लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

सभी चुनाव एक साथ क्यों हों ?

NULL

लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की मांग पहली बार नहीं उठी है और इसकी व्यावहारिकता पर भी पहली बार गौर नहीं किया जा रहा है। इसके साथ ही यह सवाल भी पहली बार खड़ा नहीं हो रहा है कि दोनों चुनावों को एक साथ कराने की पहली शर्त लोकसभा व विधानसभा का कार्यकाल पूरे पांच वर्ष तक बांधने का प्रश्न उठेगा, मगर चुनावों में धन खर्च होने के नाम पर इस सवाल को यदा-कदा बिना इससे जुड़े लोकतान्त्रिक मुद्दों पर गौर किये उठा दिया जाता है। भारत की संघीय व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर विचार किये बिना इस प्रकार के गंभीर सवाल उठाया जाना तब तक तार्किक नहीं कहा जा सकता जब तक कि भारत की बहु राजनीतिक दलीय व्यवस्था के महत्वपूर्ण बिन्दुओं का मनन न कर लिया जाये।

ऊपर से कहने में यह बहुत अच्छा लगता है कि सभी चुनाव एक साथ हों, मगर भारत के महान लोकतन्त्र की आंतरिक बनावट को हम पूरी तरह उधेड़ कर ही इस प्रकार की विचारधारा से प्रभावित हो सकते हैं क्योंकि हमारे लोकतन्त्र में जनता की इच्छा की सर्वोपरि होती है और उसके वोट से ही किसी भी सरकार का गठन होता है, जो सरकार जनता का विश्वास खो देती है उसे एक क्षण भी सत्ता में रहने का अधिकार हमारा संविधान ही इस शर्त पर नहीं देता कि उसकी प्रतिध्वनी स्थापित सदनों में उसके चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा सुनाई देनी चाहिए, इसीलिए समाजवादी चिन्तक और नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जिन्दा कौमें कभी पांच साल तक इंतजार नहीं करती हैं। लोकतन्त्र में अगर किसी सत्ताधारी पार्टी को पांच साल के लिए चुना जाता है तो वह निरंकुश होकर जनता की अपेक्षाओं के खिलाफ भी अपना कार्यकाल पूरा करें। इसके विरोध में ही स्व. जय प्रकाश नारायण ने अपने 1974 में शुरू हुए ऐतिहासित आन्दोलन के तहत यह मांग रखी थी कि जनता को चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए।

उस समय विपक्ष में बैठी जनसंघ पार्टी इस मांग का पुरजोर समर्थन कर रही थी और अन्य विपक्षी दल भी नारेबाजी कर रहे थे, मगर जब यह मांग की जा रही थी तभी इसकी व्यावहारिकता संदिग्ध थी और स्व. मोरारजी देसाई व चौधरी चरण सिंह सरीखे नेता इसके पक्ष में नहीं थे। उनकी राय में इससे अराजकता होने का खतरा पैदा हो सकता था, मगर ये नेता भी इस बात के पक्षधर थे कि राज्यों व लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने का तर्क लोकतन्त्र विरोधी है और राज्यों के अधिकारों पर कुठाराघात है। चुनाव लोकतन्त्र में एसी प्रक्रिया है जिसका दारोमदार आम जनता पर होता है। जनता राजनीतिज्ञों को निर्देश देने का काम करती है तभी तो किसी भी सरकार का गठन जनादेश के अनुरूप होता है। बार-बार चुनाव होना लोकतन्त्र में कोई विसंगति नहीं है बल्कि यह इस व्यवस्था के जीवन्त और चलायमान होने का प्रतीक होती है, क्योंकि ऐसी स्थिति में अन्तिम आदेश जनता का ही चलता है।

चुनावों को खर्चीला बनाने का काम स्वयं राजनीतिक दलों ने किया है और इनकी सत्ता लोलुपता ने किया है। चुनावों में जितनी भी विसंगतियां हैं सभी के जन्मदाता राजनीतिक दल व राजनीतिज्ञ हैं। अत: अपनी कमजोरी को ये देश के लोकतन्त्र को पंगु बना कर नहीं छुपा सकते, दरअसल 1967 में पहली बार नौ राज्यों में कांग्रेस के पराजित हो जाने के बाद बनी संविद या खिचड़ी सरकारों की वजह से यह स्थिति पैदा हुई जिसकी वजह से आज हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं मगर यही तो लोकतन्त्र के परिपक्व होने का सबूत भी है कि जनता की अपेक्षाओं पर खरी न उतरने वाली सरकारें गिरती रहीं और नये चुनाव होते रहे तथा जनता नया जनादेश देती रही। जनादेश से अधूरी सरकार को किस प्रकार पूरे पांच साल तक सत्ता में बने रहने का अधिकार दिया जा सकता है। इसके अलावा भारत एक संघ राज्य है जिसमें प्रत्येक राज्य की अपनी पहचान के साथ ही राजनीतिक, सामाजिक व भौगोलिक परिस्थितयां भिन्न हैं। अत: सभी को एक लकड़ी से हांकने का क्या तर्क केवल यह हो सकता है कि धन की बचत के लिए चुनाव एक साथ करा दिये जाएं। राजनीतिक दलों को चन्दा लेने के लिए पूंजीपतियों के पास जाने को जनता तो नहीं कहती।

विविधता से भरे देश पर हम न तो राजनीतिक एकात्मवाद लाद सकते हैं और न ही व्यावहारिक आचारवाद, ऐसा विचार वाजपेयी, सरकार के सत्ता में रहते गृहमन्त्री पद पर विराजमान लालकृष्ण अडवानी ने भी दिया था, मगर उन्हें अपनी पार्टी तक में समर्थक नहीं मिले थे। मूल प्रश्न यह है कि विधानसभा या लोकसभा का कार्यकाल निश्चित होने के बावजूद इसके पांच साल तक चलने की गारंटी नहीं है क्योंकि इसका फैसला अन्तत: इसमें बैठने वाले जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को ही करना होता है और इनके इस अधिकार को चुनौती देने का अर्थ यही होगा कि उस जनता को चुनौती दी जा रही है जिसके वोट ने उन्हें चुना है। इसके लिए तो भारत के संविधान में ही संशोधन करना होगा और कोई भी ऐसा राजनीतिक दल जिसका बहुदलीय प्रणाली पर भरोसा है ऐसे प्रस्ताव का समर्थन नहीं कर सकता क्योंकि राज्यों के सन्दर्भ में हम जो विभिन्न दलों का वर्चस्व देख रहे हैं वह अपनी मौत स्वयं मर जायेगा। इस तर्क में भी कोई वजन नहीं है कि सरकारें अदलती-बदलती रहें मगर सदन पांच साल से पहले भंग न हो, ऐसी सूरत में तो लोकतन्त्र किसी प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की शक्ल में बदल जायेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

3 × 2 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।