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चीन पर भरोसा क्यों करते?

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राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी सरगना मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का दहशतगर्द घोषित करने के प्रयासों पर चीन ने एक बार फिर पानी फेर कर साबित कर दिया है कि भारत के साथ उसके सम्बन्ध पाकिस्तान के सापेक्ष रखकर ही देखे जायेंगे। इससे यह भी साबित होता है कि चीन को भारत की परवाह उसी हद तक है जिस हद तक उसके और पाकिस्तान के सम्बन्ध प्रभावित न हों जबकि चीन भारत का ऐसा पड़ौसी देश है जिसके तार सदियों पुराने हैं। पिछले दिनों जब चीन में ही भारत, रूस व उसके विदेश मन्त्रियों की बैठक हुई थी तो उससे ही जाहिर हो गया था कि चीन आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान का बचाव करने की किसी भी सीमा तक जा सकता है परन्तु नई दिल्ली में बैठे हमारे कूटनीतिज्ञों को न जाने कौन सा जोश चढ़ रहा था कि उन्होंने तीनों देशों द्वारा जारी संयुक्त बयान का मतलब भारतीय पक्ष के हक में निकाल कर बांस पर चढ़कर शोर मचाना शुरू कर दिया।

दुनिया का कोई भी देश सार्वजनिक रूप से आतंकवाद का समर्थन नहीं कर सकता, यहां तक कि पाकिस्तान भी खुद इसके खिलाफ शोर मचाता रहता है और खुद को इसका शिकार बताने में लफ्फाजी की हदें तोड़ देता है। इस संयुक्त बयान में पाकिस्तान का नाम नहीं लिखा गया था और आतंकवाद के विरुद्ध प्रयास करने की वकालत की गई थी जबकि दुनिया की सबसे खतरनाक दहशतगर्द तंजीमें पाकिस्तान में ही मौजूद हैं। यह बयान तो ऐसा था जिस पर यदि पाकिस्तान से भी दस्तखत करने को कहा जाता तो वह भी खुशी-खुशी कर देता मगर न जाने नई दिल्ली को क्या खुमारी थी कि वह इसी बयान पर जश्न मनाने लगी। दरअसल चीन ने उसी समय संकेत दे दिया था कि वह पाकिस्तान के मामले पर नहीं झुकेगा और उसे अपनी पनाह में लिये रखेगा। यह बैठक विगत 27 फरवरी को हुई थी जबकि जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में दहशतगर्द हमला 14 फरवरी को अंजाम दिया गया था जिसमें हमारे 40 सैनिक शहीद हो गये थे।

पुलवामा हमले की जिम्मेदारी मसूद अजहर की तंजीम जैश-ए-मोहम्मद ने इसे अपना कारनामा बताते हुए ली थी। इसके बावजूद भारत, रूस व चीन के संयुक्त बयान में पाकिस्तान का नाम न आना यह बताता था कि भारत पूरी कोशिश के बावजूद चीन को पाकिस्तान को दहशतगर्दों की पनाहगाह होने के सबूतों से मुत्तासिर नहीं कर पा रहा है। रूस का भी ठंडा रुख हमारे लिए चिन्ता तो पैदा करने वाला था मगर इस देश के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने बाद में हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को फोन करके पुलवामा हमले की निन्दा की और दुःख जताया। फ्रांस ने बेशक पुलवामा हमले पर सख्त रुख अपनाया और कहा कि वह जैश के सरगना मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय दहशतगर्द घोषित करने के लिए सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव लायेगा जिसका समर्थन बाद में अमेरिका व ब्रिटेन ने किया।

सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन व चीन में से तीन तो खुलकर इस प्रस्ताव के पक्ष में थे मगर चीन की मंशा तो हमें 27 फरवरी को ही मालूम हो गई थी और हम जानते थे कि इन पांच देशों में से किसी एक की भी ‘वीटो’ पावर पूरे प्रस्ताव को पटरी से उतार देगी। अतः यह उम्मीद भी रखना कि चीन हमारे साथ आ सकता है, अंधेरे में लाठी घुमाने से ज्यादा और कुछ नहीं था बल्कि उल्टा हुआ यह कि पाकिस्तान ने दुनिया को दिखाने के लिए खुद ही आतंकवादी शिविरों को उजाड़ने का नाटक करना शुरू कर दिया।

ऐसा उसने खासतौर पर अमेरिका के दबाव में किया जिससे उसका रुख कुछ नरम हो सके। हम अगर यह मानकर बैठ गये हैं कि अमेरिका हमारा गहरा मित्र हो गया है तो यह कोरा भ्रम होगा क्योंकि अमेरिका हमारा तभी तक मित्र है जब तक कि चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने में उसे हमारी जरूरत है और चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर जो रास्ता निकाला है उसमें अवरोध पैदा करने के हमने सभी रास्ते इस प्रकार बन्द कर लिये हैं कि हम दोनों महाशक्तियों की रस्साकशी का नजारा देखते भर रहें। कोई नहीं जानता कि अमेरिका का दिमाग किस दिन फिर जाये और वह फिर से पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद में कटौती को बहाल कर डाले क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप में पिछले सत्तर सालों से पाकिस्तान को खड़ा करने में अमेरिका की ही ताकत है और इस तरह है कि इसने दोनों भारत-पाक युद्धों में खुलकर पाकिस्तान की मदद की है।

फिलहाल उसे भारत की तरफदारी में अपना फायदा इसलिए नजर आ रहा है कि दक्षिण चीन सागर इलाके से लेकर अरब सागर तक में यह भारत को अपने साथ लेकर चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने में प्रभावी पाता है जबकि चीन के लिए पाकिस्तान न केवल समुद्री रास्तों से बल्कि जमीनी रास्तों से भी आगे बढ़ने की राह खोज रहा है। चीन की ‘सीपेक’(चायना-पाकिस्तान इकोनामिक कारीडोर) ऐसी ही परियोजना है जिस पर 62 अरब डालर खर्च करके सड़क मार्ग से कम से कम उन 44 देशों तक अपनी पकड़ बना सकता है जो चारों तरफ से जमीन से ही घिरे हुए हैं मगर यह कारीडोर हमारे ही उस कश्मीर से होकर गुजरेगा जो पाकिस्तान के कब्जे में है। इस परियोजना के जरिये चीन ने पाकिस्तान को ऐसा सब्जबाग दिखा डाला है कि अब इस देश में चीनी मुद्रा धड़ल्ले से चल रही है लेकिन दूसरी तरफ अमेरिका के लिए भी पाकिस्तान जरूरत बना हुआ है क्योंकि उसने अफगानिस्तान में जो अपना पैर फंसाया था वह पाकिस्तान के बूते पर ही अड़ाया था और 1980 में अफगानिस्तान में रूस के प्रभाव की सरकारों का तख्ता पलट कराने के लिए ‘तालिबानों’ को पैदा किया था।

इन तालिबानों ने अमेरिका से मिली आर्थिक मदद के बूते पर ही अपनी पनाहगाह पाकिस्तान को बना डाला और पाकिस्तान ने इनका इस्तेमाल हमारे कश्मीर में करना शुरू कर दिया। उधर पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी फौजें अपनी परियोजना की सफलता के लिए डेरा डाले पड़ी हैं। इसलिए हमें सोचना है कि हम उस चीन को किस तरह रास्ते पर लाएं जिसने हमारी अर्थव्यवस्था को चौपट करके रख दिया है और उसके साथ हमारा 60 अरब डालर का वार्षिक व्यापार घाटा है। हालत यह है कि ‘होली’ की ‘पिचकारी’ से लेकर ‘दिवाली’ के लक्ष्मी-गणेश जी भी ‘मेड इन चायना’ ही आने लगे हैं। इसलिए बहुत कठिन है डगर पनघट की, मगर हमने खुद ही यह रास्ता चुना है।

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