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चुनाव चुनौती क्यों होते हैं?

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भारत की राजनीति किस कदर बदली है कि अब चुनावों में वे आवाजें आनी बन्द हो चुकी हैं जो अब से कुछ दशक पहले तक हर चुनाव क्षेत्र में गूंज-गूंज कर आम जनता को लोकतन्त्र में अपने मूलभूत अधिकारों की याद दिलाया करती थी और राजनैतिक दलों को इस तरह चौकन्ना रखते थे कि उनकी हर सांस जनता की धड़कनों में बहती हवा से ऊपर-नीचे हो। आखिरकार इस बदलाव की वजह क्या हो सकती है ? यह बदलाव क्या भारत की प्राथमिकताएं बदलने से आया है ? दरअसल इसकी वजह भारत की राजनीति के उस कलेवर के बदलने से हुई है जिसने आम मतदाता को पिछले तीस साल से ऐसे तंग सींखचों में बन्द करके केवल अपने समुदाय या जाति अथवा सम्प्रदाय के हितों के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है और राष्ट्रहित को लगातार दूसरे पायदान पर रखने की हिमाकत की है।

बेशक इसकी शुरूआत केवल 11 महीने के प्रधानमन्त्री बने स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग को लागू करके की और लालकृष्ण अडवानी ने अयोध्या में राम मन्दिर आन्दोलन को राजनैतिक रंग देकर की। सामाजिक न्याय और हिन्दूवादी राष्ट्रवाद के इस युद्ध के तुरन्त बाद बने प्रधानमन्त्री स्व. पी.वी. नरसिम्हाराव के समय में इस सामाजिक कलह की चादर में नया आयाम आतंकवाद ने जोड़ा और देखते-देखते ही भारत के सबसे संजीदा राज्य जम्मू-कश्मीर में वह हो गया जिसकी कल्पना कोई कश्मीरी ख्वाब तक में नहीं कर सकता था। कश्मीर की वादी से हिन्दू पंडितों को निकाल बाहर कर दिया गया। अपने ही देश मंे लाखों लोग शरणार्थी बना दिये गये।

इतना ही नहीं नरसिम्हाराव के कार्यकाल में अयोध्या के विवाद को इस तरह सुलगाया गया कि हिन्दू और मुसलमानों में कलह खत्म होने का नाम ही न ले। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जहां के ग्रामीण जनता के बीच जातिगत आधार पर आरक्षण लागू करके उनकी एकात्म कृषि आधारित पेशेवर पहचान को पूरी तरह तोड़ डाला वहीं नरसिम्हाराव ने पूरी अर्थ व्यवस्था के तेवर को बदलते हुए आम आदमी के समग्र विकास का जिम्मा निजी क्षेत्र के हाथ में देने की शुरूआत की। दूसरी तरफ अयोध्या में ढहाई गई बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मन्दिर निर्माण के आन्दोलन के ज्वार ने आम जनता का ध्यान अपने ही मूल मुद्दों से इस तरह हटाया कि राष्ट्रीय विकास और इसकी मजबूती से जुड़े सभी प्रश्न गौण होते गये।

अतः यह बेवजह नहीं है कि पिछले तीस सालों से भारत का कृषि क्षेत्र लावारिसों की तरह पड़ा रहा और इस क्षेत्र से जुड़े लोग जातियों के खाने में सिकुड़ कर सिर्फ आरक्षण की मांग ही करते रहे और इसी के चलते दलित समाज की अथक पैरोकारी करने वाले राजनैतिक दल इस प्रकार उभरे कि उन्होंने वोट बैंक की शक्ल अख्तियार करके सामाजिक न्याय की लड़ाई को ही तिजारत में बदल डाला मगर इस काम मंे इन्होंने बहुत चालाकी से काम लिया और अल्पसंख्यक समाज विशेष रूप से मुसलमानों को अपना आश्रित बना डाला। पिछले तीस वर्षों में भारतीय समाज जिस प्रकार टुकड़ों में बंटा है उतना अंग्रेजों की गुलामी वाले भारत में भी कभी नहीं बंट सका था। भारत को भीतर से कमजोर करने का यह सिलसिला सिर्फ और सिर्फ राजनीतिज्ञों की सत्ता लिप्सा का परिणाम था।

वे बेफिक्र हो गये कि अब मतदाता उन मुद्दों या विषयों की तरफ नहीं सोच पायेगा जिनसे उसका मूलभूत विकास जुड़ा हुआ है। मसलन आर्थिक उधारीकरण ने शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं का इस कदर निजीकरण किया कि चपरासी का बेटा चपरासी ही बने और अफसर का बेटा अफसर। महंगी शिक्षा और महंगी स्वास्थ्य सेवाओं की परवाह किये बगैर मतदाता अपने-अपने दड़बों में कैद हो केवल धर्म, मजहब और जातिगत आरक्षण के मुद्दों तक ही सीमित होता चला गया जिसका सबसे ज्यादा फायदा भारत के बड़े मध्यमवर्गीय बाजार से मुनाफा कमाने वाली निजी पूंजीवादी ताकतों ने उठाया और देखते ही देखते इस व्यवस्था के तहत उन्होंने इसकी 73 प्रतिशत सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया। इन एक प्रतिशत लोगों के कब्जे मंे 2014 तक जहां 2 प्रतिशत सम्पत्ति थी वहीं यह बढ़कर अब 73 प्रतिशत हो चुकी है।

गरीब आदमी का सालभर में एक सौ दिन का रोजगार पाना उसका संवैधानिक अधिकार है और कोई भी सरकार इसके लिए जरूरी धनराशि आवंटित करने से पीछे नहीं हट सकती। लोकतन्त्र हमें यही तो सौगात देता है कि हमें जो भी हक देता है वह संविधान के तहत देता है। बेशक इसमें देरी हो सकती है मगर यह हक किसी हुक्मरान की दया का मोहताज नहीं होता। यह पाठ गांधी बाबा ने ही पं. जवाहर लाल नेहरू को पढ़ाया था। मगर नरसिम्हाराव ने अपने पांच साल के शासन में ही जिस तरह इस मुल्क की आन्तरिक मजबूती को कमजोर करते हुए सामाजिक कलह के कारोबार को हवा देते हुए तिजारिती कारोबार को पाला-पोसा उसकी वजह से ही चुनावों में भारत का आम आदमी मतदाता न रह कर अलग-अलग पहचान में बदलता गया और उसकी जुबान से यह निकलना बन्द होता गया कि ‘‘रोजी-रोटी दे न सके जो, वो सरकार निकम्मी है, जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बदलनी है’’ लोग भूल चुके हैं कि कभी लोकसभा चुनावों के आते ही लोगों के हुजूम यह नारा लगाते हुए कस्बों और शहरों की सड़कों पर घूमा करते थे कि ‘‘हर जौर-जुल्म की टक्कर पर, इंसाफ हमारा नारा है’’ बेशक भारत इन नारों से आगे बढ़ा है और अब मोबाइल फोन और व्हाट्स ऐप पर नये-नये शगूफे सुनने को मिलते रहते हैं मगर क्या बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में आम आदमी की गुरबत में भी कोई बदलाव आया है?

बल्कि उलटा यह हुआ है कि नई शिक्षा प्रणाली ने जन्म से ही अमीर और गरीब को उनकी हालत को बदस्तूर रखने का पुख्ता इन्तजाम कर दिया है। हर सरकारी योजना में जिस तरह निजी कम्पनियों का पेंच फंसाया जा रहा है उससे गरीब आदमी के नाम पर सरकारी खजाने की लूट कानून तौर पर और आसान होती जा रही है। सवाल यह है कि हम अपने देश के विकास में आम आदमी की भूमिका क्या नियत करना चाहते हैं ? हमारा राष्ट्रवाद, गांधीवाद और समाजवाद व साम्यवाद तब दम तोड़ने लगता है जब किसी दलित की बेटी को किसी गांव के खुद को ऊंची जाति के समझने वाले लोग अपनी हवस का शिकार बनाते हैं और अदालतों तक से गवाही के अभाव में बेदाग छूट जाते हैं।

21वीं सदी में मानव पतन का यह दौर निश्चित तौर पर राजनीति ने ही लिखा है। ऐसी राजनीति के होश ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी जाहिर तौर पर राजनीतिज्ञों की नहीं बल्कि मतदाताओं की है। चुनाव इसी वजह से चुनौती होते हैं। भगवान राम से कुछ सीखा जाना है तो राजसत्ता के मद में चूर रावण की बलशाली अस्त्र-शस्त्र सुसज्जित सेना को वानरों व भालुओं (आम आदमी) ने जनसेना से हराने का सबक सीखा जाना है।

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