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राहुल गांधी पर हमला क्यों?

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कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर गुजरात के बाढग़्रस्त क्षेत्रों के दौरान हुआ हमला किसी व्यक्ति पर हुआ हमला नहीं कहा जा सकता बल्कि यह लोकतन्त्र के उस ढांचे पर हमला माना जा सकता है जिस पर इस देश का सम्पूर्ण ढांचा टिका हुआ है। यह ढांचा मतभेद और मतान्तर को लोकशाही में अपने विचारों के लिए जनसमर्थन जुटाने का है, शर्त केवल यह है कि रास्ता पूरी तरह अहिंसक होना चाहिए। इसकी व्यवस्था देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने प्रथम लोकसभा के गठन से पूर्व ही संविधान में पहला संशोधन करके पुख्ता तरीके से कर दी थी और संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर को भी मानना पड़ा था कि विचार स्वतन्त्रता के फेर में वह इस हकीकत को नजरन्दाज कर गये थे कि कोई भी दल अपने विचार विस्तार के लिए हिंसा का प्रयोग नहीं कर सकता। अत: भारत ने जो लोकतन्त्र अपनाया उसकी नींव में अहिंसा को डाल कर पूरा राजनैतिक ढांचा खड़ा किया गया।

हमने राजनीतिक मतभेदों को कभी भी हिंसक नहीं होने देने की कसम उठाई और अपना सफर शुरू किया। उसी का परिणाम है कि आज हम पूरी दुनिया में ऐसे देश के रूप में जाने जाते हैं जिसने अहिंसक क्रान्ति करके सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पर आम आदमी के बैठने का रास्ता तैयार किया। किसी भी देश के इतिहास में यह छोटी उपलब्धि नहीं है, मगर यह भी हकीकत है कि भारत के लोकतन्त्र में ऐसी प्रवृत्तियां रही हैं जिन्होंने हिंसा को लोकतन्त्र के वर्तमान ढांचे के भीतर राजनीतिक मुलम्मा चढ़ाकर जनमत तैयार करने का रास्ता खोजा है और उसे जनाक्रोश के रूप में निरूपित किया है। हमारे लोकतन्त्र का यह सबसे विद्रूप स्वरूप कहा जा सकता है। श्री राहुल गांधी पर गुजरात के बनासकांठा में जिस व्यक्ति या समूह ने भी पत्थर मारा है वह वैचारिक रूप से दिवालियेपन का प्रतिनिधित्व ही करता है क्योंकि राजनीति यदि व्यक्तियों को पत्थर मारने से बदला करती तो भारत में आज सत्ता परिवर्तन न होता।

2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के प्रधानमन्त्री पद के प्रत्याशी श्री नरेन्द्र मोदी की बिहार के एक शहर में होने वाली जनसभा से पूर्व जिस तरह बम विस्फोट किया गया था वह हिंसा से लोकतन्त्र के रास्ते को रोकने का ही एक तरीका था, मगर इसके बावजूद श्री मोदी ने इस जनसभा को सम्बोधित किया था और लोकतन्त्र की नायाब ताकत का इजहार किया था। इसी तरह राहुल गांधी ने बनासकांठा में अपना रास्ता नहीं बदला और वह बाढ़ पीडि़तों की मदद के लिए जो काम करने गये थे वह उन्होंने पूरा किया। साथ ही लोकतन्त्र इतना कमजोर भी नहीं होता कि वह पत्थर मारने जैसी घटनाओं से दम तोड़ दे, बेशक इससे यह जरूर पता चलता है कि पत्थर मारने वाला कितना कमजोर हो चुका है, जो लोग ये सोचते हैं कि ऐसी घटनाओं का भारत के सामान्य लोग संज्ञान नहीं लेते वे पूरी तरह गलती पर हैं। उन्हें जनता के मनोविज्ञान के बारे में गलतफहमी है।

1967 के लोकसभा चुनावों के दौरान इन्दिरा जी की रायबरेली लोकसभा क्षेत्र की जनसभा में उनके राजनीतिक विरोधी ने पत्थर मारने की गलती की थी जिसकी वजह से उनकी नाक पर चोट आयी थी। उनके खिलाफ हिन्दू महासभा के अध्यक्ष सेठ बिशन चन्द सेठ विपक्षी प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ रहे थे। यह इन्दिरा जी का पहला लोकसभा चुनाव था, उस समय तक उनकी छवि एक गूंगी गुडिय़ा की तरह थी हालांकि वह देश की प्रधानमन्त्री थीं। ये चुनाव गैर कांग्रेसवाद के झंडे के नीचे लड़े जा रहे थे, मगर उन पर पत्थर मारने की घटना से विपक्ष का वैचारिक दिवालियापन जाहिर हो गया था और सेठ बिशनचन्द ने इस घटना को लोगों के गुस्से के प्रतिफल के रूप में निरुपित करने का प्रयास किया था। भारत का लोकतन्त्र इतना परिपक्व हो चुका है कि जो भी यहां पत्थर उठाता है वह राजनीतिक बाजी हार जाता है। बिना शक आम जनता को राहुल गांधी का विरोध करने का अधिकार है और उनके मत से असहमत होने का हक है मगर उसका रास्ता पत्थर नहीं हो सकता।

विपक्ष के नेता होने के नाते उन्हें भी उन लोगों के विचार जानने चाहिएं थे जो बनासकांठा में उन्हें काले झंडे दिखा रहे थे बेशक चाहे वे दो-तीन ही क्यों न थे, इससे उनके मदद मिशन को और बल मिलता मगर सार्वजनिक जीवन के दायित्व को पूरा करने के लिए अगर वह बाढ़ पीडि़तों की मदद करने कहीं जाते हैं तो इसमें उनके राजनीतिक विरोधियों को क्या आपत्ति हो सकती है। इसी प्रकार देश के विभिन्न राज्यों में बाढ़ पीडि़तों की मदद यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता पूरे मन से कर रहे हैं तो कांग्रेस का क्या विरोध हो सकता है। दोनों की वैचारिक लड़ाई से इसका क्या लेना-देना हो सकता है लेकिन हर बात को गुजरात के राज्यसभा चुनाव से जोड़कर देखना मतिभ्रम के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। गजब की दलील है कि राहुल गांधी ने राज्य सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई बुलेट प्रूफ कार क्यों नहीं ली। इसका पत्थर मारने वाले के दिमाग से क्या सम्बन्ध हो सकता है। उसमें बैठने से क्या राहुल गांधी बदल जाते?

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