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बैलेट पेपर प्रणाली जरूरी क्यों ?

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चुनावों में ईवीएम मशीन के स्थान पर बैलेट पेपर प्रयोग करने के विषय को हम ज्यादा दिनों तक नहीं टाल सकते हैं क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध आम मतदाता के उस सार्वभौमिक अधिकार से है जो उसे संविधान यह कहकर देता है कि अपनी पसन्द का निर्णय करते समय कोई भी तीसरा पक्ष उसके बीच में नहीं आ सकता। ईवीएम मशीन पर बटन दबाते समय उसका फैसला इस मशीन की प्रामाणिक दक्षता पर निर्भर करता है जिससे प्रत्यक्ष रूप से फैसला मतदाता का होने बावजूद नतीजा मशीन पर निर्भर करता है। यह आश्चर्य का विषय है कि अभी तक विभिन्न राजनीतिक दलों में एक से बढ़कर एक कानूनी दिमाग होने के बावजूद इस मुद्दे को क्यों नहीं उठाया गया और संवैधानिक प्रारूप की व्याख्या क्यों नहीं की गई। चुनाव आयोग पूरे देश को विश्वास दिलाता है कि प्रत्येक मतदाता को निर्भय व बिना किसी लालच के अपना मत निडर होकर देने की वह गारंटी देता है मगर स्वयं उसने ही एेसी व्यवस्था पिछले लगभग 20 वर्षों से जारी कर रखी है जिसमें फैसला मतदाता के हाथ में न होकर मशीन के हाथ में होता है।

सवाल यह नहीं है कि चुनाव आयोग अपनी मशीनों की खुली जांच का निमन्त्रण विभिन्न राजनीतिक दलों को दे चुका है और वे अपने मुआयने में कोई खास त्रुटी नहीं निकाल पाए हैं। सवाल यह भी नहीं है कि इन मशीनों के साथ वीबीपैट मशीन जोड़कर मतदाताओं को अपने दिये गये वोट की तसदीक करने की व्यवस्था भी की गई है, बल्कि असली और मूल सवाल यह है कि मतदाता और उसकी पसन्द के बीच में किसी तीसरे पक्ष की भूमिका किस तरह जायज ठहराई जा सकती है क्यों​िक मुख्य ईवीएम मशीन से लेकर वीबीपैट उपकरण की कार्य प्रणाली व उसकी तकनीक पर उसका कोई अधिकार नहीं है? यह मामला किसी भी नजर या कानूनी नुक्ते से राजनीतिक दलों या सत्तारूढ़ सरकार से जुड़ा नहीं हुआ है। इसका सीधा सम्बन्ध चुनाव आयोग व आम मतदाता से है। आयोग को भारत में 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू करते हुए बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने स्वतन्त्र व स्वायत्तशासी संवैधानिक दर्जा देते हुए घोषणा की थी कि भारत का लोकतन्त्र चार खम्भों पर टिका होगा और वे होंगे विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका व चुनाव आयोग।

इनमें भी लोकतन्त्र को पूरी तरह जनोन्मुख बनाये रखने की प्राथमिक जिम्मेदारी चुनाव आयोग की होगी क्योंकि वही तय करेगा कि हर वयस्क मतदाता बिना किसी डर के अपना मत अपनी मनपसन्द के प्रत्याशी अथवा राजनीतिक दल के नुमाइन्दे को देकर मनमाफिक सरकार का गठन करे। यह कार्य बिना किसी तीसरी शक्ति (भौतिक व सांकेतिक) के बीच में आये हुए ही किया जाएगा। अतः स्पष्ट है कि ईवीएम मशीनों को इसे लागू करने की प्रक्रिया के बीच में लाकर हमने मतदाता के उस पवित्र अधिकार को प्रभावित करने की कोशिश की है जो प्रभावी रूप से ईवीएम मशीन को स्थानान्तरित हो जाता है। पहली नजर में मशीनों का चुनाव प्रणाली में परिचय इसी नुक्ते से खारिज हो जाना चाहिए था परन्तु यह फैसला स्व. राजीव गांधी की केन्द्र में सरकार रहते हुए किया गया था अतः 2014 तक सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस पार्टी इस तरफ से गफलत में रही और ढीलाढाला रुख अख्तियार करती रही जबकि विपक्ष में बैठी भाजपा इस मुद्दे पर आक्रमणकारी तेवर अख्तियार किये रही किन्तु इस मुद्दे का सरकार से लेना-देना न तब था और न आज है।

इसका लेना-देना केवल चुनाव आयोग से है और उसकी अपनी स्वतन्त्र सत्ता और संवैधानिक जिम्मेदारियों से है। यदि पूरे देश में किसी एक मतदान केन्द्र पर भी ईवीएम मशीन में गड़बड़ी पाई जाती है या मतदाता द्वारा की गई पसन्द के विपरीत उसका मत किसी दूसरे दल या प्रत्याशी को जाता है तो पूरी चुनाव प्रणाली दूषित हो जाती है और उसकी विश्वसनीयता पर पुख्ता शक खड़ा हो जाता है जिससे हरेक मतदाता के मन में संशय पैदा हो जाता है। इसकी एकमात्र वजह यही होती है कि उसके फैसले और परिणाम के बीच में कोई तीसरा पक्ष अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहा है। यह पूरी तरह असंवैधानिक है। चुनाव आयोग इस जिद पर अड़े नहीं रह सकता कि वह अपनी मशीनों को लागू करने के फैसले को चारों तरफ से सुरक्षित और चौक-चौबन्द करने की कोशिश कर रहा है। आखिरकार उसे अपने हर फैसले को लागू करने के लिए सरकारी मदद और सुविधाओं पर ही निर्भर करना पड़ता है। जिसका ताजा उदाहरण यह है कि जब आयोग ने केन्द्र सरकार से बीवीपैट मशीनें खरीदने के ​लिए कहा तो उसे पहला उत्तर यह मिला कि वह किसी निजी कम्पनी से ये उपकरण खरीद ले।

हालांकि इसे आयोग ने स्वीकार नहीं किया जबकि इन्हें खरीदने लिए तीन हजार करोड़ रु. की धनराशि सरकार ने आयोग को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के कई वर्ष बाद काफी हील-हुज्जत के बाद उपलब्ध कराई थी। इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि सरकार आयोग के उस स्वतन्त्र कार्यकलाप में व्यवधान पैदा कर सकती है जिसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध मतदाता की पसन्द से है परन्तु इसके ​िलए किसी भी सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि मतदान प्रणाली में ईवीएम मशीनों का प्रवेश उसकी अनुमति के बिना नहीं किया जा सकता था। उसने इन मशीनों का परिचय मतदान केन्द्रों पर उस दौर में किया जबकि अमरीका, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे अग्रणी लोकतान्त्रिक देश इसे नकार चुके थे और बैलेट पेपर के माध्यम से अपने यहां चुनाव करा रहे थे। राजनीतिक दलों का इस मामले में एक-दूसरे पर आरोप लगाना कोई खास मायने नहीं रखता क्योंकि आयोग अपना फैसला लेने में स्वतन्त्र है। इस मुद्दे पर किसी भी सत्ताधारी दल द्वारा चुनाव आयोग के हक में उतर जाना भी पूरी तरह अनावश्यक, गैर-तार्किक है क्योंकि उसे सत्ता पर मशीनें नहीं बल्कि मतदाता बिठाते हैं।

यह फैसला चुनाव आयोग को ही करना है कि उसकी स्थापित व्यवस्था में मतदाताओं का एेसा स्थिर विश्वास हो कि एक भी मतदाता यह न कह सके कि उसकी पसन्द को किसी भी स्तर पर और किसी माध्यम से बदलने की लेशमात्र कोशिश हुई है। जहां तक बैलेट प्रणाली में मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने अथवा बूथ छापने का सम्बन्ध है उसका ईवीएम मशीन से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि जिन्हें वोटों की लूटमार करनी है उन्होंने दूसरे रास्ते निकाल लिए हैं। जिसका प्रमाण कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनावों में एक घर में दस हजार वोटिंग कार्डों का मिलना है। मतदान केन्द्रों पर कब्जे का सम्बन्ध राज्य की कानून-व्यवस्था और वहां की उस समय की काबिज सरकार की नीयत से होता है जो ईवीएम मशीनों के चलते भी संभव हो सकता है। मुख्य सवाल तो मतदान केन्द्र में दिये गए वोट की प्रामाणिकता का है जिसमें गैर-कानूनी रास्ते अख्तियार किये बिना ही मतदाता के फैसले को बदलने की आशंकाएं पैदा हो गई हैं और आम लोगों में भ्रम का वातावरण हर चुनाव परिणाम के बाद फैलाया जा रहा है। अतः कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम आने से पहले ही इस विषय पर चुनाव आयोग व सरकार का ध्यान खींचने की कोशिश की गई है। चुनाव आयोग के इस मामले में जिद पर अड़ने की कोई वजह नहीं है और मशीनों पर धन खर्च होने का का तर्क देने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि जितना धन मशीन से बैलेट पेपर प्रणाली पर लौटने में खर्च होगा उससे ज्यादा धन तो अकेला नीरव मोदी ही सरकारी बैंकों का हड़प करके विदेशों में रंगरलियां मना रहा है !

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