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बकरीद पर विवाद क्यों?

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आज ईद-उल-जुहा अर्थातï ‘बकरीद’ है जिसे कुर्बानी का दिन माना जाता है। इस्लाम धर्म में कुर्बानी का अर्थ अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु को अल्लाह की राह में कुर्बान करने से है। अत: हिन्दुओं को इस पर्व को इसी नजर से देखना चाहिए और मुस्लिम भाइयों का एहतराम करना चाहिए। मजहबी रवायतों के अनुसार इस दिन बकरे की कुर्बानी देकर मुसलमान अपनी मुरादें पूरी करते हैं परन्तु इससे वातावरण से लेकर सामाजिक सौहार्द का भी सीधा सम्बन्ध है जिसकी वजह से बकरीद विवाद का विषय बनती जा रही है। पशु प्रेमी इसे अनुचित मानते हैं और बेजुबान पशुओं पर अत्याचार बताते हैं जबकि मुस्लिम धर्म गुरु इसे हर मुसलमान का धार्मिक कत्र्तव्य कहते हैं। दरअसल मजहब में प्रतीकों के माध्यम से खुदा या ईश्वर की साधना करने को जरिया बनाया जाता है जिससे व्यक्ति अच्छे मार्ग पर चल सके। इन प्रतीकों में बदलते समय में परिवर्तन भी होता रहा है।

हिन्दुओं में भी ऐसी परंपराएं रही हैं जो समय के अनुसार बदलती रही हैं। यदि हम मुसलमानों के सबसे बड़े धार्मिक देश सऊदी अरब को ही लें तो वहां घर में कुर्बानी देने पर प्रतिबन्ध है और प्रत्येक व्यक्ति को चिन्हित जिबेहखानों में ही जाकर यह कार्य करना पड़ता है। इसका उस देश की भौगोलिक परिस्थितियों के साथ ही सार्वजनिक तौर पर साफ-सफाई से भी लेना-देना है मगर भारत में कुछ आधुनिक मुसलमानों ने मुहिम छेड़ी है कि बकरीद पर बजाय बकरे के प्रतीकात्मक रूप में केक आदि काटकर यह पर्व मनाया जाये। यह भी हो सकता है कि बकरे की शक्ल में चाकलेट व अन्य खाद्य पदार्थों से बनी वस्तुओं की कुर्बानी दी जाये। इसे एक सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता मगर किसी भी मुसलमान पर लादा नहीं जा सकता।

अपने धर्म की रवायतों का पालन करने का उसे तब तक अधिकार है जब तक कि उसके धर्म के भीतर से पुरानी चली आ रही रवायतों में सुधार करने का आन्दोलन शुरू न हो और धार्मिक गुरु ही यह घोषित न करें कि जीते-जागते बकरे की जगह वे उसके भौतिक प्रतिरूप की भी कुर्बानी दे सकते हैं। आखिरकार जिस धरती पर लाखों बकरों की कुर्बानी एक ही दिन में की जाती है उसमें भी तो उनके खून को जज्ब करने की ताकत होनी चाहिए और इस तरह होनी चाहिए कि उसका दुष्प्रभाव दूसरे लोगों के स्वास्थ्य पर न पड़े। अन्त में तो सभी हिन्दू-मुसलमानों को इसी धरती पर रहना है जिसका स्वस्थ रहना उनके स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है। जो लोग बकरीद को अहिंसक तरीके से मनाने की पैरवी कर रहे हैं वे मजहब में दखलंदाजी न दें और मेरी राय में उनकी मंशा भी ऐसी नहीं है क्योंकि वे केवल आधुनिक समय की जरूरतों की तरफ इशारा कर रहे हैं।

आज हिन्दोस्तान में कितने हिन्दू हैं जो चोटी और जनेऊ को धारण करते हैं मगर इसके बावजूद उन्हें हिन्दू कहने से कोई नहीं रोक सकता। इस्लाम तो मजलूमों का मजहब है और मानता है कि खुदा की बारगाह में न कोई अमीर है न गरीब सभी बराबर हैं। अल्लाह उन सभी को अपनी पनाह में लेता है जो उसके बताये रास्ते पर चलते हैं तो फिर गरीब मुसलमानों के लिए यह क्यों जरूरी है कि वे तभी मुसलमान कहलाये जायेंगे जब बकरीद पर बकरे की कुर्बानी देंगे चाहे इसके लिए उनकी जेब में पैसे हों या न हों। मुस्लिम धर्म गुरुओं को त्यौहारों के इस आर्थिक पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए मगर इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि मुस्लिमों का विरोध किया जाये या उनकी धार्मिक मान्यताओं को नकारा जाये बल्कि इसका सबब यही है कि मजहबी रवायतों को बदलते समय के अनुसार समझा जाये और उन पर अमल किया जाये जो लोग इस बहाने हिन्दू-मुसलमानों के बीच वैमनस्य पैदा करना चाहते हैं वे इस हकीकत को नहीं जानते कि खुद हिन्दू धर्म के भीतर भी बलि देने की प्रथा थी मगर इसे धर्म के भीतर से ही संशोधित किया गया।

मांसाहारी हिन्दुओं में भी कम नहीं हैं अत: इसे खान-पान से जोडऩा भी उचित नहीं है और राजनीति की गुंजाइश जरा भी नहीं है क्योंकि भारत के मुसलमानों की देश के ऊपर कुर्बानियां किसी भी सूरत में कमतर नहीं रही हैं। भारत के प्रथम शिक्षामन्त्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने ही पं. नेहरू के साथ मिलकर भारत में अत्याधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति की नींव रखी थी और टैक्नोलोजी संस्थानों से लेकर सांस्कृतिक परिषद जैसे संस्थानों को खड़ा किया था जबकि वह स्वयं मदरसे में पढ़े थे। इस देश की सांस्कृतिक विरासत से लेकर संगीत की धरोहर तक मुस्लिम जोगियों और संगीतकारों के हाथों में सुरक्षित रही है।

भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वह है जिसमें देव प्रतिमाओं से लेकर उनके शृंगार तक की सामग्री मुसलमान तैयार करते हैं और यहां तक कि अयोध्या में भगवान राम के मन्दिरों में पुष्प पहुंचाने की जिम्मेदारी भी इन्हीं मुसलमान नागरिकों ने ली हुई है। अत: सबसे पहले हमें सोचना चाहिए कि हम किस दुराव की बातें करते हैं। यह देश रसखान से लेकर अब्दुरर्रहीम खाने खाना का है। रहीम के बारे में गोस्वामी तुलसी दास ने लिखा था, ईद और दीपावली का इससे बड़ा प्रतीकात्मक संगम देखने को नहीं मिल सकता।

सीखी कहां नवाब जू ऐसी देनी देन,
ज्यों-ज्यों कर ऊंचे करो त्यों-त्यों नीचे नैन।

इसके जवाब में गोस्वामी जी द्वारा भेजे गये एक याचक की झोली अशरफियों से भरते हुए रहीम ने जवाब दिया था-

देनहार कोई और है, भेजत है दिन-रैन,
लोग भरम हम पर धरें तासे नीचे नैन।

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