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नसीरुद्दीन को गुस्सा क्यों आया?

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विख्यात फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह को जब गुस्सा आता है तो सवाल उठता है कि समाज और फिल्मी दुनिया के बीच का फासला क्या है ? जब फिल्म अभिनेत्री सायराबानो बिस्तर पर लेटे अपने पति अजीम फनकार दिलीप कुमार की सम्पत्ति को भू-माफिया द्वारा हड़पने की साजिश की फरियाद मुल्क के वजीरे आजम से करती हैं तो सवाल उठता है कि हिन्दोस्तान का मुस्तबकिल क्या है? क्या हमारी पहचान को आने वाली पीढि़यां यह देखकर पहचानेंगी कि हम कितने हिन्दू थे या मुसलमान या ये देखकर अपना माथा फख्र से ऊंचा रखेंगी कि हम कितने हिन्दोस्तानी या भारतीय थे? आने वाली पीढि़यां यह जरूर गौर करेंगी कि जिस हिन्दोस्तान को अंग्रेजों के जबड़ों से बाहर खींच कर आजादी के परवानों ने अपनी अगली पीढ़ी को सौंपते हुए यह कसम खाई थी कि इस मुल्क का ईमान सिर्फ इंसानियत ही रहेगा और हर धर्म के मानने वाले को अपनी रवायतों पर अमल करने की आजादी होगी तो आज ऐसा माहौल क्यों बन रहा है कि इंसान की जान को सियासी शतरंज का मोहरा बनाकर जानवरों के आगे डाला जा रहा है और उस पर मजहब का मुलम्मा चढ़ाया जा रहा है।

हम क्यों भूल जाते हैं कि महात्मा गांधी को किसी मुसलमान ने नहीं बल्कि हिन्दू ने ही शहीद किया था। नफरत न हिन्दू को कुछ समझती है न मुसलमान को बल्कि यह केवल इंसान को ही अपना दुश्मन मानती है और इंसानियत को जमींदोज करके मुल्क के मुल्क तबाही के अंगार में फेंक देती है। जिस तरह आज सीरिया से लेकर यमन और कुछ दूसरे देशों में हो रहा है। इन मुल्कों में इस्लामी कट्टरपंथ के नाम पर कत्लोगारत का जो बाजार गर्म है उसके पीछे सिर्फ नफरत है जिसे मजहब का चोला पहना दिया गया है। हिन्दोस्तान में इसकी पलट को किसी कीमत पर कबूल नहीं किया जा सकता क्योंकि हजारों साल से यह देश इंसानी रसूख को सबसे ऊपर रखकर चलता रहा है जिसका सबूत दक्षिण की द्रविड़ सभ्यता और उत्तर की मिश्रित आर्य सभ्यता रही है।

किसी विशेष धर्म से इस देश की पहचान कभी नहीं रही क्योंकि इसी की सर जमीन पर पूरे दक्षिण एशिया में फैलने वाले बौद्ध धर्म ने जन्म लिया जिसने इंसानियत को ही अपनी जमीन बनाकर अपने वक्त की सभी तहजीबों को झिंझोड़ डाला। इसी मुल्क में दुनिया के दूसरे धर्मों को फलने-फूलने के मौके हर दौर में दिये गये। भारत की इस चौतरफा बिखराव में फैली अलग-अलग तहजीबों का गुलदस्ता जब बना तो उसने अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी को खत्म कर डाला मगर जाते-जाते अंग्रेजों ने एक नासूर हिन्दोस्तान को बांट कर ही पाकिस्तान की शक्ल में पैदा कर दिया मगर 1947 में भी नफरतों के सौदागरों ने ही इस मुल्क की गैरत का सौदा अंग्रेजों से किया था क्योंकि उन्होंने सदियों से चली आ रही इसकी इंसानी रसूख की रवादारी की तहजीब को मजहब की दीवारों से बांट डाला था मगर जो काम नफरत के सौदागर भी नहीं कर सके वह हिन्दोस्तान की रगों में दाैड़ता दयानतदारी की फनकारी का वह लहू था जिसका कायल खुद मुहम्मद अली जिन्ना को होना पड़ा था। यह बेवजह नहीं था कि इस मुल्क की मिट्टी में खुद का निहां होने का सपना देखने वाले मुसलमानों की तादाद नया मुल्क बने पाकिस्तान से ज्यादा थी।

ये मुसलमान वे थे जिन्होंने भारत को अपना वतन किसी डर से नहीं बल्कि डंके की चोट पर कबूल किया था और ऐलान किया था कि अपने बुजुर्गों की चौखट पर सजदा करते हुए ही उनका दम निकलेगा। इसलिए हिन्दोस्तान के किसी भी हिस्से में अगर 21वीं सदी के इस मुकाम पर मुल्क के हालात पर नसीरुद्दीन शाह को गुस्सा आता है तो सबसे पहले हर हिन्दू को सोचना पड़ेगा कि कौन हैं वे लोग जो उनकी हस्ती का नजराना नफरत के शैतान को पेश करना चाहते हैं। बुलंदशहर में जो भी पिछले दिनों घटा वह हिन्दोस्तान के माथे पर कलंक की मानिन्द तब तक चस्पा रहेगा जब तक कि पुलिस अफसर सुबोध कुमार सिंह के हत्यारों को पकड़कर कानून इंसाफ नहीं करता।

यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इंसानियत को कत्ल करने की साजिशें रचना सियासतदांओं की फितरत हो सकती है मगर इस मुल्क के लोगों की यह जहनियत कभी नहीं रही है। सियासतदां जब किसी पुलिस अफसर को दिनदहाड़े कत्ल किये जाने को हादसा बताता है तो वह तभी से रहजनों का खैरख्वाह बनकर रहबरों को बेआबरू कर देता है और सही बात कहने पर अगर किसी मुसलमान को कोई भी आदमी पाकिस्तान जाने की धमकी देता है तो वह मुल्क की वफादारी का मतलब नहीं समझता। क्या आखिरी मुगल शहंशाह बहादुर शाह जफर की वफादारी की तस्दीक करने की हिम्मत किसी हिन्दोस्तानी में है ? नसीरुद्दीन शाह के भाई भारतीय सेना से ही लेफ्टिनेंट जनरल के पद से रिटायर हुए हैं।

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