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हिंसा क्यों हुई, ममता दें जवाब

प. बंगाल में चुनाव परिणाम आने के बाद जिस प्रकार राजनीतिक हिंसक घटनाएं हुई हैं उनकी भारत के लोकतन्त्र में कोई जगह नहीं है

प. बंगाल में चुनाव परिणाम आने के बाद जिस प्रकार राजनीतिक  हिंसक घटनाएं हुई हैं उनकी भारत के लोकतन्त्र में कोई जगह नहीं है परन्तु ममता दीदी के तीसरी बार मुख्यमन्त्री पद की शपथ लेने के बाद अपेक्षा की जानी चाहिए कि प. बंगाल प्रदेश अपनी सर्वग्राही संस्कृति और राजनीतिक तीक्षण्ता के आलोक में ऐसी घटनाओं को अक्षम्य करार देते हुए सम्पूर्ण शान्ति के माहौल में अपने विकास के लिए अग्रसर होगा। निश्चित रूप से यह जिम्मेदारी हाल के चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने वाली ममता दी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी की ही होगी कि वह राजनीतिक समरसता का माहौल तैयार करे। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने जिस तरह भाजपा कार्यकर्ताओं व इस पार्टी के कार्यालयों पर हमला किया है उससे अभी तक एक दर्जन लोगों की जानें जा चुकी हैं। यह पूरी तरह तृणमूल को कठघरे में खड़ा करने की स्थिति है। इसका उत्तर ममता दी को देना ही होगा परन्तु इसके साथ ही हमें इस तथ्य पर भी गौर करना होगा कि चुनावी दौर में प. बंगाल के सामाजिक व राजनीतिक वातावरण में जो जहर घोला गया है उससे इस प्रदेश की लहलाती हरी-भरी  जमीन में एेसी ‘खरपतवार’ भी पैदा हो गई है जिसने इसके सामाजिक माहौल में नफरत का ‘बैक्टीरिया’ छोड़ दिया है। ममता दी का पहला दायित्व यही होगा कि वह इस बैक्टीरिया का जड़-मूल से विनाश करें और प. बंगाल को उसका वह रुतबा बख्शें जिसके लिए इसकी संस्कृति भारतीय उपमहाद्वीप का ‘कोहेनूर’  समझी जाती है। अगर ममता ने राजनीतिक हिंसा करने वालों पर नकेल नहीं कसी तो उन्हें जवाब देना ही पड़ेगा। 
यही वह संस्कृति है जिसने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र ‘बांग्लादेश’ में बदला था। प. बंगाल के मतदाताओं ने चुनावों में अपना जो जनादेश दिया है वह तृणमूल कांग्रेस को जीत का जोश दिखाने के लिए  नहीं बल्कि ‘विजय’ से ‘विनम्र’ होने के लिए दिया है जिससे ममता दी राज्य की जनता की सेवा और अधिक तन्मयता से कर सकें। इसके साथ ही मतदाताओं ने भाजपा काे जो पराजित किया है वह उसे दंडित करने के लिए नहीं बल्कि सबक सिखाने के लिए किया है कि वह बंगाल की संस्कृति के अनुरूप अपने राजनीतिक विचारों और कार्यप्रणाली में संशोधन करे। यह पक्के तौर पर विचारों की लड़ाई थी जिसमें तृणमूल कांग्रेस ने बाजी मारी है। इसमें हिंसा बीच में कहां आती है? जाहिर है जिन लोगों पर हिंसा फैलाने के आरोप लग रहे हैं उनका उद्देश्य इस वैचारिक लड़ाई को शारीरिक लड़ाई में बदलने का है जिससे राज्य में कानून- व्यवस्था की समस्या पैदा हो सके। बंगाल की धरती  राजनीतिक सिद्धान्तों की प्रयोगशाला इस प्रकार रही है कि इसमें लगातार 34 साल तक कम्युनिस्ट पार्टियां शासन करती रही हैं परन्तु इसके मूल में गांधीवाद की अविरल धारा ही बहती रही है जिसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इसी धरती के महान स्वतन्त्रता सेनानी और क्रान्तिकारी योद्धा ‘नेता जी सुभाषचन्द्र बोस’ ने ही महात्मा गांधी को पहली बार ‘राष्ट्रपिता’ की उपाधि से तब विभूषित किया था जब उन्होंने अपनी आजाद हिन्द सरकार के रेडियो से भारतवासियों को सन्देश दिया था। चुनावों में हार- जीत का अर्थ हारे हुए पक्ष को डराने या धमकाने का नहीं होता है बल्कि उसका इस तथ्य के लिए सम्मान करने का होता है कि जनता का एक हिस्सा उसे भी वरीयता देता है। मगर हमें इसके साथ यह भी देखना होता है कि लोकतन्त्र के मालिक आम मतदाताओं के दिल में एक-दूसरे के प्रति हिंसा या घृणा का भाव स्थिर रूप बना कर न बैठ जाये। क्योंकि जनता के दिल में जब एक-दूसरे के प्रति हिंसा या नफरत का भाव जम जाता है तो ‘गणतन्त्र’ दम तोड़ने लगता है। इस सम्बन्ध में महान दार्शनिक ‘एडमंड बुर्के’ के इन शब्दों को याद रखना बहुत जरूरी है कि ‘लोगों के दिलों में हिंसा और नफरत को भर कर किसी भी गणतन्त्र को सफल नहीं बनाया जा सकता’। अतः गणतन्त्र की सफलता की पहली गारंटी यही है कि साम्प्रदायिक या धर्म के आधार पर तो दूर राजनीतिक झुकाव के आधार पर भी लोग एक-दूसरे से नफरत न करें और हिंसा की बात तक न सोचें। 
प. बंगाल में चुनाव बाद की हिंसा का मतलब यही है कि हम गणतन्त्र के मानकों को दरकिनार करके  लोकतन्त्र की दुहाई दे रहे हैं। अब यह ममता दी का दायित्व बनता है कि वह ऐसे लोगों को सबक सिखायें और कानून का राज स्थापित करें। राजनीतिक पार्टियों का भी यह दायित्व बनता है कि वे अपने कार्यकर्ताओं को जीत को ‘जज्ब’ करने और हार की झुंझलाहट पर ‘सब्र’ करने की नसीहत दें। हिंसा में सबसे पहले किसी इंसान की ही जान जाती है। प. बंगाल के सन्दर्भ में एक बात और बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है कि यहां की चुनी हुई सरकार को संविधान के अनुसार ही काम करना चाहिए और सभी संवैधानिक संस्थाओं और पदों पर आसीन व्यक्तियों को अपनी गरिमा के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। अब जबकि जनता का स्पष्ट जनादेश आ चुका है तो प्रशासनिक व राजनीतिक शिष्टाचार का पूरी तरह पालन होना चाहिए। 
हमारी प्रणाली में मुख्यमन्त्री और राज्यपाल की भूमिकाएं पूरी तरह स्पष्ट हैं। चुनाव से पहले की तरह राज्य में राज्यपाल व मुख्यमन्त्री के बीच किसी प्रकार की चक-चक नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर जो भी दोषारोपण करते हैं उनसे संवैधानिक पदों पर विराजमान व्यक्तियों को दूरी बनाये रखनी चाहिए लेकिन ममता दी का यह दायित्व बनता है कि वह अपनी पार्टी पर हिंसा के लगे आरोपों पर ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ जल्दी से जल्दी से करें और सिद्ध करें कि वह तृणमूल कांग्रेस की मुख्यमन्त्री नहीं बल्कि हर बंगाली की मुख्यमन्त्री हैं। क्योंकि यह भी कम विस्मयकारी नहीं है कि लोगों द्वारा उन्हें सत्ता सौंपे जाने के बाद उन्हीं की पार्टी के लोग उनकी बनने वाली सरकार को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं।

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