुत दूर हैं। हमें तो ऐसा वातावरण बनाना चाहिए कि बाहर का व्यक्ति महसूस करें कि निवेश के लिए यह उपयुक्त स्थान है पर किसान संगठनों की ज़िद्द और नासमझी के कारण उल्टा प्रभाव बाहर जा रहा है। किसान संगठन खुद को क़ानून से उपर समझने लगे हैं क्योंकि सरकारें उनसे डरती हैं। किसानों की शिकायतें हैं। एमएसपी बड़ा मुद्दा है। किसान को अपनी फसल का उपयुक्त मूल्य नहीं मिल रहा। किसानों पर भारी क़र्ज़े का मामला है। जिस तरह दिल्ली जाने से उन्हें रोका जाता है वह भी जायज़ नहीं। दिल्ली सबकी है। पर उन्हें किसने यह अधिकार दिया है कि अपनी मांगों को लेकर सारे पंजाब को ही बंद कर दें?

आम पंजाबी, जिनमें किसान और उनके रिश्तेदार भी शामिल हैं, ने तो आपका कोई नुक़सान नहीं किया।रेल और सड़क यातायात ठप्प करने की जगह प्रोटेस्ट के वैकल्पिक ढंग ढूंढे जाने चाहिए। गेहूं की नाड़ को आग लगाई जा रही है उससे वातावरण प्रदूषित हो रहा है। किसान अपनी, अपने परिवार की, गांव की और बाक़ी लोगों की सेहत का भी नुक्सान कर रहे हैं। कई जगह पेड़ सड़ गए हैं, पक्षी झुलस गए, गुजर रहे वाहनों को आग लग चुकी है और चार मौतें हो चुकी हैं। सरकार ज़िला अधिकारियों को आदेश देती है पर किसान परवाह नहीं करते। पंजाब में चुनाव के दौरान कई जगह किसानों ने भाजपा के उम्मीदवारों को प्रचार नहीं करने दिया। प्रधानमंत्री की सभाओं में लोगों के जाने से रोकने का प्रयास किया गया। यह भी जायज़ नहीं है। आप विरोध कर सकते हो, प्रदर्शन कर सकते हो, पर शारीरिक तौर पर किसी को रोकना तो ग़ैर-लोकतांत्रिक है। नया बखेड़ा कांग्रेस के नेता सुखपाल सिंह खैरा ने शुरू कर दिया है कि हिमाचल प्रदेश की तरह पंजाब में भी प्रवासियों को ज़मीन ख़रीदने और वोट डालने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यह एक अत्यंत प्रतिगामी सुझाव है जो नई समस्या खड़ी कर सकता है। पंजाबी और विशेष तौर पर सिख, सारे देश में फैले हुए हैं। वहां सारे अधिकार सबको प्राप्त हैं। दूसरे प्रदेशों में कई पंजाबी विधायक चुने जा चुके हैं पर सुखपाल सिंह खैरा जैसे नेता यहां दूसरों को यह अधिकार नहीं देना चाहते।

प्रवासी वर्कर पर पंजाब खेती और उद्योग दोनों के लिए निर्भर है। उनके बिना पंजाब का पहिया रूक जाएगा। पंजाब की यह भी बड़ी समस्या है कि हमारे पास सही नेता नहीं है जो दूर की सोच सकें। एक लेख में पूर्व वित्तमंत्री मनप्रीत सिंह बादल ने पंजाब का वर्णन तीन शब्दों में किया है,Decline, Despair, Disarray अर्थात् यहां पतन, हताशा, अव्यवस्था है। इसके साथ मैं Disgust भी जोड़ना चाहता हूं उन नेताओं के प्रति जो बार बार पार्टियां छोड़ते हैं। मनप्रीत सिंह बादल को कभी पंजाब की बड़ी आशा समझा जाता था पर वह भी अकाली दल से निकल कर पीपीपी और कांग्रेस से गुजर कर आजकल भाजपा में है। किस पर भरोसा करें हम?

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