फिल्मों को लेकर विवाद कोई नई बात नहीं। कभी फिल्म के नाम को लेकर, कभी आपत्तिजनक संवादों को लेकर, कभी धर्म को लेकर विवाद उठते रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि धार्मिक और राजनीतिक दल फिल्मों में भी हिन्दू-मुस्लिम ढूंढ लेते हैं। कभी कोई संगठन आपत्ति करता है आैर सड़कों पर उतरकर बवाल मचा देता है। मामले अदालतों तक पहुंचते हैं। अजय देवगन की फिल्म ‘शिवाय’, सलमान की फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ पर कई संगठनों ने आपत्ति की थी। लोगों का कहना था कि फिल्म के नाम में बजरंगी के साथ भाईजान क्यों लगाया गया? बजरंगी मतलब हनुमान जी होते हैं तो उनके साथ भाईजान क्यों लगाया गया? फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर भी बवाल इतना मचा था कि इस फिल्म को विवादों का कोपभाजन बनना पड़ा।
इस देश में ऐतिहासिक फिल्मों को लेकर जितना होहल्ला मचता रहता है, ऐसा किसी अन्य देश में नहीं देखा जाता। ‘बाजीराव मस्तानी’ में दिखाए गए नृत्य ‘पिंगा’ काे लेकर काफी आलोचना हुई थी। बाजीराव पेशवा की दूसरी पत्नी को नर्तकी के रूप में पेश किये जाने पर आपत्ति उठाई गई थी। नया विवाद फिल्म ‘केदारनाथ’ को लेकर खड़ा किया गया है और कुछ संगठनों ने आरोप लगाया कि यह फिल्म लव जेहाद को प्रोत्साहित करती है इसलिए इस फिल्म का प्रदर्शन रोका जाए। फिल्म एक मुस्लिम पिट्ठू और एक पुजारी की बेटी की प्रेमकथा है। साधारण सी कहानी को केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा की पृष्ठभूमि में रचा गया है। केदारनाथ फिल्म के खिलाफ दायर जनहित याचिका हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी।
याचिकादाता ने फिल्म मेें हिन्दू धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। याचिका में कहा गया था कि फिल्म में केदारनाथ मंदिर पिरसर में बोल्ड किसिंग सीन आैर लव जेहाद जैसे दृश्य फिल्माए गए हैं। अदालत ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि आपत्तिजनक दृश्य का मामला सेंसर बोर्ड का अधिकार है, वहीं शांति व्यवस्था सरकार या जिले में डीएम के जिम्मे है। ऐसी किसी परिस्थिति में सरकार अथवा उसके नुमाइंदे बतौर डीएम फैसला ले सकते हैं। अदालत ने यह टिप्पणी भी की है कि जनता चाहे तो यह फिल्म नहीं देखे।
फिर उत्तराखंड सरकार ने एक समिति बनाई और तय किया गया कि फिल्म केदारनाथ को प्रतिबंधित कर दिया जाए। हिन्दू संगठन ने फिल्म निर्माता पर आरोप लगाया कि भगवान केदारनाथ का अपमान करते हुए विदेशी मदद से फिल्म बनाई गई है। यह फिल्म हिन्दुओं आैर पहाड़ की आस्था के साथ भद्दा मजाक है। फिल्म में दिखाया गया है कि केदारनाथ में सैकड़ों मुसलमान रहते हैं आैर मंदिर में नमाज पढ़ रहे हैं जबकि मंदिर या उसके आसपास एक भी मुस्लिम परिवार या व्यक्ति नहीं रहता।
समाज में अलग-अलग धर्मों के युवक-युवतियों के बीच शादियां भी आज हो रही हैं। हिन्दू-मुस्लिम जोड़े भी खुशी से जीवन बिता रहे हैं, कभी-कभी जरूर विवाद उठ खड़े होते हैं। जाति-धर्म के रूढ़िवादी संस्कारों में बंधे लोग बवाल खड़ा करते हैं। अगर एक फिल्म में हिन्दू युवती का मुस्लिम युवक से प्रेम दिखा दिया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा, यह समझ से बाहर है। फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड बना हुआ है। जब एक बार सेंसर बोर्ड फिल्म को सर्टिफिकेट दे देता है तो फिर फिल्मों पर विवाद खड़ा किया जाना ही नहीं चाहिए। अगर फिल्मों का प्रदर्शन प्रतिबंधित किया जाता है तो फिल्म सेंसर बोर्ड के गठन का कोई औचित्य ही नहीं बचता। फिर तो सेंसर बोर्ड को ही भंग कर देना चाहिए। हैरानी की बात तो यह है कि दक्षिण भारत की अभिनेत्री िप्रया प्रकाश की एक फिल्म के गाने में भी लोगों ने हिन्दू-मुस्लिम को ढूंढ लिया था। इस गाने में िप्रया आंख मारती हुई नजर आ रही है। इसे धर्म के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। कुछ धार्मिक संगठनों ने इस पर भी आपत्ति जताई थी और कहा था कि यह इस्लाम के खिलाफ है।
अब तो हर ऐतिहासिक फिल्म पर विवाद खड़ा होने लगा है। विवादों पर गौर करें तो ऐतिहासिक प्रतीकों, तथ्याें, विषयों पर जब भी फिल्में बनी हैं तो किसी पर कम तो किसी पर ज्यादा विवाद हुआ। वर्ष 1941 में पृथ्वीराज कपूर के अभिनय में सिकन्दर फिल्म बनी थी जिसमें ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगा था, हालांकि तत्समय सिनेमा विधा की उम्र बहुत कच्ची थी। 1857 की क्रांति के नायक मंगल पांडे पर बनी फिल्म में क्रांतिकारी काे एक कोठे पर जाता दिखाया गया तो जबर्दस्त विरोध हुआ। विरोध का ताप इतना था कि सेंसर बोर्ड की कैंची चल गई। जोधा अकबर को क्षत्रिय समाज का कोप झेलना पड़ा। इसमें कोई संदेह नहीं कि फिल्मकारों ने मुनाफे के चक्कर में इतिहास से छेड़छाड़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिल्मकारों का तर्क है कि फिल्म एक अलग माध्यम है और इसमें बदलाव करना जरूरी होता है।
सिनेमा मनोरंजन का जरिया है, अगर निर्माता-निर्देशक थोड़ी कल्पना की मदद लेते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं। हॉलीवुड में कुछ वर्ष पहले मेलगिव्सन ने ईसा मसीह पर फिल्म बनाई थी, उसे लेकर विवाद हुए लेकिन किसी ने फिल्म पर पाबंदी लगाने, उसका प्रदर्शन रोकने या थियेटर पर हमले का प्रयास नहीं किया। ईश्वर विषयक या इतिहास आधारित ढेरों फिल्में हॉलीवुड में बनती हैं, जिन्हें लेकर विवाद भी होते हैं लेकिन उन विवादों का जवाब तर्कों और तथ्यों से दिया जाता है, हिंसा के जरिये नहीं। यह सही है कि भारत और विदेशों की संस्कृति में अंतर है। फिल्मकारों को भी चाहिए कि वे जनभावनाओं का ख्याल रखें। बॉलीवुड फिल्मों के साथ शायद आज हॉलीवुड की तरह संवाद की स्वस्थ परम्परा बनाने की जरूरत है। यह संवाद कायम करने की जिम्मेदारी फिल्म निर्देशकों आैर समाज की है। एक फिल्म से ‘लव जेहाद’ को बढ़ावा मिलेगा, ऐसी कोई आशंका नहीं है।