जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने के बाद जारी किए गए नक्शों पर पाकिस्तान और चीन ने तो आपत्ति दर्ज कराई थी लेकन अब भारत के पड़ोसी देश नेपाल ने भी इन नक्शों पर आपत्ति दर्ज कराई है। नेपाल का कहना है कि नक्शे में उत्तराखंड और नेपाल के बीच स्थित कालापानी और लिपु लेख इलाकों को भारत के नक्शे के अन्दर दिखाया गया है, यह इलाके नेपाल के हैं। दूसरी ओर भारत के विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि हमारे नक्शों में भारत के सम्प्रभु क्षेत्र का सटीक चित्रण है और पड़ोसी देशों के साथ सीमा को संशोधित नहीं किया गया है।
नेपाल का दावा है कि कालापानी और लिपु लेख उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी से एक समझौते के तहत हासिल किया था। भारत ने 1962 में चीन से हुए युद्ध के बाद अपनी सभी सीमा चौकियों को नेपाल के उत्तरी बैल्ट से हटा लिया था लेकिन कालापानी से नहीं। लिपु लेख को लेकर 2014 में विवाद उस समय शुरू हुआ था और जब भारत और चीन ने नेपाल के दावे का विरोध करते हुए लिपु लेख के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार गलियारे का निर्माण करने पर सहमति जताई थी। नेपाल ने यह मुद्दा चीन और भारत से उठाया था लेकिन इस पर कभी चर्चा नहीं हो सकी।
अंग्रेज तो भारत छोड़ गए लेकिन देश के लिए समस्याएं भी छोड़ गए। भारत चीन के साथ सीमा विवाद में अभी तक उलझा हुआ है और अब नेपाल भी गुर्राने लगा है। वैसे तो भारत और नेपाल के रिश्ते बड़े भाई और छोटे भाई जैसे हैं। 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ था तब भी नेपाल पूरी तरह तटस्थ रहा था। नेपाल के गोरखा भारत की तरफ से चीन के खिलाफ लड़ रहे थे। 1962 के बाद दारचूला के पास कालापानी जगह को लेकर भारत और नेपाल के बीच विवाद हुआ था। नेपाल इस क्षेत्र पर अपना दावा जताता है लेकिन वहां भारतीय सैनिक तैनात हैं।
कभी वो दिन थे जब नेपाल में राजा को हिन्दू देवी-देवताओं की तरह पूजा जाता था। राजा को विष्णु का अवतार समझा जाता था और उनके दर्शन के लिए आम लोगों की वैसे ही लम्बी कतारें लगती थीं जैसे किसी बड़ी मान्यता वाले देवी-देवताओं के मंदिर में लगती हैं। 28 मई, 2008 को नेपाल के इतिहास के एक युग का अंत हो गया और दुनिया के नक्शे से एक मात्र हिन्दू राष्ट्र का इतिहास किस्से कहानियों में बदल गया। हालांकि भारत के एक बड़े तबके में एक मात्र हिन्दू राजशाही के अंत को लेकर कसक जरूर मौजूद है। मगर एक जीवंत लोकतंत्र के स्वामी होने के नाते भारत के लिए यह खुशी की ही बात थी कि पड़ोस में एक अाम जनता द्वारा चुने हुए प्रजातंत्र की मौजूदगी रहे।
बंदूक से निकली क्रांति के बाद नेपाल में राजनीतिक परिवर्तन होते रहे। राजनीतिक अस्थिरता का लम्बा दौर चला। एक तरह से राजनीतिक शून्यता की स्थिति पैदा हो गई। नेपाल में जब संक्रमण काल चल रहा था तो चीन एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर उभरा। इससे पहले चीन की कभी नेपाल में रुचि नहीं थी। नेपाल अपनी जरूरतों के लिए भारत पर निर्भर रहा, जब नेपाली संविधान आ रहा था तब जिस पार्टी को भारत के सहयोग से नेपाल की सत्ता मिली थी, उसी ने कहना शुरू किया कि भारत उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है। उन्होंने भारत विराेध रुख अपना लिया। तब से नेपाल में भारत विरोधी भावनाएं जोर पकड़ने लगी।
नेपाल में भूकम्प के बाद शुरू हुई आर्थिक नाकेबंदी के दौरान स्थिति बिगड़ गई। नेपाल की आम जनता भी भारत को संदेह की दृष्टि से देखने लगी। इस दौरान चीन ने काफी सक्रियता दिखाई। उसने नेपाल की मदद की, कोयला दिया, ऊर्जा दी। चीन ने नेपाल में जमकर निवेश किया। चीन नेपाल तक अपनी सड़कें और ट्रेन ले आया। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नेपाल से संबंधों को मजबूत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन पुराने राजनीतिक नेतृत्व की गलतियों के चलते नेपाल अब पूरी तरह चीन की गोद में जा बैठा। नेपाल अब भारत से ज्यादा चीन पर निर्भर है। ऐसे में कोई संदेह नहीं कि नेपाल का नेतृत्व चीन जैसी भाषा ही बोलेगा।
नेपाल ने स्वयं भारत सरकार के सामने अपना पक्ष रखते हए कालापानी को विवादित इलाका माना है और उसने कहा है कि वह इसे द्विपक्षीय रूप से हल करना चाहता है। नेपाल ऐतिहासिक दस्तावेजों और सबूतों के आधार पर राजनीतिक मुद्दे को हल करना चाहता है। भारत ने भी कहा है कि नेपाल के साथ सीमा परिसीमन की कवायद मौजूदा तंत्र के तहत चल रही है। भारत मैत्रीपूर्ण द्विपक्षीय संबंधों के साथ बातचीत के माध्यम से समाधान खोजने के लिए प्रतिबद्ध है। नेपाल को भी चाहिए कि वह कोई तनाव पैदा करने की बजाय बातचीत का समाधान निकाले। दोनों देशों को अपने अतीत के संबंधों को याद रखना होगा।