सीने में जलन, आंखों में चुभन,
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है…
जब से दिल्ली में रह रहे हैं इतना परेशान मैंने आम जनता को कभी नहीं देखा जितना इस साल देख रही हूं। कहीं कोई आर्थिक रूप से दु:खी तो कोई किसी तरह दु:खी। हर साल नवम्बर के महीने में फसल कटने के बाद धान की पराली जलाई जाती है, घुटन तो हर साल होती है परन्तु इस साल तो इतनी अधिक है कि मुझे भी आंखों की समस्या आ गई। प्रदूषण पूरे विश्व की एक बड़ी समस्या है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग को लेकर बड़े-बड़े देश सक्रिय हैं परन्तु महज गिनती के राज्यों-पंजाब, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण को लेकर एक-दूसरे पर दोषारोपण की एक परम्परा हमारे राजनीतिक सिस्टम में स्थापित हो गई है। अस्पतालों में भीड़ बढ़ रही है, पूरा शहर चेहरे पर मास्क लगाकर घूम रहा है। सवाल पैदा होता है कि इस हालात के लिए कौन जिम्मेवार है? सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दे रखा है कि फसल के बाद धान की पराली जलाई नहीं जा सकती क्योंकि उसका धुआं आसमान में जाने की बजाए दस-बीस-पचास मीटर तक की ऊंचाई पर फैलता है। प्रदूषणयुक्त यह स्मॉक भारी होने की वजह से ऊपर नहीं जा सकता। इतना ही नहीं हर नवंबर के महीने में वायु का दबाव उत्तर भारत में घट जाता है। सर्दियों में यह स्वाभाविक है, लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से सटे गांवों में नहीं किया जाता तो फिर प्रशासनिक व्यवस्था पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
स्कूलों में छुट्टी कर देना या ऑड-ईवन दुबारा से चालू कर देने से क्या दिल्ली का प्रदूषण खत्म हो जाएगा? कभी नहीं, स्थायी व्यवस्था हमें खुद ही ढूंढनी है। एनजीटी यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और हाईकोर्ट के अलावा नेशनल ह्यूमन राइट कमीशन की टिप्पणियां सरकारी सिस्टम की पोल खोल रही हैं। हाईकोर्ट ने तो यहां तक कह डाला है कि प्रदूषण से लोगों का बीमार होना हमारे मौलिक अधिकारों का हनन है। वहीं एनएचआरसी ने साफ कहा कि कोई भी सरकार अपने नागरिक को जहरीली हवा में मरने के लिए कैसे छोड़ सकती है? हाईकोर्ट ने तो यहां तक कह डाला कि अगर सरकारें तकनीक और सुविधा संपन्न हैं तो फिर हेलीकाप्टरों से जहरीली हवा का असर खत्म करने के लिए कृत्रिम बारिश क्यों नहीं कराई गई? अब प्रदूषण नियंत्रण, पर्यावरण मंत्रालय और अन्य विभागों के अलावा कई मुख्यमंत्रियों के कार्यालय मीटिंगों में लग गए हैं, लेकिन यह काम भी दो-चार दिन चलेगा। अगले साल फिर नवंबर आएगा, फिर वही धुआं, फिर वही जलन और फिर वही सरकारी भाषणों का दौर चलेगा। ठोस व्यवस्था की गारंटी अभी तक किसी ने नहीं दी। मेरा मानना है कि अगर हाइवे पर सड़कों के किनारे करोड़ों वृक्ष लगा दिए जाएं और उन्हें सुरक्षित रखने की व्यवस्था संचालित की जाए तो प्रदूषण की समस्या पैदा नहीं हो सकती, परंतु पहल कौन करेगा? हमें इसका इंतजार कल भी था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। हरित क्रांति लाने का आह्वान आदि सब बेमानी है अगर हम हरियाली को सुरक्षित न रख सके। आओ हरियाली लाएं-जीवन बचाएं। देखते हैं इस संकल्प को लेने के लिए कौन आगे बढ़ता है?