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चुनावी मुद्रा में भारत क्यों?

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ठिठुरकर छोटा हुआ संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त हो गया है और एेसा लग रहा है कि भारत अभी से नये लोकसभा चुनावों की मुद्रा में प्रवेश कर गया है। तिरुवनन्तपुरम् से लेकर कश्मीर तक पूरे मुल्क में अजब का जलजला आया हुआ है जिसमें सिर्फ सामाजिक असन्तोष की गर्द उड़ती सी दिखाई पड़ रही है इस कलह में हम अपनी आर्थिक संपुष्टता को दरकिनार करते जा रहे हैं। इस अफरातफरी में पता ही नहीं चल रहा है कि हम दो सौ साल पीछे के कालचक्र में प्रवेश कर गये हैं अथवा 21वीं सदी के नये दौर में भाग रहे हैं। हम बीते हुए कल को कोसते भी जा रहे हैं और उसी कल के शिलाखंडों में अपना गौरव भी तलाश कर रहे हैं। यह विकट विरोधाभासी स्थिति है। हम 1947 के भारत विभाजन की परिस्थितियों को दुर्भाग्य भी मानते हैं और फिर से वैसी ही परिस्थितियों के निर्माण में योगदान भी कर रहे हैं। यह एेसे भटकाव की निशानी है जिसका परिणाम आने वाली पीढि़यों को भुगतना पड़ सकता है। निश्चित रूप से यह राजनैतिक दिशा भ्रम का एेसा संकटकालीन समय है जिसकी तरफ 26 नवम्बर 1949 को भारत का संविधान लिखने वाले बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने इशारा किया था और कहा था कि जिस प्रजातन्त्र की संसदीय प्रणाली को हम अपनाने जा रहे हैं उसकी सार्थकता इस तथ्य में छुपी हुई है कि भारत के दबे और कुचले हुए लोगों का सम्पूर्ण सशक्तीकरण इस तरह से किया जाये कि समाज को उनकी आर्थिक ताकत का भी एहसास होने लगे। इसके बिना आजादी अधूरी मानी जायेगी। राजनैतिक आजादी तभी कारगर हो सकती है जब आर्थिक आजादी भी इसके समानान्तर ही विकसित हो।

यह तथ्य है कि आजादी की लड़ाई लड़ने वालाें में जितने भी नेता थे शैक्षिक रूप से बाबा साहेब उनमें सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे थे। बैरिस्टर होने के साथ-साथ वह अर्थ शास्त्र में पीएचडी भी थे अतः जब उन्होंने ‘औद्योगीकरण’ का समर्थन किया तो स्पष्ट था कि वह सैद्धांतिक रूप से ‘मार्क्सवाद’ की वकालत कर रहे थे और जब उन्होंने सामाजिक भेदभाव मिटाने का संघर्ष छेड़ा तो वह ‘समाजवाद’ का समर्थन कर रहे थे और जब उन्होंने जम्मू-कश्मीर राज्ये की विशेष शर्तों पर भारतीय संघ में विलय का विरोध किया तो वह ‘राष्ट्रवाद’ का समर्थन कर रहे थे। अतः बहुत आसानी से समझा जा सकता है कि बाबा साहेब ने हमें जो संविधान दिया वह पूर्ण रूप से भारतीयता के विभिन्न आयामों का समावेश था और किसी भी ‘वाद’ से परे था। बाबा साहेब के इस विराट बौद्धिक पटल को इस हकीकत से समझा जा सकता है। संविधान सभा की अन्तिम बैठक में वन्दे मातरम् गीत के प्रथम दो पदों को जब राष्ट्र गीत का दर्जा दिया गया तो बाबा साहेब ने इसे स्वतन्त्रता संग्राम के यशोगान के रूप में लिया तथा इसे जरूरी नहीं बनाया लेकिन आज लगता है कि हम हर बात पर झगड़ा करना चाहते हैं और अपने उस स्वरूप को भूल जाना चाहते हैं जिससे यह भारत देश बना है। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि दलितों को सदियों से दबाकर उन्हें संस्कारविहीन बना कर रखा गया और उन्हें शिक्षा के अधिकार तक से वंचित कर दिया गया।

मुझे याद है कि पिछले प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह जब औहदे पर रहते हुए लन्दन गये थे और वहां के आक्सफोर्ड विश्व विद्यालय में उन्होंने यह कह दिया था कि अंग्रेजों ने भारत को कुछ दिया भी है तो भारत में कोहराम मच गया था और उनसे जवाबतलबी होने लगी थी मगर हकीकत यह है कि हजारों सालों से गुलामी और जुल्मों की बेड़ियों में बन्धे हुए दलितों को शिक्षा का अधिकार अंग्रेजों ने 1861 के बाद ही दिया था। इससे पहले बेशक छत्रपति शिवाजी महाराज और सम्भाजी महाराज के शासन में दलितों को फौज में काम करने का अधिकार दिया गया मगर हिन्दू समाज उन्हें लगातार शिक्षा से वंचित रखे रहा।

यह भी हकीकत है कि बाबा साहेब और के.आर. नारायणन जैसे लोगों को सत्ता से बाहर बैठकर ही पढ़ना पड़ा था क्योंकि हिन्दू समाज इसे सहन करने को तैयार नहीं था। हम कहां भटक रहे हैं इसे हमें समझना होगा। आजादी के 70 साल बाद भी अगर हम दलितों को उनके कदीमी पेशे से नहीं छुटा सके हैं तो इसमें दोष किसका है? हमारा मन्त्र सर्वे भवन्तु सुखिनः का रहा है। हमारी पहचान विचारों की विभिन्नता और वैविध्यता रही है। संसद इसका सबसे बड़ा प्रतीक बनी क्योंकि इसमें सभी वर्गों, धर्मों व सम्प्रदायों के लोग चुनकर आते हैं। हम संसद के विराट स्वरूप को तब पहचानने में भूलकर जाते हैं जब इसमें बहुमत और अल्पमत का भेद विचारों को भूलकर करने लगते हैं। इस बात पर गौर करने की जरूरत इसलिए है क्योंकि हम लोकतन्त्र की संरचना में लोकरंजक भाव की अवहेलना करने लगे हैं। चुनावों का महत्व केवल सरकार बनाने तक सीमित नहीं है बल्कि लोकरंजक पक्ष की अभिव्यक्ति की उद्घोषणा भी है। यह हमें समझने की जरूरत है।

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