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एनआरसी पर क्यों उलझे ?

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर जिस तरह सत्ता और विपक्ष ने पूरी प्रणाली और प्रक्रिया को लेकर भारी भ्रम का वातावरण बनाते हुए सामाजिक क्लेश व साम्प्रदायिक भेदभाव को जन्म दिया है

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर जिस तरह सत्ता और विपक्ष ने पूरी प्रणाली और प्रक्रिया को लेकर भारी भ्रम का वातावरण बनाते हुए सामाजिक क्लेश व साम्प्रदायिक भेदभाव को जन्म दिया है उससे संविधान के उस प्रावधान का ही खून होता लगता है जो प्रत्येक नागरिक को राष्ट्रीय पहचान पत्र रखने का अधिकार देता है और केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी तय करता है कि वह प्रत्येक नागरिक को उसके भारतीय होने की पहचान देगी। भारत के 1955 में बने नागरिकता कानून के 14-ए नियम के अनुसार केन्द्र सरकार प्रत्येक नागरिक का पंजीकरण करके उसे राष्ट्रीय पहचान पत्र देगी। दूसरे केन्द्र सरकार भारतीय नागरिकों का रजिस्टर तैयार कर सकती है परन्तु पूरे विषय को जिस तरह सिर के बल खड़ा करने का काम हुआ है उससे भारी गफलत का माहौल पैदा हो गया है और समाज के एक वर्ग को लग रहा है कि इसके नाम पर उसके साथ भेदभाव हो सकता है। 
इस स्थिति के लिए वह संशोधित नागरिकता कानून जिम्मेदार माना जा सकता है जिसमें तीन देशों पाकिस्तान, बंगलादेश व अफगानिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता उनकी धार्मिक पहचान देख कर दी जायेगी। इससे एनआरसी की प्रणालीगत प्रक्रिया को लेकर संशय पैदा हो गया है जिसका असर नागरिक पंजीकरण रजिस्टर (एनपीआर) पर भी पड़ता दिखाई पड़ रहा है,किन्तु एनपीआर को लेकर किसी भी प्रकार का संशय उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें भारत में रहने वाली जनसंख्या का ही पंजीकरण होगा। इसके साथ ही भारत में मतदाता सूची भी है और आधार कार्ड भी है। यदि आधार कार्ड धारकों की संख्या से मतदाता संख्या घटा दी जाये तो हमें बहुत आसानी से पता चल सकता है कि कुल कितने भारतीय ऐसे हैं जो एनआरसी में दर्ज होंगे। इसके बावजूद नागरिकता कानून केन्द्र सरकार को अधिकार देता है कि वह राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाना चाहे तो बना सकती है और बाद में प्रत्येक नागरिक को राष्ट्रीय पहचान पत्र दे सकती है। 
जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने की प्रणाली के तहत  उन संदिग्ध नागरिकों का ब्यौरा भी सरकार के पास आ सकता है जो नागरिकता की शर्तों को तोड़ कर भारत में रह रहे हैं। जाहिर है कि भारत में 1949 से रहने वाले किसी भी व्यक्ति को इससे डरने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके पुरखों या स्वयं उसका जन्म 1947 में हुए भारत के बंटवारे से पहले ब्रिटिश इंडिया में कहां  हुआ था। आज के पाकिस्तान इलाके में जन्मे डा. मनमोहन सिंह व इन्द्रकुमार गुजराल भारत के प्रधानमन्त्री और लालकृष्ण अडवानी उप-प्रधानमन्त्री रह चुके हैं। 
अतः स्वतन्त्रता के बाद भारत में रहने वाले हर हिन्दू-मुसलमान को राष्ट्रीय पहचान पत्र देना ही होगा परन्तु इस मुद्दे पर जिस तरह का विवाद पैदा हो गया है उसी की वजह से भारी राजनीति भी शुरू हो गई है परन्तु इसका सम्बन्ध हिन्दू या मुस्लिम जनसंख्या के भेदभाव से करना पूरी तरह गलत व मूर्खतापूर्ण है क्योंकि आधार कार्ड व मतदाता कार्ड बनाने का कार्य केन्द्र की सरकार ने ही किया है और इनके माध्यम से स्वयं सरकार ही इन्हें अपनी विभिन्न मदद योजनाओं का अंग बनाये हुए है। यदि इनमें से एक भी व्यक्ति भारतीय व्यक्ति नहीं है तो स्वयं सरकार पर ही यह दोष आता है कि वह उन लोगों को ही संवैधानिक अधिकार दे बैठी जो असंवैधानिक हैं। 
मतदान का अधिकार केवल संवैधानिक रूप से भारतीय नागरिक को ही दिया जा सकता है। वोट का अधिकार मूल अधिकार नहीं है बल्कि संवैधानिक अधिकार है और यह अधिकार सरकार ही देती है। चुनाव आयोग जो स्वयं स्वतन्त्र संवैधानिक संस्था है संविधान से शक्ति लेकर ही वैध नागरिकों को मत डालने का अधिकार देता है। तर्क दिया जा सकता है कि सरकार किसी व्यक्ति की नागरिकता संदिग्ध पाये जाने पर वोट का अधिकार निरस्त कर सकती है, क्योंकि नागरिकता सिद्ध करने की जिम्मेदारी सरकार पर नहीं बल्कि व्यक्ति पर होती है। असम के सन्दर्भ में इसे उलट कर  जिम्मेदारी सरकार पर डाल दी गई थी जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध करार दे दिया था।  
एनआरसी के सम्बन्ध में यह आशंका भी खड़ी की जा रही है जिसका निवारण सरकार को ही करना होगा और इस काम में राज्य सरकारों की सहमति के बिना केन्द्र सरकार कुछ नहीं कर सकती क्योंकि अवैध नागरिकों की पहचान का काम इन्हीं सरकारों का प्रशासनिक अमला करेगा। अतः केन्द्रीय कानून मन्त्री रवि शंकर प्रसाद का यह मत स्वागत योग्य है कि एनआरसी की प्रक्रिया के बारे में केन्द्र पहले राज्य सरकारों से राय-मशविरा करेगा। दरअसल यह प्रश्न इतना उलझा हुआ नहीं है जितना बना दिया गया है। हम टैक्नोलोजी के युग में जी रहे हैं। अतः इस काम में भी टैक्नोलोजी का प्रयोग कर सकते हैं। बहुत सीधी सी टैक्नोलोजी है कि जब हम गरीबों के करोड़ों की संख्या में जनधन बैंक खाते खुलवा सकते हैं, आधार कार्ड बना सकते हैं, मतदाता कार्ड बना सकते हैं और 100 करोड़ से ऊपर मोबाइल फोन  पहचान को जानकर ही दे सकते हैं तो क्यों नहीं नागरिकता की पहचान इसी डाटा का वर्गीकरण करके कर सकते।

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